कठपुतली: Difference between revisions

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कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार [[वर्ष]] पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फ़िर कठपुतलियाँ।<ref name="नॉल" />
कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार [[वर्ष]] पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फिर कठपुतलियाँ।<ref name="नॉल" />


==भारतीय संस्कृति==
==भारतीय संस्कृति==

Revision as of 14:04, 1 August 2017

कठपुतली
विवरण 'कठपुतली' का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है।
इतिहास ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में 'नटसूत्र' में 'पुतला नाटक' का उल्लेख मिलता है।
विशेष भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं।
संबंधित लेख विश्व कठपुतली दिवस
अन्य जानकारी कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी[1] की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।

कठपुतली का खेल अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है, जो समस्त सभ्य संसार में प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों (पुत्तलिकाओं) द्वारा खेला जाता है। गुड़ियों के नर मादा रूपों द्वारा जीवन के अनेक प्रसंगों की, विभिन्न विधियों से, इसमें अभिव्यक्ति की जाती है और जीवन को नाटकीय विधि से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतलियाँ या तो लकड़ी की होती हैं या पेरिस-प्लास्टर की या काग़ज़ की लुग्दी[2] की। उसके शरीर के भाग इस प्रकार जोड़े जाते हैं कि उनसे बँधी डोर खींचने पर वे अलग-अलग हिल सकें।

इतिहास

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में 'नटसूत्र' में 'पुतला नाटक' का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की 'बत्तीस पुतलियों' का उल्लेख है। सतवर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिकाजापान आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।[3] [[चित्र:Kathputli-Jaisalmer-1.jpg|thumb|300px|left|जैसलमेर के बाज़ार में कठपुतलियाँ]] भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरीं-फ़रहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्धक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं।[3]

कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फिर कठपुतलियाँ।[4]

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी हैं, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।[3] thumb|300px|कठपुतलियाँ कठपुतली नाच की हर क़िस्म में पार्श्व से उस इलाके का संगीत बजता है, जहाँ का वह नाच होता है। कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और संवाद बोलता है। ज़ाहिर है, इन्हें न केवल हस्तकौशल दिखाना पड़ता है, बल्कि अच्छा गायक व संवाद अदाकार भी बनना पड़ता है।

भारत में कठपुतली

भारत में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियाँ काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इनके विषय भी ऐतिहासिक प्रेम प्रसंगों व जनश्रुतियों के लिए जाने जाते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की चित्रकला, वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहाँ से वे आती हैं।

रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है।[3]

राजस्थान की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध हैं। यहाँ धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती हैं। लकड़ी और कपड़े से बनीं और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा इतिहास के प्रेम प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिय है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएँ हैं। इसके साथ एक सीटी-जिसे बोली कहते हैं- जिससे तेज धुन बजाई जाती है, प्रयोग की जाती है।

कठपुतली की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें कई कलाओं का सम्मिश्रण है। इसमें लेखन कला, नाट्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र निर्माण कला, रूप सज्जा, संगीत, नृत्य जैसी कई कलाओं का इस्तेमाल होता है। इसीलिये सम्भवतः बेजान होने के बाद भी ये कठपुतलियाँ जिस समय अपनी पूरी साज सज्जा के साथ मंच पर उपस्थित होती हैं तो दर्शक पूरी तरह उनके साथ बंध जाता है।[4]

कठपुतलियों के रूप

उत्तर प्रदेश में सबसे पहले कठपुतलियों के माध्यम का इस्तेमाल शुरू हुआ था। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीन काल के राजा महाराजाओं की कथाओं, धार्मिक, पौराणिक आख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिये किया जाता था। उत्तर प्रदेश से धीरे-धीरे इस कला का प्रसार दक्षिण भारत के साथ ही देश के अन्य भागों में भी हुआ।[4] thumb|300px|left|कठपुतलियाँ उड़ीसा का 'साखी कुंदेई', आसाम का 'पुतला नाच', महाराष्ट्र का 'मालासूत्री बहुली' और कर्नाटक की 'गोम्बेयेट्टा' धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियों के रूप हैं। तमिलनाडु की 'बोम्मलट्टम' काफ़ी कौशल वाली कला है, जिसमें बड़ी-बड़ी कठपुतलियाँ धागों और डंडों की सहायता से नचाई जाती हैं। यही कला आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी पाई जाती है।

जानवरों की खाल से बनी, ख़ूबसूरती से रंगी गई और सजावटी तौर पर छिद्रित छाया कठपुतलियाँ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और केरल में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उनमें कई जोड़ होते हैं, जिनकी सहायता से उन्हें नचाया जाता है। केरल के 'तोलपवकूथु' और आंध्र प्रदेश के 'थोलु बोमलता' में मुख्यतः पौरणिक कथाएँ ही दर्शायी जाती हैं, जबकि कर्नाटक के 'तोगलु गोम्बे अट्टा' में धर्मेतर विषय एवं चरित्र भी शमिल किए जाते हैं।

दस्ताने वाली कठपुतलियाँ नचाने वाला दर्शकों के सामने बैठकर ही उन्हें नचाता है। इस क़िस्म की कठपुतली का नृत्य केरल का 'पावकथकलि' है। उड़ीसा का 'कुंधेइनाच' भी ऐसा ही है।

पश्चिम बंगाल का 'पतुल नाच' डंडे की सहायता से नचाई जाने वाली कठपुतली का नाच है। एक बड़ी-सी कठपुतली नचाने वाले की कमर से बंधे खंभे से बांधी जाती है और वह पर्दे के पीछे रहकर डंडों की सहायता से उसे नचाता है। उड़ीसा के 'कथिकुंधेई' नाच में कठपुतलियाँ छोटी होती हैं और नचाने वाला धागे और डंडे की सहायता से उन्हें नचाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पेपर मैशे
  2. पेपर मैशे
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 ख़ान, फ़िरदौस। लुप्त होती कठपुतली कला (हिन्दी) प्रवक्ता.कॉम। अभिगमन तिथि: 2 अप्रॅल, 2011
  4. 4.0 4.1 4.2 कुमार, हेमन्त। नाच री कठपुतली (हिन्दी) नॉल। अभिगमन तिथि: 2 अप्रॅल, 2011

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