हाथीगुम्फ़ा शिलालेख: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
(3 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
[[चित्र:Udayagiri-Caves-Khandagiri.jpg|thumb|250px|[[उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि गुफ़ाएँ]], [[भुवनेश्वर]], [[उड़ीसा]]]]
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
|चित्र=Udayagiri-Caves-Khandagiri.jpg
|चित्र का नाम=उदयगिरि गुफ़ाएँ, भुवनेश्वर
|विवरण='हाथीगुम्फ़ा शिलालेख' [[भुवनेश्वर]] से 4-5 मील दूर एक पहाड़ी में स्थित है।
|शीर्षक 1=स्थान
|पाठ 1=[[भुवनेश्वर]], [[ओडिशा]]
|शीर्षक 2=निर्माणकर्ता
|पाठ 2=[[खारवेल]]
|शीर्षक 3=भाषा
|पाठ 3=[[प्राकृत भाषा]]
|शीर्षक 4=
|पाठ 4=
|शीर्षक 5=शिलालेख के अनुसार
|पाठ 5=हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह [[वर्ष]] विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने [[धर्म]], अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्र संचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं।
|शीर्षक 6=
|पाठ 6=
|शीर्षक 7=
|पाठ 7=
|शीर्षक 8=
|पाठ 8=
|शीर्षक 9=
|पाठ 9=
|शीर्षक 10=
|पाठ 10=
|संबंधित लेख=
|अन्य जानकारी= खारवेल [[जैन धर्म]] का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में [[कलिंग]] की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान [[महावीर]] के धर्म को अपना चुकी थी।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''हाथीगुम्फ़ा शिलालेख''' [[उड़ीसा|उड़ीसा राज्य]] के [[भुवनेश्वर]] से 4-5 मील दूर एक पहाड़ी में स्थित है। पहाड़ी में एक गुफ़ा में [[कलिंग]] नरेश [[खारवेल]] का [[पाली]] [[अभिलेख]] उत्कीर्ण है, जिसका ठीक-ठीक निर्वचन अद्यावत एक समस्या बना हुआ है। फिर भी जो सूचना इस अभिलेख से मिलती है, वह स्थूल रूप से यह है कि खारवेल ने<ref>जिसका समय ई. सन् से पूर्व माना जाता है।</ref> बहपतिमित<ref>बृहस्पतिमित्र</ref> को हराया, यह [[मगध]] के [[नंद वंश|नंद]] राजा से प्रथम [[तीर्थंकर|जैन तीर्थंकर]] की मूर्ति<ref>जो नन्द पहले कलिंग से ले गया था।</ref> वापस लाया और एक प्राचीन नहर का पुननिर्माण करवाया। अभिलेख में कहा गया है कि यह नहर नंद राजा के बाद ‘तिवससत्’ तक काम में न आयी थी।<ref>'पंचमे च दानि बसे नंदराज तिवससत...’</ref> मुख्य विवाद ‘तिवससत्’ शब्द पर है। राखालदास बनर्जी के मत में इसका अर्थ 300 है, किन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार इसे 103 समझना चाहिए। निर्वचन भेद के कारण राजा खारवेल के समय में 200 वर्षों का अन्तर पड़ जाता है। फिर भी पहला मत आजकल अधिक ग्राह्य माना जाता है। हाथीगुम्फ़ा अभिलेख के अध्ययन में का. प्र. जायसवाल ने भी महत्वपूर्ण योग दिया।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली|लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=1018|url=}}</ref>
'''हाथीगुम्फ़ा शिलालेख''' [[उड़ीसा|उड़ीसा राज्य]] के [[भुवनेश्वर]] से 4-5 मील दूर एक पहाड़ी में स्थित है। पहाड़ी में एक गुफ़ा में [[कलिंग]] नरेश [[खारवेल]] का [[पाली]] [[अभिलेख]] उत्कीर्ण है, जिसका ठीक-ठीक निर्वचन अद्यावत एक समस्या बना हुआ है। फिर भी जो सूचना इस अभिलेख से मिलती है, वह स्थूल रूप से यह है कि खारवेल ने<ref>जिसका समय ई. सन् से पूर्व माना जाता है।</ref> बहपतिमित<ref>बृहस्पतिमित्र</ref> को हराया, यह [[मगध]] के [[नंद वंश|नंद]] राजा से प्रथम [[तीर्थंकर|जैन तीर्थंकर]] की मूर्ति<ref>जो नन्द पहले कलिंग से ले गया था।</ref> वापस लाया और एक प्राचीन नहर का पुननिर्माण करवाया। अभिलेख में कहा गया है कि यह नहर नंद राजा के बाद ‘तिवससत्’ तक काम में न आयी थी।<ref>'पंचमे च दानि बसे नंदराज तिवससत...’</ref> मुख्य विवाद ‘तिवससत्’ शब्द पर है। राखालदास बनर्जी के मत में इसका अर्थ 300 है, किन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार इसे 103 समझना चाहिए। निर्वचन भेद के कारण राजा खारवेल के समय में 200 वर्षों का अन्तर पड़ जाता है। फिर भी पहला मत आजकल अधिक ग्राह्य माना जाता है। हाथीगुम्फ़ा अभिलेख के अध्ययन में का. प्र. जायसवाल ने भी महत्वपूर्ण योग दिया।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली|लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=1018|url=}}</ref>
==निर्माणकर्ता==
[[मौर्य वंश]] की शक्ति के शिथिल होने पर जब [[मगध साम्राज्य]] के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो [[कलिंग]] भी स्वतंत्र हो गया। [[उड़ीसा]] के [[भुवनेश्वर]] नामक स्थान से तीन मील दूर [[उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फ़ा लेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे [[खारवेल|कलिंगराज खारवेल]] ने उत्कीर्ण कराया था।
====भाषा====
यह लेख [[प्राकृत भाषा]] में है, और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। [[चेदि महाजनपद|चेदि वंश]] में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में खारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। खारवेल [[जैन धर्म]] का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में [[कलिंग]] की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान [[महावीर]] के धर्म को अपना चुकी थी।
==शिलालेख के अनुसार==
हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह [[वर्ष]] विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने [[धर्म]], अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्र संचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। पन्द्रह साल की आयु में वह युवराज के पद पर नियुक्त हुआ, और नौ वर्ष तक इस पद पर रहने के उपरान्त चौबीस वर्ष की आयु में वह [[कलिंग]] के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं। राज्याभिषेक के दूसरे वर्ष उसने पश्चिम की ओर आक्रमण किया और राजा सातकर्णि की उपेक्षा कर कञ्हवेना ([[कृष्णा नदी|कृष्णा]]) नदी के तट पर स्थित मूसिक नगर को उसने त्रस्त किया। [[सातकर्णि]] [[सातवाहन वंश|सातवाहन]] राजा था, और [[आंध्र प्रदेश]] में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था। अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया, और भोजकों तथा रठिकों (राष्ट्रिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति [[बरार]] के क्षेत्र में थी, और रठिकों की पूर्वी [[ख़ानदेश]] व [[अहमदनगर]] में। रठिक-भोजक सम्भवतः ऐसे [[क्षत्रिय]] कुल थे, प्राचीन अन्धक-वृष्णियों के समान जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य सम्भवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकृत करते थे।
