रणछोड़ जी मंदिर, द्वारका: Difference between revisions

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==रणछोड़ जी मंदिर==
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*कहा जाता है [[कृष्ण]] के भवन के स्थान पर ही रणछोड़ जी का मूल मंदिर है। यह परकोटे के अंदर घिरा हुआ है और सात-मंज़िला है। इसके उच्चशिखर पर संभवत: संसार की सबसे विशाल ध्वजा लहराती है। यह ध्वजा पूरे एक थान कपड़े से बनती है। द्वारकापुरी [[महाभारत]] के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी।  
'''रणछोड़ जी मंदिर''' [[गुजरात]] राज्य के [[द्वारका]] नगर में स्थित है। कहा जाता है [[कृष्ण]] के भवन के स्थान पर ही रणछोड़ जी का मूल मंदिर है। यह परकोटे के अंदर घिरा हुआ है और सात-मंज़िला है। इसके उच्चशिखर पर संभवत: संसार की सबसे विशाल ध्वजा लहराती है। यह ध्वजा पूरे एक थान कपड़े से बनती है। द्वारकापुरी [[महाभारत]] के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी।  
*[[जैन]] सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे [[कुबेर]] द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-बन का उल्लेख है।  
==ऐतिहासिक उल्लेख==
*[[भागवत पुराण|श्रीमद् भागवत]] में भी [[द्वारका]] का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है,<ref> 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्।  दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52</ref>।  
*जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 [[योजन]] लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे [[कुबेर]] द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना [[अलका]] से की गई है। [[रैवतक|रैवतक पर्वत]] को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। [[पर्वत]] के शिखर पर नंदन-बन का उल्लेख है।  
*माघ के [[शिशुपाल वध]] के तृतीय सर्ग में भी द्वारका का रमणीक वर्णन है। वर्तमान बेट द्वारका श्रीकृष्ण की विहार-स्थली यही कही जाती है।
*[[भागवत पुराण|श्रीमद् भागवत]] में भी द्वारका का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है,<ref> 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्।  दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52</ref>।  
*यहाँ का [[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मंदिर]], रणछोड़ जी मंदिर व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है ।
==विशेषताएँ==
*[[आदि शंकराचार्य]] द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है ।
*[[माघ]] के [[शिशुपाल वध]] के तृतीय सर्ग में भी द्वारका का रमणीक वर्णन है। वर्तमान [[बेट द्वारका]] [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की विहार-स्थली यही कही जाती है। यहाँ का [[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मंदिर]], रणछोड़ जी मंदिर व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
*द्वारिका हमारे देश के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है । आज से हज़ारों साल पहले भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था ।  कृष्ण [[मथुरा]] में पैदा हुए, [[गोकुल]] में पले, पर राज उन्होंने द्वारका में ही किया । यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली । [[पांडव|पांडवों]] को सहारा दिया । धर्म की जीत कराई और, [[शिशुपाल]] और [[दुर्योधन]] जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया । द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं । बड़े-बड़े राजा यहाँ आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे ।
*[[आदि शंकराचार्य]] द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है।
*द्वारिका [[भारत]] के पश्चिम में [[समुद्र]] के किनारे पर बसी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हज़ारों साल पहले भगवान कृष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण [[मथुरा]] में पैदा हुए, [[गोकुल]] में पले, पर राज उन्होंने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। [[पांडव|पांडवों]] को सहारा दिया। [[धर्म]] की जीत कराई और, [[शिशुपाल]] और [[दुर्योधन]] जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहाँ आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे।


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Latest revision as of 07:00, 21 August 2016

thumb|250px|रणछोड़ जी मंदिर रणछोड़ जी मंदिर गुजरात राज्य के द्वारका नगर में स्थित है। कहा जाता है कृष्ण के भवन के स्थान पर ही रणछोड़ जी का मूल मंदिर है। यह परकोटे के अंदर घिरा हुआ है और सात-मंज़िला है। इसके उच्चशिखर पर संभवत: संसार की सबसे विशाल ध्वजा लहराती है। यह ध्वजा पूरे एक थान कपड़े से बनती है। द्वारकापुरी महाभारत के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी।

ऐतिहासिक उल्लेख

  • जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-बन का उल्लेख है।
  • श्रीमद् भागवत में भी द्वारका का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है,[1]

विशेषताएँ

  • माघ के शिशुपाल वध के तृतीय सर्ग में भी द्वारका का रमणीक वर्णन है। वर्तमान बेट द्वारका श्रीकृष्ण की विहार-स्थली यही कही जाती है। यहाँ का द्वारिकाधीश मंदिर, रणछोड़ जी मंदिर व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
  • आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है।
  • द्वारिका भारत के पश्चिम में समुद्र के किनारे पर बसी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हज़ारों साल पहले भगवान कृष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में पैदा हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होंने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांडवों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहाँ आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52

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