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मुखिया वैदिक काल में गाँव का मुखिया ग्रामणी कहलाता था। ऋग्वेद में उसकी तुलना साक्षात्‌ राजा से की गई है।[1] महावग्ग, कुलावक जातक, खरसर जातक और उभतोभट्ट आदि बौद्ध ग्रंथों में ग्रामणी या ग्रामभोजक का उल्लेख है, जिसे ग्राम की देखरेख करनी पड़ती थी और मालगुज़ारी भी वही वसूल करता था। मनु, शुक्र, विष्णु आदि स्मृतियों में ग्रामिक के कर्तव्य बतलाए गये हैं। 'ग्रामस्याधिपतिं कुर्याद्दश ग्रामपतिं तथा[2], 'ग्राम दोषान्‌ समुत्पन्नांग्रामिक: शनकै: स्वयम्‌। शंसेद् ग्राम दशैशाय दशैशो विशंतीशिने।[3]

'अर्थशास्त्र' और चंद्रगुप्त मौर्य का ग्रामिक संभवत: चुना हुआ कर्मचारी था। गुप्तकाल में भी ग्राम के प्रमुख को ग्रामिक कहते थे। इसके अस्तित्व को मुस्लिम काल में भी माना गया है। बहमनी राज्य में कर वसूल करने के लिए इसकी सहायता ली जाती थी। मुर्शिद कुली ने करवसूली के लिए गाँव पटेल नियुक्त किए थे। अंग्रेजी राज्य में भी मुखिया का अस्तित्व बना रहा। उसकी नियुक्ति आदि के लिए नियम बनाए गए थे। जिलाधीश या उसके द्वारा अधिकृत परगनाधीश प्रत्येक ग्राम या ग्राम समूह के लिए एक या एकाधिक व्यक्तियों को मुखिया नियुक्त करता था, जो अच्छे चालचलन वाला और प्रभावशाली व्यक्ति होता था।

जिलाधीश या परगनाधीश ही मुखिया को पदच्युत भी कर सकते थे। उनके प्रमुख कर्त्तव्य ग्राम सुरक्षा से संबद्ध थे और वह अपने क्षेत्र की ऐसी सभी घटनाओं की जिनसे शांति और सुरक्षा को खतरा हो सूचना निकटस्थ थाने या मजिस्ट्रेट को देता था। पंचायत राज अधिनियम लागू होने पर यह व्यवस्था स्वत: समाप्त हो गई है और अब इस प्रकार का दायित्व किसी एक व्यक्ति पर नहीं है।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद 10।105
  2. मनु. 7।115
  3. मनु. 7।116
  4. मुखिया (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 17 सितम्बर, 2015।