समावर्तन संस्कार: Difference between revisions

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अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।
अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।
==कथा==
==कथा==
इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार [[देवता]], मनुष्य और असुर तीनों ही [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते है, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए।
इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार [[देवता]], मनुष्य और असुर तीनों ही [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए।
फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। [[प्रजापति]] इस जवाब से संतुष्ट हुए।
फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। [[प्रजापति]] इस जवाब से संतुष्ट हुए।
असुरों को भी [[ब्रह्मा]] ने उपदेश में [[अक्षर]] ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए।
असुरों को भी [[ब्रह्मा]] ने उपदेश में [[अक्षर]] ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए।

Revision as of 08:59, 20 February 2011

ब्रह्मचर्यव्रत के समापन व विद्यार्थीजीवन के अंत के सूचक के रुप में समावर्तन (उपदेश)-संस्कार किया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु-शिष्य को इंद्रिय निग्रहदान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है -

युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।[1]

अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊंचे पद पर बैठाते हैं।
25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्यपूर्वज गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता थ, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीकस्वरुप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है, किंतु उसका रुप व उद्देश्य बदल गया है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्धारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे। उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक....। अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो।[1] अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

कथा

इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनान उन्नति का मार्ग होगा।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 समावर्तन (उपदेश)-संस्कार (हिन्दी) (ए.एस.पी) पूजा विधि। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2011।

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