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जोनराज संस्कृत के विद्वान् टीकाकार एवं इतिहासकार थे। कश्मीर के सुल्तान जैनुल आबिदीन (1420-1470 ई.) के वे राजदरबारी पंडित थे। यद्यपि उनके जन्म और मृत्यु की निश्चित तिथियाँ अज्ञात हैं, तथापि 1389 से 1459 ई. के बीच उनका जीवित रहना अधिक संभावित है। जोनराज ने महाकवि जयानक कृत ऐतिहासिक ग्रंथ 'पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम्' की विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी थी।
परिचय
जोनराज के पिता का नाम 'नोनराज' और पितामह का 'लोलराज' था। ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न जोनराज कुशाग्र बुद्धि थे। उन्होंने संस्कृत साहित्य का प्रगाढ़ अध्ययन किया था। कश्मीर के सुल्तान जैनुल आबिदीन की न्यायप्रियता के परिणामस्वरूप उन्हें पैतृक संपत्ति भी मिल गई थी। प्रसिद्ध 'किरातार्जुनीयम्' (1449 ई.) और महाकवि मंख विरचित 'श्रीकंठचरितम्' पर ललित टीकाएँ लिखने के बाद जोनराज ने महाकवि जयानक कृत ऐतिहासिक ग्रंथ 'पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम्' की विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी।[1]
'द्वितीय राजतरंगिणी' की रचना
जोनराज की 'पृथ्वीराजविजय' की टीका से प्रकट है कि उनमें अर्थज्ञान, ऐतिहासिक निवेश, सही व्याख्या तथा स्वतंत्र टिप्पणियों के लेखन का अद्भुत कौशल था। कदाचित् उनकी इसी टीका से प्रभावित होकर सल्तनत के न्यायालयों के निरीक्षक[2] शिर्यभट्ट ने उन्हें कल्हण की 'राजतरंगिणी' को पूर्ण करने की आज्ञा दी। कल्हण 'कश्मीर का इतिहास' 1149-1150 ई. तक ही लिख सकते थे। उसके आगे 1459 ई. तक का इतिहास जोनराज ने लिखा, जो 'द्वितीय राजतरंगिणी' के नाम से विख्यात है। उसमें जोनराज ने जयसिंह से रानीकोटा तक के हिन्दू राजाओं का 347 श्लोकों में (डॉ. पिटर्सन द्वारा संशोधित 'द्वितीय राजतरंगिणी', बंबई संस्करण, 1896) संक्षिप्त वर्णन किया है। इसमें शाहमीर के कश्मीर हड़पने (1339 ई.) से लेकर जैनुल आबिदीन के राज्य काल के 1459 ई. तक के इतिहास का अधिक वर्णन है।
लेखन शैली
स्टीन के कथनानुसार जोनराज में यथेष्ट उपलब्धियाँ तो थीं, किंतु तदनुरूप मौलिकता का अभाव था। फिर भी जोनराज ने कल्हण से मिलती-जुलती शैली में इतिहास लिखने में जिस काव्यात्मक योग्यता, चरित्र निरूपण की उत्कृष्टता तथा घटनाओं के वर्णन में दक्षता का परिचय दिया है, वह स्तुत्य है। वैज्ञानिक शैली का अनुसरण करने वाले आधुनिक इतिहासकार में वस्तुपरकता, निष्पक्षता और विवेकशीलता सदृश जिन गुणों का होना आवश्यक समझा जाता है उनमें उनका समुचित विकास न होते हुए भी जोनराज ने अपने ग्रंथ में यथार्थ विवरण देने की चेष्टा की है।[1]
जैनुल आबिदीन के कृपापात्र
जैनुल आबिदीन के विशेष कृपापात्र रहने के कारण सुल्तान के व्यक्तिगत गुणों के अतिरंजित वर्णन और उनकी कमियों के बारे में ग्रंथकार की चुप्पी खटकती अवश्य है, तथापि समकालिक होते हुए उन्होंने सिकंदरशाह और उसके हिन्दू उत्पीड़क मंत्री सुहभट्ट के धर्मांध कृत्यों का वर्णन करते समय कोई संकोच नहीं किया। उनका कश्मीर का भौगोलिक वर्णन सही है। उन्होंने प्रत्येक राजा के अभिषेक और मृत्यु की ठीक तिथियाँ दी है। किंतु अन्य हिन्दू इतिहास लेखकों की भाँति उनमें भी एक दोष था। उन्होंने अलग-अलग शासकों के समय की विभिन्न घटनाओं का कोई तिथि क्रम नहीं दिया। 'द्वितीय राजतरंगिणी' की भाषा में अरबी, फ़ारसी और तुर्की शब्दों का भी समावेश हुआ है।
निधन
'द्वितीय राजतरंगिणी' लिखते हुए ही 1459 ई. में जोनराज का प्राणांत हो गया। उनके शिष्य (पुत्र?) श्रीवर ने उनके बाद 'राजतरंगिणी' के विषय को आगे बढ़ाया। संस्कृत विद्या के ह्रास के दिनों में जोनराज द्वारा अर्जित कीर्ति महत्वपूर्ण थी। कल्हण के पश्चात् उस परिपाटी के गिन-चुने इतिहासकारों में जोनराज का स्थान सुरक्षित है।[1]
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