पेशवा: Difference between revisions

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मूलरूप से [[शिवाजी]] के द्वारा नियुक्त [[अष्टप्रधान|अष्टप्रधानों]] में से एक। उसे '''मुख्य प्रधान''' भी कहते थे। उसका कार्य सामान्य रीति से प्रजाहित पर ध्यान रखना था।
मूलरूप से [[शिवाजी]] के द्वारा नियुक्त [[अष्टप्रधान|अष्टप्रधानों]] में से एक। उसे '''मुख्य प्रधान''' भी कहते थे। उसका कार्य सामान्य रीति से प्रजाहित पर ध्यान रखना था।
===पेशवा पद का महत्व===
===पेशवा पद का महत्व===
[[शाहू]] (1708-48 ई.) के राज्यकाल में [[बालाजी विश्वनाथ]] ने इस पद का महत्व बहुत अधिक बढ़ा दिया। वह 1713 ई. में पेशवा नियुक्त हुआ और 1720 ई. में मृत्यु होने तक इस पद पर बना रहा। उसने सेनापति तथा राजनीतिज्ञ, दोनों ही रूपों में जो सफलता प्राप्त कीं, उससे दूसरे प्रधानों की अपेक्षा पेशवा के पद की मर्यादा बहुत ही बढ़ गई। 1720 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र [[बाजीराव प्रथम]] पेशवा नियुक्त हुआ। तब से यह पद बालाजी का एक प्रकार से ख़ानदानी हक़ बन गया। [[बाजीराव प्रथम]] बीस साल (1720-40 ई.) तक पेशवा रहा और उसने [[निज़ाम]] पर विजय प्राप्त करके तथा उत्तरी भारत में विजय यात्राएँ करके पेशवा के पद का महत्व और भी बढ़ा दिया। उसकी उत्तरी भारत की विजय यात्राओं के फलस्वरूप [[मालवा]], [[गुजरात]] तथा मध्य [[भारत]] में [[मराठा]] राज्यशक्ति स्थापित हो गई तथा मराठा संघ की शक्ति बहुत बढ़ गई। मराठा संघ में [[शिन्दे]], [[होल्कर]], [[गायकवाड़]] तथा [[भोंसले]] सम्मिलित थे।
[[शाहू]] (1708-48 ई.) के राज्यकाल में [[बालाजी विश्वनाथ]] ने इस पद का महत्व बहुत अधिक बढ़ा दिया। वह 1713 ई. में पेशवा नियुक्त हुआ और 1720 ई. में मृत्यु होने तक इस पद पर बना रहा। उसने सेनापति तथा राजनीतिज्ञ, दोनों ही रूपों में जो सफलता प्राप्त कीं, उससे दूसरे प्रधानों की अपेक्षा पेशवा के पद की मर्यादा बहुत ही बढ़ गई। 1720 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र [[बाजीराव प्रथम]] पेशवा नियुक्त हुआ। तब से यह पद बालाजी का एक प्रकार से ख़ानदानी हक़ बन गया। [[बाजीराव प्रथम]] बीस साल (1720-40 ई.) तक पेशवा रहा और उसने [[निज़ाम]] पर विजय प्राप्त करके तथा उत्तरी भारत में विजय यात्राएँ करके पेशवा के पद का महत्व और भी बढ़ा दिया। उसकी उत्तरी भारत की विजय यात्राओं के फलस्वरूप [[मालवा]], [[गुजरात]] तथा मध्य [[भारत]] में [[मराठा]] राज्यशक्ति स्थापित हो गई तथा मराठा संघ की शक्ति बहुत बढ़ गई। मराठा संघ में [[महादजी शिन्दे|शिन्दे]] [[होल्कर]], [[गायकवाड़]] तथा [[भोंसले]] सम्मिलित थे।
   
   
1740 ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र [[बालाजी बाजीराव]] पेशवा बना। 1749 ई. में महाराज [[शाहू]] निस्संतान ही मर गया। इसके फलस्वरूप पेशवा का पद वंशगत होने के साथ ही मराठा राज्य में सर्वोच्च मान लिया गया। पेशवा मराठा राज्य की राजधानी [[सतारा]] से हटाकर [[पूना]] ले गया और राज्य का वास्तविक इतिहास पेशवाओं के इतिहास से सम्पृक्त हो गया।
1740 ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र [[बालाजी बाजीराव]] पेशवा बना। 1749 ई. में महाराज [[शाहू]] निस्संतान ही मर गया। इसके फलस्वरूप पेशवा का पद वंशगत होने के साथ ही मराठा राज्य में सर्वोच्च मान लिया गया। पेशवा मराठा राज्य की राजधानी [[सतारा]] से हटाकर [[पूना]] ले गया और राज्य का वास्तविक इतिहास पेशवाओं के इतिहास से सम्पृक्त हो गया।
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[[नाना फड़नवीस]] इस समय पेशवा का प्रधानामात्य था। उसकी नीतिकुशलता तथा योग्यता के कारण अगले 18 सालों तक दक्षिण में पेशवाओं की राज्यशक्ति अखण्डित रही, किन्तु उत्तर [[भारत]] में मराठा राज्यशक्ति स्थापित करने के सारे प्रयत्न त्याग दिये गये। 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ पेशवा को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह देने वाला कोई नहीं था।
[[नाना फड़नवीस]] इस समय पेशवा का प्रधानामात्य था। उसकी नीतिकुशलता तथा योग्यता के कारण अगले 18 सालों तक दक्षिण में पेशवाओं की राज्यशक्ति अखण्डित रही, किन्तु उत्तर [[भारत]] में मराठा राज्यशक्ति स्थापित करने के सारे प्रयत्न त्याग दिये गये। 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ पेशवा को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह देने वाला कोई नहीं था।
===बसई की संधि===
===बसई की संधि===
1802 ई. में पेशवा [[बाजीराव द्वितीय]] ने, जो 1796 ई. में पेशवा बना था, अपने मराठा सरदारों, विशेषरूप से [[होल्कर]] और [[महादजी शिन्दे]] के चंगुल से अपने को बचाने के लिए अंग्रेज़ों के साथ स्वेच्छा से [[बसई की संधि]] कर ली। उसने अंग्रेज़ों की आश्रित सेना रखना स्वीकार करके एक प्रकार से अपनी स्वतंत्रता बेच दी। उसके साथ क़ायरतापूर्ण आचरण पर मराठा सरदारों में भारी आक्रोश उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप दूसरा मराठा युद्ध (1803-05 ई.) आरम्भ हुआ, और मराठा राज्य शक्ति और मज़बूती से अंग्रेज़ों के फ़ौलादी पंजों में कस गई।
1802 ई. में पेशवा [[बाजीराव द्वितीय]] ने, जो 1796 ई. में पेशवा बना था, अपने मराठा सरदारों, विशेषरूप से [[होल्कर]] और [[महादजी शिन्दे]] के चंगुल से अपने को बचाने के लिए अंग्रेज़ों के साथ स्वेच्छा से [[बसई की सन्धि]] कर ली। उसने अंग्रेज़ों की आश्रित सेना रखना स्वीकार करके एक प्रकार से अपनी स्वतंत्रता बेच दी। उसके साथ क़ायरतापूर्ण आचरण पर मराठा सरदारों में भारी आक्रोश उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप दूसरा मराठा युद्ध (1803-05 ई.) आरम्भ हुआ, और मराठा राज्य शक्ति और मज़बूती से अंग्रेज़ों के फ़ौलादी पंजों में कस गई।
===बाजीराव द्वितीय कि मृत्यु===
===बाजीराव द्वितीय कि मृत्यु===
अंग्रेज़ों का जुआ अपने पर लाद लेने पर बाजीराव द्वितीय को शीघ्र ही पछतावा होने लगा कि उसने एक बहुत भारी ग़लती की है। उसके द्वारा उस जुए को उतार फेंकने की कोशिश करने पर तीसरा मराठा युद्ध (1817-19 ई.) छिड़ गया। इस युद्ध में कई लड़ाईयों में पेशवा की निर्णायात्मक हार हुई और उसे गद्दी से उतार दिया गया और पेशवाई समाप्त कर दी गई, फिर भी बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर [[कानपुर]] के निकट [[बिठूर]] जाकर रहने की इजाज़त दे दी गई। 1853 ई. में बिठूर में ही उसकी मृत्यु हो गई। अंग्रेज़ों ने उसके गोद लिये हुए लड़के [[नाना साहब]] को पेंशन देने से इन्कार कर दिया। इसके फलस्वरूप उसने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भाग लिया और अंत में पराजित हो गया।  
अंग्रेज़ों का जुआ अपने पर लाद लेने पर बाजीराव द्वितीय को शीघ्र ही पछतावा होने लगा कि उसने एक बहुत भारी ग़लती की है। उसके द्वारा उस जुए को उतार फेंकने की कोशिश करने पर तीसरा मराठा युद्ध (1817-19 ई.) छिड़ गया। इस युद्ध में कई लड़ाईयों में पेशवा की निर्णायात्मक हार हुई और उसे गद्दी से उतार दिया गया और पेशवाई समाप्त कर दी गई, फिर भी बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर [[कानपुर]] के निकट [[बिठूर]] जाकर रहने की इजाज़त दे दी गई। 1853 ई. में बिठूर में ही उसकी मृत्यु हो गई। अंग्रेज़ों ने उसके गोद लिये हुए लड़के [[नाना साहब]] को पेंशन देने से इन्कार कर दिया। इसके फलस्वरूप उसने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भाग लिया और अंत में पराजित हो गया।  
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Revision as of 08:53, 16 January 2011

स्थापना

मूलरूप से शिवाजी के द्वारा नियुक्त अष्टप्रधानों में से एक। उसे मुख्य प्रधान भी कहते थे। उसका कार्य सामान्य रीति से प्रजाहित पर ध्यान रखना था।

पेशवा पद का महत्व

शाहू (1708-48 ई.) के राज्यकाल में बालाजी विश्वनाथ ने इस पद का महत्व बहुत अधिक बढ़ा दिया। वह 1713 ई. में पेशवा नियुक्त हुआ और 1720 ई. में मृत्यु होने तक इस पद पर बना रहा। उसने सेनापति तथा राजनीतिज्ञ, दोनों ही रूपों में जो सफलता प्राप्त कीं, उससे दूसरे प्रधानों की अपेक्षा पेशवा के पद की मर्यादा बहुत ही बढ़ गई। 1720 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा नियुक्त हुआ। तब से यह पद बालाजी का एक प्रकार से ख़ानदानी हक़ बन गया। बाजीराव प्रथम बीस साल (1720-40 ई.) तक पेशवा रहा और उसने निज़ाम पर विजय प्राप्त करके तथा उत्तरी भारत में विजय यात्राएँ करके पेशवा के पद का महत्व और भी बढ़ा दिया। उसकी उत्तरी भारत की विजय यात्राओं के फलस्वरूप मालवा, गुजरात तथा मध्य भारत में मराठा राज्यशक्ति स्थापित हो गई तथा मराठा संघ की शक्ति बहुत बढ़ गई। मराठा संघ में शिन्दे होल्कर, गायकवाड़ तथा भोंसले सम्मिलित थे।

1740 ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना। 1749 ई. में महाराज शाहू निस्संतान ही मर गया। इसके फलस्वरूप पेशवा का पद वंशगत होने के साथ ही मराठा राज्य में सर्वोच्च मान लिया गया। पेशवा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से हटाकर पूना ले गया और राज्य का वास्तविक इतिहास पेशवाओं के इतिहास से सम्पृक्त हो गया।

मराठा राज्य कि क्षति

  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें

बालाजी बाजीराव ने 1740 से 1763 ई. तक शासन किया और वह इतना शक्तिशाली हो गया कि मुग़ल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1754-59 ई.) और शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई.) अहमदशाह अब्दाली के हमले से अपनी रक्षा करने के लिए उस पर आश्रित रहे। बाजीराव के पिता ने हिन्दूपाद पादशाही की स्थापना अपना उद्देश्य बनाया था। परन्तु उसने पिता की इस नीति का त्याग कर मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर मराठा साम्राज्य की स्थापना करना अपना उद्देश्य बना लिया और हिन्दू तथा मुसलमान राज्यों को समान रूप से लूटना आरम्भ कर दिया। इससे फलस्वरूप महाराष्ट्र के बाहर के सभी प्रदेशों के लोगों की सहानुभूति वह खो बैठा। 1761 ई. में अब्दाली की सेना से उसकी ज़बर्दस्त हार का कारण यह भी एक था। इस लड़ाई में मराठों को भयंकर क्षति उठानी पड़ी और उसका परिणाम उनके लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध हुआ। इस लड़ाई के छ: महीने के बाद ही पेशवा बालाजी बाजीराव शोकाभिभूत होकर मर गया।

मराठा शक्ति का पतन

उसकी मृत्यु के बाद पेशवाओं का और उनके साथ-साथ मराठा राज्यशक्ति का पतन आरम्भ हो गया। उसका उत्तराधिकारी माधवराव प्रथम (1761-62 ई.) बहुत ही जल्दी मर गया। अगला पेशवा नारायण राव (1772-73 ई.) में अपने चाचा राधोवा के संकेत पर मार डाला गया। उसके बाद 1773 ई. में कुछ समय के लिए राधोवा पेशवा रहा, परन्तु उसे विवश होकर पेशवाई नारायणराव की मृत्यु के बाद जन्में उसके पुत्र माधवराव नारायण को सौंपनी पड़ी। माधवराव नारायण 1774 ई. से 1796 ई. तक पेशवा रहा। परन्तु राधोवा पेशवा कुल कलंक साबित हुआ। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उसने पेशवा को पहले अंग्रेज़-मराठा युद्ध में फँसा दिया, जो 1775- से 1782 ई. तक चलता रहा। इस युद्ध के फलस्वरूप मराठा संघ पर पेशवा का नियंत्रण और शिथल पड़ गया।

नाना फड़नवीस की मृत्यु

नाना फड़नवीस इस समय पेशवा का प्रधानामात्य था। उसकी नीतिकुशलता तथा योग्यता के कारण अगले 18 सालों तक दक्षिण में पेशवाओं की राज्यशक्ति अखण्डित रही, किन्तु उत्तर भारत में मराठा राज्यशक्ति स्थापित करने के सारे प्रयत्न त्याग दिये गये। 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ पेशवा को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह देने वाला कोई नहीं था।

बसई की संधि

1802 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने, जो 1796 ई. में पेशवा बना था, अपने मराठा सरदारों, विशेषरूप से होल्कर और महादजी शिन्दे के चंगुल से अपने को बचाने के लिए अंग्रेज़ों के साथ स्वेच्छा से बसई की सन्धि कर ली। उसने अंग्रेज़ों की आश्रित सेना रखना स्वीकार करके एक प्रकार से अपनी स्वतंत्रता बेच दी। उसके साथ क़ायरतापूर्ण आचरण पर मराठा सरदारों में भारी आक्रोश उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप दूसरा मराठा युद्ध (1803-05 ई.) आरम्भ हुआ, और मराठा राज्य शक्ति और मज़बूती से अंग्रेज़ों के फ़ौलादी पंजों में कस गई।

बाजीराव द्वितीय कि मृत्यु

अंग्रेज़ों का जुआ अपने पर लाद लेने पर बाजीराव द्वितीय को शीघ्र ही पछतावा होने लगा कि उसने एक बहुत भारी ग़लती की है। उसके द्वारा उस जुए को उतार फेंकने की कोशिश करने पर तीसरा मराठा युद्ध (1817-19 ई.) छिड़ गया। इस युद्ध में कई लड़ाईयों में पेशवा की निर्णायात्मक हार हुई और उसे गद्दी से उतार दिया गया और पेशवाई समाप्त कर दी गई, फिर भी बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर कानपुर के निकट बिठूर जाकर रहने की इजाज़त दे दी गई। 1853 ई. में बिठूर में ही उसकी मृत्यु हो गई। अंग्रेज़ों ने उसके गोद लिये हुए लड़के नाना साहब को पेंशन देने से इन्कार कर दिया। इसके फलस्वरूप उसने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भाग लिया और अंत में पराजित हो गया।


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