कुमारी पूजन: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
(''''कुमारी पूजन''' शक्ति साधना का एक अनिवार्य अंग है। इस ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
Line 36: Line 36:
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{हिन्दू कर्मकाण्ड}}
{{हिन्दू कर्मकाण्ड}}
[[Category:हिन्दू कर्मकाण्ड]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:संस्कृति कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
[[Category:हिन्दू कर्मकाण्ड]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:संस्कृति कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 12:14, 21 March 2014

कुमारी पूजन शक्ति साधना का एक अनिवार्य अंग है। इस अनुष्ठान में कुमारियों का षोडशोपचार पूजन शक्ति के रूप में किया जाता है। कुमारी के स्वरुप के विषय में शाक्त तांत्रिक स्मृतिकारों से भिन्न मत रखते हैं। स्मृति के अनुसार अष्ट वर्षीया बालिका को 'गौरी', दस वर्षीया को 'कन्यका' तथा द्वादश वर्षीया को 'कुमारी' कहा जाता है।

मुख्य लक्षण

तांत्रिकों के मत में कुमारी का मुख्य लक्षण 'अजात पुष्पत्व' (रजस्वला न होना) है और इसलिए 'अजातपुष्पा' बालिका षोडश वर्ष के वयतक कुमारी ही मानी जाती है। वयोभेद से कुमारी का नामभेद होता है। एक वर्षीया कुमारी को 'स्ध्या' कहते हैं, द्विवर्षया को 'सरस्वती', त्रिवर्षीया को 'त्रिधामूर्ति', चतुर्वर्षीया को 'कालिका', पंचवर्षीय को 'सुभागा' और इसी प्रकार वय में एक-एक वर्ष की वृद्धि होने पर क्रमश: उसे 'उमा', 'मालिनी', 'कुब्जिका', 'कानसंकर्षा', 'अपराजिता', 'रूद्राणी', 'भैरवी', 'महालक्ष्मी', 'पीठनायिका', 'क्षेत्रज्ञा' तथा 'षोडशवर्षी' को बन्नदा कहते हैं। तंत्र का प्रमाणिक वचन है- "एवं क्रमेण संपूज्या यावत पुष्पं न जायते।"[1]

  • कुमारी पूजन में जाति भेद का विचार नहीं किया जाता। किसी भी जाति की कुमारी पूजन के लिए ग्रहण की जा सकती है-

तस्मात्‌ पूजयेद्बाला सर्वजातिसमुभ्‌दवाम्‌ ।
जातिभेदो न कर्त्तव्य: कुमारीपूजने शिवे ।।[2]

पूजन

कुमारी पूजन से पहले षडंगन्यास करने का विधान है, जैसा तांत्रिक पूजन में नियमत: किया जाता है। प्रथमत: परिकर देवता का पूजन नितांत आवश्यक होता है। अभीष्ट परिकर देवता के नाम ये हैं-

  1. सूर्य
  2. चंद्रमा
  3. दश दिक्‌पाल
  4. वीरभद्रा
  5. कौलिनी
  6. अष्टादशभुजा
  7. काली तथा चंड
  8. दुर्गा

इस पूजा के अनंतर कुमारी का विधिवत पूजन सोलहों उपचारों से करना चाहिए। साधक का कर्तव्य है कि वह कुमारी में सामान्य मानवी की कल्पना न कर उसे देवी की प्रतिमूर्ति माने और कुमारी में देवी की पूर्ण आंतरिक भावना रखे।[1] अंत में उसे कुल द्रव्य अर्थात मध्य शराब तथा पंचतत्व का समर्पण साधक को भक्तिपूर्वक हृदय से करना पड़ता हैं और इस मंत्र से कुमारी को अंतिम नमस्कार भेंट किया जाता है-

नमामि कुलकामिनीं परमभाग्यसंदाय
कुमाररतिचातुरीं सरलसिद्विमानंदनीम्‌ ।
प्रवालगुटिकास्रजं रजतरागवस्त्रन्विता
हिरण्यसमभूषणां भुवनवाक्‌कुमारीं भजें ।।

पवित्र तिथियाँ

पूजा के लिए पवित्र तिथियाँ हैं- अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा संक्रांति। पूजा की सामग्री में वस्त्र, अलंकरण, भोज्य, भोक्ष्य, पंचतत्व तथा कुल द्रव्य की गणना है। अन्नदाकल्प का कथन है कि कुमारी में देवी बुद्धि से पूजन करने पर ही साधक का परम मंगल होता है, अन्यथा नहीं। इस पूजन का प्रचार महाचीन (तिब्बत) से आरंभ हुआ। अन्नदाकल्प का यह वचन प्रमाण रूप में उद्धृत किया जा सकता है-

अथान्यत्‌ साधनं वक्ष्ये महाचीनक्रमोद्भवम्‌
येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्रं देवी प्रसीदति ।। [3]

कुमारी के चुनाव में वर्णावस्था का शैथिल्य भी इस पूजन के ऊपर भारतेत्तर प्रभाव का सूचक माना जा सकता है।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 कुमारी पूजन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2014।
  2. तंत्रसार
  3. शब्दकल्पद्रुम, पृ. 146

संबंधित लेख