====खारवेल की विजय यात्रा====
अपने शासनकाल के आठवें वर्ष में [[खारवेल]] ने उत्तर दिशा की ओर विजय यात्रा की। [[उत्तरापथ]] में आगे बढ़ती हुई उसकी सेना ने [[बराबर पहाड़ी|बराबर पहाड़ियों]] ([[गया ज़िला|गया ज़िले]]) में स्थित गोरथगिरि के दुर्ग पर आक्रमण किया और उसे जीतकर वे [[राजगृह]] पहुँच गई। जिस समय खारवेल इन युद्धों में व्यापृत था, [[बैक्ट्रिया]] के [[यवन]] भी [[भारत]] पर आक्रमण कर रहे थे। भारत के पश्चिम चक्र को अपने अधीन कर वे मध्य देश में पहुँच गए थे। हाथीगुम्फ़ा के लेख के अनुसार यवनराज खारवेल की विजयों के समाचार से भयभीत हो गया और उसने मध्य देश पर आक्रमण करने का विचार छोड़कर [[मथुरा]] की ओर प्रस्थान कर दिया। अनेक ऐतिहासिकों ने यह प्रतिपादित किया है कि खारवेल से भयभीत होकर मध्य देश से वापस चले जाने वाले इस यवन राजा का नाम [[डिमेट्रियस|दिमित (डेमेट्रियस)]] था।
====तमिल प्रदेश की विजय====
अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण दिशा को आक्रांत किया और विजय यात्रा करता हुआ वह [[तमिलनाडु|तमिल देश]] तक पहुँच गया। वहाँ पर उसने [[पिथुण्ड]] (पितुन्द्र) को जीता, और उसके राजा को भेंट उपहार प्रदान करने के लिए विवश किया। हाथीगुम्फ़ा के [[शिलालेख]] में खारवेल द्वारा परास्त किए गए तमिल देश संघात (राज्य संघ) का उल्लेख है। अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर [[उत्तरापथ]] पर आक्रमण किया और अपनी सेना के घोड़ों और [[हाथी|हाथियों]] को [[गंगाजल]] स्नान कराया। [[मगध]] के राजा को उसने अपने पैरों पर गिरने के लिए विवश किया और राजा नन्द [[कलिंग]] से [[महावीर|महावीर स्वामी]] की जो मूर्ति [[पाटलिपुत्र]] ले गया था, उसे वह फिर से कलिंग वापस ले आया। इस मूर्ति के अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सी लूट खारवेल [[मगध]] से अपने राज्य में ले गया और उसका उपयोग उसने [[भुवनेश्वर]] में एक विशाल मन्दिर के निर्माण के लिए किया, जिसका उल्लेख [[ब्रह्माण्ड पुराण]] की [[उड़ीसा]] में प्राप्त एक हस्तलिखित प्रति में भी विद्यमान है।<br />
[[मगध]] के जिस राजा को खारवेल ने अपने चरणों पर गिरने के लिए विवश किया था, अनेक इतिहासकारों के अनुसार उसका नाम 'बहसतिमित' (बृहस्पतिमित्र) था। उन्होंने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में इस राजा के नाम को पढ़ने का प्रयत्न भी किया है। पर सब विद्वान इस पाठ से सहमत नहीं हैं। श्री जायसवाल ने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उल्लिखित मगध के राजा के नाम को बहसतिमित मानकर उसे [[पुष्यमित्र शुंग]] का पर्यायवाची प्रतिपादित किया है और यह माना है कि कलिंगराज खारवेल ने [[शुंगवंश|शुंगवंशी]] [[पुष्यमित्र शुंग|पुष्यमित्र]] पर आक्रमण कर उसे परास्त किया था। पर अनेक ऐतिहासिक हाथीगुम्फ़ा में आये नाम को न बहसतिमित स्वीकार करने को उद्यत हैं, और न ही पुष्यमित्र के साथ मिलाने को। पर इसमें सन्देह नहीं कि हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार खारवेल ने उत्तरापथ पर आक्रमण करते हुए [[मगध]] की भी विजय की थी, और वहाँ के राजा को अपने सम्मुख झुकने के लिए विवश किया था। खारवेल की शक्ति के उत्कर्ष और दिग्विजय का यह वृत्तान्त निस्सन्देह बहुत महत्त्व का है।


[[मौर्य वंश]] की शक्ति के शिथिल होने पर जब [[मगध]] साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो [[कलिंग]] भी स्वतंत्र हो गया। [[उड़ीसा]] के भुवनेश्वर नामक स्थान से तीन मील दूर [[उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फ़ा लेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे [[खारवेल|कलिंगराज ख़ारवेल]] ने उत्कीर्ण कराया था। यह लेख [[प्राकृत भाषा]] में है, और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। [[चेदि महाजनपद|चेदि वंश]] में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में ख़ारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। ख़ारवेल [[जैन धर्म]] का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी।
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
 
{{Panorama
'''हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार''' ख़ारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने धर्म, अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्रसंचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। पन्द्रह साल की आयु में वह युवराज के पद पर नियुक्त हुआ, और नौ वर्ष तक इस पद पर रहने के उपरान्त चौबीस वर्ष की आयु में वह कलिंग के राहसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं। राज्याभिषेक के दूसरे वर्ष उसने पश्चिम की ओर आक्रमण किया, और राजा सातकर्णि की उपेक्षा कर कञ्हवेना (कृष्णा) नदी के तट पर स्थित मूसिक नगर को उसने त्रस्त किया। सातकर्णि सातवाहन राजा था, और आंध्र प्रदेश में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था। अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में ख़ारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया, और भोजकों तथा रठिकों (राष्ट्रिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति बरार के क्षेत्र में थी, और रठिकों की पूर्वी ख़ानदेश व अहमदनगर में। रठिक-भोजक सम्भवतः ऐसे क्षत्रिय कुल थे, प्राचीन अन्धक-वृष्णियों के समान जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य सम्भवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकृत करते थे।
|image= चित्र:Udayagiri-Caves-180°-Panorama-Odisha.jpg
==खारवेल की विजय यात्रा==
|height= 300
अपने शासनकाल के आठवें वर्ष में ख़ारवेल ने उत्तर दिशा की ओर विजय यात्रा की। [[उत्तरापथ]] में आगे बढ़ती हुई उसकी सेना ने बराबर पहाड़ियों (गया ज़िले) में स्थित गोरथगिरि के दुर्ग पर आक्रमण किया, और उसे जीतकर वे [[राजगृह]] पहुँच गई। जिस समय ख़ारवेल इन युद्धों में व्यापृत था, [[बैक्ट्रिया]] के [[यवन]] भी [[भारत]] पर आक्रमण कर रहे थे। भारत के पश्चिम चक्र को अपने अधीन कर वे मध्य देश में पहुँच गए थे। हाथीगुम्फ़ा के लेख के अनुसार यवनराज ख़ारवेल की विजयों के समाचार से भयभीत हो गया, और उसने मध्यदेश पर आक्रमण करने का विचार छोड़कर [[मथुरा]] की ओर प्रस्थान कर दिया। अनेक ऐतिहासिकों ने यह प्रतिपादित किया है, कि ख़ारवेल से भयभीत होकर मध्यदेश से वापस चले जाने वाले इस यवनराजा का नाम [[डिमेट्रियस|दिमित (डेमेट्रियस)]] था। अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में ख़ारवेल ने दक्षिण दिशा को आक्रांत किया, और विजययात्रा करता हुआ वह तमिल देश तक पहुँच गया। वहाँ पर उसने [[पिथुण्ड]] (पितुन्द्र) को जीता, और उसके राजा को भेंट उपहार प्रदान करने के लिए विवश किया। हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख में ख़ारवेल द्वारा परास्त किए गए तमिल देश संघात (राज्य संघ) का उल्लेख है। अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में ख़ारवेल ने एक बार फिर उत्तरापथ पर आक्रमण किया, और अपनी सेना के घोड़ों और [[हाथी|हाथियों]] को [[गंगाजल]] स्नान कराया। [[मगध]] के राजा को उसने अपने पैरों पर गिरने के लिए विवश किया, और राजा नन्द [[कलिंग]] से [[महावीर|महावीर स्वामी]] की जो मूर्ति [[पाटलिपुत्र]] ले गया था, उसे वह फिर से कलिंग वापस ले आया। इस मूर्ति के अतिरिक्त अन्य भी बहुत—सी लूट ख़ारवेल मगध से अपने राज्य में ले गया, और उसका उपयोग उसने [[भुवनेश्वर]] में एक विशाल मन्दिर के निर्माण के लिए किया, जिसका उल्लेख [[ब्रह्माण्ड पुराण]] की [[उड़ीसा]] में प्राप्त एक हस्तलिखित प्रति में भी विद्यमान है। मगध के जिस राजा को ख़ारवेल ने अपने चरणों पर गिरने के लिए विवश किया था, अनेक इतिहासकारों के अनुसार उसका नाम बहसतिमित (बृहस्पतिमित्र) था। उन्होंने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में इस राजा के नाम को पढ़ने का प्रयत्न भी किया है। पर सब विद्वान इस पाठ से सहमत नहीं हैं। श्री जायसवाल ने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उल्लिखित मगध के राजा के नाम को बहसतिमित (बृहस्पतिमित्र) मानकर उसे [[पुष्यमित्र शुंग]] का पर्यायवाची प्रतिपादित किया है, और यह माना है कि कलिंगराज ख़ारवेल ने शुंगवंशी पुष्यमित्र पर आक्रमण कर उसे परास्त किया था। पर अनेक ऐतिहासिक हाथीगुम्फ़ा में आये नाम को न बहसतिमित स्वीकार करने को उद्यत हैं, और न ही पुष्यमित्र के साथ मिलाने को। पर इसमें सन्देह नहीं कि हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार ख़ारवेल ने उत्तरापथ पर आक्रमण करते हुए मगध की भी विजय की थी, और वहाँ के राजा को अपने सम्मुख झुकने के लिए विवश किया था।
|alt=उदयगिरी गुफ़ाएँ, [[उड़ीसा]]
 
|caption= उदयगिरी गुफ़ाएँ, [[उड़ीसा]]
ख़ारवेल की शक्ति के उत्कर्ष और दिग्विजय का यह वृत्तान्त निस्सन्देह बहुत महत्त्व का है।
 
{{प्रचार}}
{{लेख प्रगति
|आधार=
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2
|माध्यमिक=
|पूर्णता=
|शोध=
}}
}}
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{उड़ीसा के पर्यटन स्थल}}
{{उड़ीसा के ऐतिहासिक स्थान}}{{उड़ीसा के पर्यटन स्थल}}
[[Category:उड़ीसा राज्य]]
[[Category:उड़ीसा राज्य]][[Category:उड़ीसा राज्य का इतिहास]][[Category:उड़ीसा राज्य के ऐतिहासिक स्थान]][[Category:ऐतिहासिक स्थल]][[Category:ऐतिहासिक स्थान कोश]][[Category:उड़ीसा राज्य के पर्यटन स्थल]][[Category:पर्यटन कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:उड़ीसा राज्य का इतिहास]][[Category:इतिहास_कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Latest revision as of 13:10, 16 November 2016

हाथीगुम्फ़ा शिलालेख
विवरण 'हाथीगुम्फ़ा शिलालेख' भुवनेश्वर से 4-5 मील दूर एक पहाड़ी में स्थित है।
स्थान भुवनेश्वर, ओडिशा
निर्माणकर्ता खारवेल
भाषा प्राकृत भाषा
शिलालेख के अनुसार हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने धर्म, अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्र संचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं।
अन्य जानकारी खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी।

हाथीगुम्फ़ा शिलालेख उड़ीसा राज्य के भुवनेश्वर से 4-5 मील दूर एक पहाड़ी में स्थित है। पहाड़ी में एक गुफ़ा में कलिंग नरेश खारवेल का पाली अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसका ठीक-ठीक निर्वचन अद्यावत एक समस्या बना हुआ है। फिर भी जो सूचना इस अभिलेख से मिलती है, वह स्थूल रूप से यह है कि खारवेल ने[1] बहपतिमित[2] को हराया, यह मगध के नंद राजा से प्रथम जैन तीर्थंकर की मूर्ति[3] वापस लाया और एक प्राचीन नहर का पुननिर्माण करवाया। अभिलेख में कहा गया है कि यह नहर नंद राजा के बाद ‘तिवससत्’ तक काम में न आयी थी।[4] मुख्य विवाद ‘तिवससत्’ शब्द पर है। राखालदास बनर्जी के मत में इसका अर्थ 300 है, किन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार इसे 103 समझना चाहिए। निर्वचन भेद के कारण राजा खारवेल के समय में 200 वर्षों का अन्तर पड़ जाता है। फिर भी पहला मत आजकल अधिक ग्राह्य माना जाता है। हाथीगुम्फ़ा अभिलेख के अध्ययन में का. प्र. जायसवाल ने भी महत्वपूर्ण योग दिया।[5]

निर्माणकर्ता

मौर्य वंश की शक्ति के शिथिल होने पर जब मगध साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो कलिंग भी स्वतंत्र हो गया। उड़ीसा के भुवनेश्वर नामक स्थान से तीन मील दूर उदयगिरि नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फ़ा लेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कलिंगराज खारवेल ने उत्कीर्ण कराया था।

भाषा

यह लेख प्राकृत भाषा में है, और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। चेदि वंश में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में खारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी।

शिलालेख के अनुसार

हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने धर्म, अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्र संचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। पन्द्रह साल की आयु में वह युवराज के पद पर नियुक्त हुआ, और नौ वर्ष तक इस पद पर रहने के उपरान्त चौबीस वर्ष की आयु में वह कलिंग के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं। राज्याभिषेक के दूसरे वर्ष उसने पश्चिम की ओर आक्रमण किया और राजा सातकर्णि की उपेक्षा कर कञ्हवेना (कृष्णा) नदी के तट पर स्थित मूसिक नगर को उसने त्रस्त किया। सातकर्णि सातवाहन राजा था, और आंध्र प्रदेश में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था। अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया, और भोजकों तथा रठिकों (राष्ट्रिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति बरार के क्षेत्र में थी, और रठिकों की पूर्वी ख़ानदेशअहमदनगर में। रठिक-भोजक सम्भवतः ऐसे क्षत्रिय कुल थे, प्राचीन अन्धक-वृष्णियों के समान जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य सम्भवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकृत करते थे।

खारवेल की विजय यात्रा

अपने शासनकाल के आठवें वर्ष में खारवेल ने उत्तर दिशा की ओर विजय यात्रा की। उत्तरापथ में आगे बढ़ती हुई उसकी सेना ने बराबर पहाड़ियों (गया ज़िले) में स्थित गोरथगिरि के दुर्ग पर आक्रमण किया और उसे जीतकर वे राजगृह पहुँच गई। जिस समय खारवेल इन युद्धों में व्यापृत था, बैक्ट्रिया के यवन भी भारत पर आक्रमण कर रहे थे। भारत के पश्चिम चक्र को अपने अधीन कर वे मध्य देश में पहुँच गए थे। हाथीगुम्फ़ा के लेख के अनुसार यवनराज खारवेल की विजयों के समाचार से भयभीत हो गया और उसने मध्य देश पर आक्रमण करने का विचार छोड़कर मथुरा की ओर प्रस्थान कर दिया। अनेक ऐतिहासिकों ने यह प्रतिपादित किया है कि खारवेल से भयभीत होकर मध्य देश से वापस चले जाने वाले इस यवन राजा का नाम दिमित (डेमेट्रियस) था।

तमिल प्रदेश की विजय

अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण दिशा को आक्रांत किया और विजय यात्रा करता हुआ वह तमिल देश तक पहुँच गया। वहाँ पर उसने पिथुण्ड (पितुन्द्र) को जीता, और उसके राजा को भेंट उपहार प्रदान करने के लिए विवश किया। हाथीगुम्फ़ा के शिलालेख में खारवेल द्वारा परास्त किए गए तमिल देश संघात (राज्य संघ) का उल्लेख है। अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर उत्तरापथ पर आक्रमण किया और अपनी सेना के घोड़ों और हाथियों को गंगाजल स्नान कराया। मगध के राजा को उसने अपने पैरों पर गिरने के लिए विवश किया और राजा नन्द कलिंग से महावीर स्वामी की जो मूर्ति पाटलिपुत्र ले गया था, उसे वह फिर से कलिंग वापस ले आया। इस मूर्ति के अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सी लूट खारवेल मगध से अपने राज्य में ले गया और उसका उपयोग उसने भुवनेश्वर में एक विशाल मन्दिर के निर्माण के लिए किया, जिसका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण की उड़ीसा में प्राप्त एक हस्तलिखित प्रति में भी विद्यमान है।
मगध के जिस राजा को खारवेल ने अपने चरणों पर गिरने के लिए विवश किया था, अनेक इतिहासकारों के अनुसार उसका नाम 'बहसतिमित' (बृहस्पतिमित्र) था। उन्होंने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में इस राजा के नाम को पढ़ने का प्रयत्न भी किया है। पर सब विद्वान इस पाठ से सहमत नहीं हैं। श्री जायसवाल ने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उल्लिखित मगध के राजा के नाम को बहसतिमित मानकर उसे पुष्यमित्र शुंग का पर्यायवाची प्रतिपादित किया है और यह माना है कि कलिंगराज खारवेल ने शुंगवंशी पुष्यमित्र पर आक्रमण कर उसे परास्त किया था। पर अनेक ऐतिहासिक हाथीगुम्फ़ा में आये नाम को न बहसतिमित स्वीकार करने को उद्यत हैं, और न ही पुष्यमित्र के साथ मिलाने को। पर इसमें सन्देह नहीं कि हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के अनुसार खारवेल ने उत्तरापथ पर आक्रमण करते हुए मगध की भी विजय की थी, और वहाँ के राजा को अपने सम्मुख झुकने के लिए विवश किया था। खारवेल की शक्ति के उत्कर्ष और दिग्विजय का यह वृत्तान्त निस्सन्देह बहुत महत्त्व का है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध
[[चित्र:Udayagiri-Caves-180°-Panorama-Odisha.jpg|x300px|alt=उदयगिरी गुफ़ाएँ, उड़ीसा|उदयगिरी गुफ़ाएँ, उड़ीसा]]
उदयगिरी गुफ़ाएँ, उड़ीसा

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसका समय ई. सन् से पूर्व माना जाता है।
  2. बृहस्पतिमित्र
  3. जो नन्द पहले कलिंग से ले गया था।
  4. 'पंचमे च दानि बसे नंदराज तिवससत...’
  5. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 1018 |

संबंधित लेख