ऋषभदेव मन्दिर उदयपुर: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (ऋषभदेव उदयपुर का नाम बदलकर ऋषभदेव मन्दिर उदयपुर कर दिया गया है)
No edit summary
Line 21: Line 21:
{{राजस्थान के पर्यटन स्थल}}
{{राजस्थान के पर्यटन स्थल}}
[[Category:राजस्थान]]
[[Category:राजस्थान]]
[[Category:उदयपुर_के_पर्यटन_स्थल]]
[[Category:राजस्थान के पर्यटन स्थल]]
[[Category:पर्यटन_कोश]]
[[Category:पर्यटन_कोश]]
[[Category:जैन मन्दिर]]
[[Category:राजस्थान के धार्मिक स्थल]]
[[Category:धार्मिक स्थल कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 09:17, 11 July 2011

उदयपुर से लगभग 40 किमी. दूर गाँव 'धूलेव' में स्थित भगवान ऋषभदेव का मन्दिर 'केसरियाजी' या 'केसरियानाथ' के नाम से भी जाना जाता है। यह प्राचीन तीर्थ अरावली पर्वतमाला की कंदराओं के मध्य कोयल नदी के किनारे पर स्थित है। ऋषभदेव मन्दिर को जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ माना जाता है। यह मंदिर न केवल जैन धर्मावलंबियों अपितु वैष्णव हिन्दू लोगों तथा मीणा और भील आदिवासियों एवं अन्य जातियों द्वारा भी पूजा जाता है। भगवान ऋषभदेव को तीर्थयात्रियों द्वारा अत्यधिक मात्रा में केसर चढ़ाए जाने के कारण 'केसरियाजी' कहा जाता है। यहाँ प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान 'आदिनाथ' या 'ऋषभदेव' की काले रंग की प्रतिमा स्थापित है। यहाँ के आदिवासियों के लिए ये केसरियाजी कालिया बाबा के नाम से प्रसिद्ध व पूजित हैं।

निर्माण शैली

मंदिर का प्रथम द्वार नक्कारखाने के रूप में है। बाहरी परिक्रमा का चौक नक्कारखाने से प्रवेश करते ही आता है। दूसरा द्वार भी वहीं पर है। काले पत्थर का एक-एक हाथी दोनों द्वारों की ओर खड़े हुए हैं। हाथी के पास एक हवनकुंड उत्तर की तरफ़ बना है, जहाँ नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है। उक्त द्वार के दोनों ओर के ताखों में से एक में ब्रह्मा की तथा दूसरे में शिव की मूर्ति है। सीढ़ियों के द्वारा इस मंदिर में जाने की व्यवस्था है। सीढ़ियों के ऊपर के मंडप में मध्यम क़द के हाथी पर बैठी हुई मरुदेवी की मूर्ति है। श्रीमद्भागवदगीता का चबूतरा सीढ़ियों से आगे बांयी तरफ़ बना है, जहाँ भागवत की कथा चौमासे में होती है। मंडप में 9 स्तम्भों के होने के कारण यह नौ-चौकी के रूप में जाना जाता है। यहाँ से तीसरे द्वार में प्रवेश किया जाता है।

शिलालेख प्रमाण

मन्दिर के उक्त द्वार के बाहर उत्तर के ताख में शिव तथा दक्षिण के ताख में सरस्वती की मूर्ति स्थापित है। वहाँ पर खुदे अभिलेख इसे विक्रम संवत 1676 में बना बताते हैं। तीसरा द्वार 'खेला मंडप' (अंतराल) में पहुँचता है, जिसके आगे 'निजमंदिर' (गर्भगृह) बना है। इसी में ऋषभदेव की काले पत्थर की बनी प्रतिमा विराजमान है। गर्भगृह के ऊपर विशाल शिखर बना है, जहाँ ध्वजादंड भी लगा है। खेला मंडप, नौ-चौकी तथा मरुदेवी वाले मंडप की छत गुंबदाकार बनी है। मंदिर के उत्तरी, दक्षिणी तथा पश्चिमी पार्श्व में देव-कुलिकाओं की पंक्तियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक के मध्य में मंडप सहित एक-एक मंदिर बना है। इन तीनों मंदिरों को वहाँ के पुजारी लोग 'नेमिनाथ का मंदिर' कहते हैं। लेकिन शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि इनमें से एक ऋषभदेव का ही मंदिर है।

विभिन्न मूर्तियाँ

ऋषभदेव की प्रतिमा के गिर्द इन्द्र आदि देवता बने हैं। इनकी मूर्ति के चरणों में, नीचे छोटी-छोटी नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें 'नवग्रह' या 'नवनाथ' के रूप में जाना जाता है। नवग्रहों के नीचे सोलह स्वप्न खुदे हैं। इसके नीचे हाथी, सिंह, देवी आदि की मूतियाँ हैं। सबसे नीचे दो बैलों के बीच देवी की मूर्ति बनी है। पश्चिम की देवकुलिकाओं में से एक में ठोस पत्थर के बने एक मंदिर-सी रचना है, जिस पर तीर्थंकरों की बहुत-सी छोटी-छोटी मूतियाँ खुदी हैं। इसे लोग गिरनारजी के बिंब के रूप में जानते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल मिलाकर तीर्थंकरों की 22 तथा देवकुलिकाओं की 54 मूतियाँ विराजमान हैं। इन कुल 76 मूतियों में 62 में लेख उपलब्ध है, जो बताते हैं कि, ये मूर्तियाँ विक्रम संवत 1611 से विक्रम संवत 1863 के बीच बनाई गई हैं। ये लेख जैनों के इतिहास की जानकारी की दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं।

मान्यता

तीर्थंकर ऋषभदेव की गर्भवती माता ने जो स्वप्न देखे, वे जैन धर्म में बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। दिगंबर सोलह स्वप्न मानते हैं, वहीं श्वेतांबरों में चौदह स्वप्नों की मान्यता हैं। भारत पर मुसलमानों के अधिकार के बाद मुसलमान लोग मंदिरों को नष्ट कर देते थे। अतः ऐसी मान्यता है की उस समय बने हुए अनेक बड़े मंदिरो में जान-बूझकर इस्लाम धर्म का कोई पवित्र चिंह बना दिया जाता था, जिससे मुसलमान आक्रमणकारी उसे तोड़ नहीं पायें। पाषाण का एक छोटा-सा स्तम्भ नौ-चौकी के मंडप के दक्षिणी किनारे पर खड़ा है, जिसके ऊपर-नीचे तथा चारों ओर छोटी-छोटी10 ताखें खुदी हैं। मुसलमान लोग इस स्तम्भ को मस्जिद का चिंह मानकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।

प्रमुख तथ्य

ऋषभदेव के मंदिर में विष्णु के जन्माष्टमी, जलझूलनी आदि उत्सव मनाये जाते हैं। श्रीमद्भागवत की कथा चौमासे में होती है। पहले तो अन्य विष्णु-मंदिरों के समान यहाँ भोग भी लगता था। 'रसोड़ा' भोग तैयार होने के स्थान को कहते थे। महाराणा के इस मंदिर में प्रवेश से एक दिलचस्प बात जुड़ी है। वे इस मंदिर में द्वितीय द्वार से प्रवेश नहीं करते थे, बल्कि बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुए छोटे द्वार से प्रवेश करते थे। दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर और एक सिरवाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग 'छत्रभंग' कहते हैं। इसके नीचे से प्रवेश करना महाराणा के लिए उचित नहीं माना जाता था।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख