प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध': Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (श्रेणी:खंड काव्य; Adding category Category:खण्ड काव्य (को हटा दिया गया हैं।))
No edit summary
Line 48: Line 48:


__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Revision as of 10:11, 5 April 2013

प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
कुल सर्ग सत्रह (17)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
प्रियप्रवास प्रथम सर्ग
प्रियप्रवास द्वितीय सर्ग
प्रियप्रवास तृतीय सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्थ सर्ग
प्रियप्रवास पंचम सर्ग
प्रियप्रवास षष्ठ सर्ग
प्रियप्रवास सप्तम सर्ग
प्रियप्रवास अष्टम सर्ग
प्रियप्रवास नवम सर्ग
प्रियप्रवास दशम सर्ग
प्रियप्रवास एकादश सर्ग
प्रियप्रवास द्वादश सर्ग
प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग
प्रियप्रवास पंचदश सर्ग
प्रियप्रवास षोडश सर्ग
प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग

प्रियप्रवास अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध" की हिन्दी काव्य रचना है। हरिऔध जी को काव्यप्रतिष्ठा "प्रियप्रवास" से मिली। इसका रचनाकाल सन् 1909 से सन् 1913 है। "प्रियप्रवास" विरहकाव्य है। कृष्णकाव्य की परंपरा में होते हुए भी, उससे भिन्न है। "हरिऔध" जी ने कहा है - मैंने श्री कृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं। कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें। महापुरुष के रूप में अंकित होते हुए भी "प्रियप्रवास" के कृष्ण में वही अलौकिक स्फूर्ति है जो अवतारी ब्रह्मपुरुष में। कवि ने कृष्ण का चरित्रचित्रण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किया है, उनके व्यक्तित्व में सहानुभूति, व्युत्पन्नमतित्व और कर्मकौशल है।

श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण

कृष्ण के चरित्र की तरह "प्रियप्रवास" की राधा के चरित्र में भी नवीनता है। उसमें विरह की विकलता नहीं है, व्यथा की गंभीरता है। उसने कृष्ण के कर्मयोग को हृदयंगम कर लिया है। कृष्ण के प्रति उसका प्रेम विश्वात्म और उसकी वेदना लोकसेवा बन गई है। प्रेमिका देवी हो गई है, वह कहती हैं :

आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की, विश्व के काम आऊँ
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे।

"प्रियप्रवास" में यद्यपि कृष्ण महापुरुष के रूप में अंकित हैं, तथापि इसमें उनका यह रूप आनुषंगिक है। वे विशेषत: पारिवारिक और सामाजिक स्वजन हैं। जैसा पुस्तक के नाम से स्पष्ट है, मुख्य प्रसंग है - "प्रियप्रवास", परिवार और समाज के प्रिय कृष्ण का वियोग। अन्य प्रसंग अवांतर हैं। यद्यपि वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का प्राधान्य है और भाव में लालित्य है, तथापि यथास्थान ओज का भी समावेश है। समग्रत: इस महाकाव्य में वर्णनबाहुल्य और वाक्वैदग्ध्य का आधिक्य है। जहाँ कहीं संवेदना तथा हार्दिक उद्गीर्णता है, वहाँ रागात्मकता एवं मार्मिकता है। विविध ऋतुओं, विविध दृश्यों विविध चित्तवृत्तियों और अनुभूतियों के शब्दचित्र यत्रतत्र बड़े सजीव हैं।

