ग्राउस: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - " सन " to " सन् ") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "{{लेख प्रगति|आधार=आधार1 |प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}" to "{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=�) |
||
Line 9: | Line 9: | ||
{{प्रचार}} | {{प्रचार}} | ||
{{लेख प्रगति|आधार= | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
Latest revision as of 13:29, 26 July 2012
[[चित्र:Growse-1.jpg|thumb|एफ़. एस. ग्राउस
F. S. Growse
1871-1877, ज़िलाधीश मथुरा]]
- ग्राउस का पूरा नाम फ़ेड्रिक सॉलमन ग्राउस (एफ़. एस. ग्राउस) है। ये पराधीन भारत में एक अंग्रेज़ सिविल अधिकारी थे।
- ये मथुरा के ज़िलाधिकारी थे, और मथुरा के ज़िलाधीश के रूप में इनका कार्यकाल सन् 1871 से 1877 ई. तक रहा।
- ग्राउस का मथुरा विषयक ग्रन्थ मथुरा-ए-डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर प्रथम बार सन् 1874 ई. में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ में तत्कालीन मथुरा मंडल का बहुआयामी और बहुउद्देशीय वर्णन मिलता है।
- उन्होंने रामचरितमानस का अंग्रेज़ी में बहुत सुन्दर अनुवाद किया था। वे फ़ारसी-अरबी मिश्रित उर्दू के प्रबल विरोधी तथा देसी शब्दों से भरपूर हिन्दी के समर्थक थे।
- ग्राउस से पूर्व तुलसीदास का 'रामचरितमानस' अंग्रेज़ों की पहुंच से प्राय: बाहर ही रहा था। उन्होंने इसका इतना मनोहारी अनुवाद प्रस्तुत किया कि उसका मूलरस, कथा-प्रवाह और काव्य-सौंदर्य अविस्मरणीय रहा।
ग्राउस का भारत-प्रेम
ग्राउस साहब की भारतीय संस्कृति, पुरातत्त्व और साहित्य में गहन रुचि थी। जहाँ कहीं भी आप राजकीय सेवा में रहे, आपका यह भारत-प्रेम वहाँ के प्रशासनिक कार्यो के बीच देखा जा सकता है। ग्राउस की राजकीय सेवा का अधिकांश समय तत्कालीन आगरा प्रांत के मथुरा, मैनपुरी, और फतेहगढ़ में बीता। सन् 1878 ई. में से 1879 के बीच एशियाटिक सोसायटी के जनरल और 'इण्डियन ऐंटिक्वरी' में इनके मथुरा पर लिखे लेखों का प्रकाशन हुआ। ग्राउस साहब भारत को अंग्रेज़ शासकों जैसी नज़र से कभी नहीं देखते थे। वे इस देश की भाषा, कला, संस्कृति आदि के प्रति पूर्णत: समर्पित व्यक्तित्व थे। भाषा के संबंध में भी बड़ी स्पष्ट और सुलझी हुई दृष्टि उनके पास थी। ग्राउस ने सन् 1872 में निकटस्थ पालिखेड़ा नामक स्थान से यहाँ की महत्त्वपूर्ण प्रतिमा आसवपायी कुबेर को प्राप्त किया था । सन् 1888 से 91 तक डाक्टर फ्यूहरर ने लगातार कंकाली टीले की खुदाई कराई। पहले ही वर्ष में 737 से अधिक मूर्तियां मिलीं जो लखनऊ के राज्य संग्रहालय में भेज दी गयीं । सन् 1836 के बाद सन् 1909 तक फिर मथुरा की मूर्तियों को एकत्रित करने का कोई उल्लेखीनय प्रयास नहीं हुआ।
|
|
|
|
|