भूमिका

मैं बहुत दिनों से हिन्दी भाषा में एक काव्य-ग्रन्थ लिखने के लिए लालायित था। आप कहेंगे कि जिस भाषा में 'रामचरित-मानस', 'सूरसागर', 'रामचन्द्रिका', 'पृथ्वीराज रासो', 'पद्मावत' इत्यादि जैसे बड़े अनूठे काव्य प्रस्तुत हैं, उसमें तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिए समुत्सुक होना वातुलता नहीं तो क्या है? यह सत्य है, किन्तु मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है; बने या न बने, सेवा-प्रणाली सुखद और हृदय-ग्राहिणी हो या न हो, परन्तु एक लालायित-चित्त अपनी प्रबल लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे? जिसके कान्त-पादांबुजों को निखिल-शास्त्र-पारंगत पूज्यपाद महात्मा तुलसीदास, कवि-शिरोरत्न महात्मा सूरदास, जैसे महाजनों ने परम सुगंधित अथच उत्फुल्ल पाटल प्रसून अर्पण कर अर्चना की है। कविकुल-मण्डली-मण्डन केशव, देव, बिहारी, पद्माकर इत्यादि सहृदयों ने अपनी विकच-मल्लिका चढ़ा कर भक्ति-गद्गद-चित्त से आराधना की है, क्या उसकी मैं एक नितान्त साधरण पुष्प द्वारा पूजा नहीं कर सकता? यदि 'स्वान्त: सुखाय' मैं ऐसा कर सकता हूँ तो अपनी टूटी-फूटी भाषा में एक हिन्दी काव्य-ग्रन्थ भी लिख सकता हूँ; निदान इसी विचार के वशीभूत होकर मैंने 'प्रियप्रवास' नामक इस काव्य की रचना की है।

काव्य-भाषा

यह काव्य खड़ी बोली में लिखा गया है। खड़ी बोली में छोटे-छोटे कई काव्य-ग्रन्थ अब तक लिपिबध्द हुए हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश सौ-दो सौ पद्यों में ही समाप्त हैं, जो कुछ बड़े हैं वे अनुवादित हैं मौलिक नहीं। सहृदय कवि बाबू मैथिलीशरण गुप्त का 'जयद्रथ वध' निस्सन्देह मौलिक ग्रन्थ है, परन्तु यह खण्ड-काव्य है। इसके अतिरिक्त ये समस्त ग्रन्थ अन्त्यानुप्रास विभूषित हैं, इसलिए खड़ी बोलचाल में मुझको एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो; और ऐसी कविता में लिखा गया हो जिसे भिन्नतुकान्त कहते हैं। अतएव मैं इस न्यूनता की पूर्ति के लिए कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ और अनवरत परिश्रम करके इस 'प्रियप्रवास' नामक ग्रन्थ की रचना की; जो कि आज आप लोगों के कर-कमलों में सादर समर्पित है। मैंने पहले इस ग्रन्थ का नाम 'ब्रजांगना-विलाप' रखा था, किन्तु कई कारणों से मुझको यह नाम बदलना पड़ा, जो इस ग्रन्थ के समग्र पढ़ जाने पर आप लोगों को स्वयं अवगत होंगे। मुझमें महाकाव्यकार होने की योग्यता नहीं, मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिए उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने में कृतकार्य्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूँ कि 'प्रियप्रवास' के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई। हाँ, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूँगा कि महाकाव्य का आभास-स्वरूप यह ग्रन्थ सत्रह सर्गों में केवल इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इसको देखकर हिन्दी-साहित्य के लब्धाप्रतिष्ठ सुकवियों और सुलेखकों का ध्यान इस त्रुटि के निवारण करने की ओर आकर्षित हो। जब तक किसी बहुज्ञ मर्म्मस्पर्शिनी-सुलेखनी द्वारा लिपिबध्द होकर खड़ी बोली में सर्वांग सुन्दर कोई महाकाव्य आप लोगों को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों के ज्योति-विकीर्णकारी उज्ज्वल चक्षुओं के सम्मुख है, और एक सहृदय कवि के कण्ठ से कण्ठ मिलाकर यह प्रार्थना करता है, 'जबलौं फुलै न केतकी; तबलौं बिलम करील।'

भाषा-शैली

'प्रियप्रवास' की भाषा संस्कृत-गर्भित है। उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है। अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में 'प्रियप्रवास' लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता। कोई भाषा-मर्मज्ञ सोचेंगे इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ठूँसकर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य है। उक्त वक्तृता में भट्ट जी एक स्थान पर कहते हैं। दूसरी बात जो मैं आजकल खड़ी बोली के कवियों में देख रहा हूँ, वह समासबद्ध, क्लिष्ट संस्कृत-शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पद्धति के प्रतिकूल है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख