हरिदेव जी मन्दिर गोवर्धन: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "{{गोवर्धन के स्थान और मन्दिर}}" to "{{ब्रज के दर्शनीय स्थल}}")
Line 15: Line 15:
[[वृन्दावन]] के गोविन्द देव मन्दिर की तर्ज पर यहाँ कोई प्रतिमा नहीं है जिससे अधिकांश हिन्दू धर्मस्थलों की तरह इसकी कलात्मक प्रतीति में अपकर्शण उत्पन्न हो गया। जबकि इसमे मौलिक रूप से मूर्तिपूजा के लिए प्राण प्रतिष्ठित किया गया था। इसमें पवित्रतम विश्वास की जन आनुशणनिक कार्यों के लिए स्थापत्य के सभी अर्थ समाहित थे। यदि इसे राष्ट्रीय स्मारक के रूप में से रक्षित किया गया होता तो भविष्य के किसी स्वर्णिम काल में [[गोवर्धन]] का वही स्थान होता जैसा कि प्राचीन रोम का है।
[[वृन्दावन]] के गोविन्द देव मन्दिर की तर्ज पर यहाँ कोई प्रतिमा नहीं है जिससे अधिकांश हिन्दू धर्मस्थलों की तरह इसकी कलात्मक प्रतीति में अपकर्शण उत्पन्न हो गया। जबकि इसमे मौलिक रूप से मूर्तिपूजा के लिए प्राण प्रतिष्ठित किया गया था। इसमें पवित्रतम विश्वास की जन आनुशणनिक कार्यों के लिए स्थापत्य के सभी अर्थ समाहित थे। यदि इसे राष्ट्रीय स्मारक के रूप में से रक्षित किया गया होता तो भविष्य के किसी स्वर्णिम काल में [[गोवर्धन]] का वही स्थान होता जैसा कि प्राचीन रोम का है।
==अन्य लिंक==  
==अन्य लिंक==  
{{गोवर्धन के स्थान और मन्दिर}}
{{ब्रज के दर्शनीय स्थल}}
[[Category:ब्रज]]
[[Category:ब्रज]]
[[Category:ब्रज के धार्मिक स्थल]]
[[Category:ब्रज के धार्मिक स्थल]]

Revision as of 10:07, 16 June 2010

[[चित्र:Haridev-Temple-Back.jpg|हरिदेव जी मंदिर, गोवर्धन
Haridev Ji Temple, Govardhan|thumb|250px]]

  • मानसी गंगा के निकटस्थ इस मन्दिर का निर्माण अम्बर (आमेर) नरेश राजा भगवान दास ने कराया था।
  • 68 फीट लम्बे और 20 फीट चौड़े भूविन्यास के आयता कार मन्दिर का गर्भगृह इसी माप के अनुसार बनाया गया। जिसके चारों ओर खुले मध्य भाग में तीन मेहराब बने हुए हैं। जब कि द्वार के निकट चौथे प्रस्तरवाद हिन्दू शैली की तकनीक के सहारे टिका हुआ है। इसके ऊपरी हिस्से में रौशनदान बने हैं जिस की छज्जे से ऊँचाई लगभग 30 फ़ीट है। जो कि निश्चित दूरी के अन्तर हाथियों और जलव्याघ्र के उभरे सिरों के अलंकृत है।
  • इसके ऊपरी हिस्से में पत्थर की पूरी दोहरी छत थी। जो ऊँची उठी बाहरी और भीतरी मेहराबदार थी। मध्य भाग समतल किन्तु किनारे से यह इतना गहरी मेहराब दार और थी कि इमारत की चौड़ाई कम होते हुए भी मेहराबदार छत का आभास देती है।
  • ऐसी ही चमकती मेहराबदार छत भगवानदास के पुत्र मानसिंह द्वारा वृन्दावन में बनवाये गये गोविन्द देव जी मन्दिर में भी दिखाई पड़ती है।
  • भूविन्साय के मध्यभाग एवं गर्भगृह पर बने दो शिखरों के छत के बराबर समतल किये जाने के बावजूद भी महाकाय निर्माण का बहिर्भाग भव्य व प्रभावशाली है।
  • इसके निर्माण में भरतपुर खदानों की नींव में आसपास के पत्थरों का उपयोग किया गया। इनसे कई फीट गहरी भर्त की गई। भवन के आधार में मिट्टी भर दी गई ऊँचाई से भवन का स्थायित्व और प्रतीति बढ़ गई।
  • मंदिर के संस्थापक के पिता बिहारीमल पहले राजपूत थे जिन्होंने मुग़ल दरबार से सम्बन्ध स्थापित किये। वे अम्बर के कछवाहा ठाकुरों की राजावत शाखा के मुखिया थे। उनके मुताबिक़ वे इस शाखा के संस्थापक की 18वीं पीढ़ी के वंशज थे। परवर्ती काल में 1728 ई. में राजधानी जयपुर स्थानान्तरित हो गई।

[[चित्र:Haridev-Temple-Front.jpg|हरिदेव जी मंदिर, गोवर्धन
Haridev Ji Temple, Govardhan|thumb|200px|left]] वर्तमान में महाराजा 34वीं पीढ़ी के वंशज बताये जाते हैं। सरनाल के युद्ध में भगवान दास ने सौभाग्य वश अकबर के जीवन की रक्षा की। तदनन्तर उन्हें पंजाब का गर्वनर नियुक्त किया गया। वहीं 1520 में लाहौर में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पुत्री का विवाह सलीम से हुआ जो अन्तोगत्वा जहाँगीर के खिताब धारण कर बादशाह बना।
मंदिर को भगोसा और लोधीपुरी गाँवों से 2,300 रुपये की वार्षिक आय प्राप्त होती थी। इनमें से बाद के गाँव का अनुदान भरतपुर नरेश द्वारा 500 रुपये मासिक दान के बदले में किया गया। मंदिर के वंशानुगत गोसांई लम्बे समय मन्दिर की बनावट और धार्मिक सेवाओं की उपेक्षा करते हुए पूरी आय का उपभोग करते रहे। इस अदूरदर्शी लालच के चलते उत्तरी भारत के प्रसिद्ध तीर्थ मंदिर की वार्शिक आय सिमटकर 50 रुपये रह गयी। इतना ही नहीं बल्कि 1872 ई. में मध्य भाग की मज़बूत छत जर्जर होने लगी।
इसके जीर्णोद्धार की ग्राउस द्वारा सिविल कोर्ट से अनुदान स्वीकृत कराने का प्रयास किया गया। साथ ही मन्दिर की प्राप्ति जो कुछ महीनों में साझेदारों के झगड़ों के कारण ज़िला कोशागार में जमा होने लगी थी, जुड़कर 3,000 रुपये हो गई। प्रस्ताव को सहायता प्रदान करने में स्थानीय शासन ने कोई अनिच्छा नहीं जताई और एक अभियन्ता जीर्णोद्धार कार्य की सम्भावित लागत जाँचने के लिए प्रतिनियुक्त किया गया। किन्तु आयुक्त कार्यालय से पत्राचार करने में दुर्भाग्यवश देर हो गई और इसी बची एक हिस्से को छोड़कर पूरी छत गिर गई। हालाँकि यह जीर्णोद्वार के क्षेत्र में एक प्रतिमान बन सकता था। इसके लिए 8,767 रुपये का अनुमानित ख़र्च निर्धारित कर लिया गया था।
इसके साथ ही चूँकि कार्य की शुरूआत के लिए अच्छी बचत भी थी। यदि कार्य बिना देरी किये तत्काल शुरू हो जाता तो दो या तीन वर्षों में बगैर किसी अड़चन के पूरा हो जाता। किन्तु वरिष्ट अधिकारियों ने अप्रैल तक कोई अगला आदेश नहीं दिया। जब आगामी अक्टूबर में अनुमानित ख़र्च प्रस्तुत किया गया। इसी बीच अड़ींग के बनिया छीतरमल ने स्वयं को अमर रखने के इरादे से अल्प व्यय के बल पर जीर्णोद्वार का बीड़ा उठाया और निजी व्यय पर उससे ज़रूरी निर्माण कार्य अपने हाथों में ले लिया। तद्नुसार उसने मूल छत के बचे हुए हिस्से को छल्लेदार छज्जे समेत बेरहमी से ध्वस्त करा दिया और उसकी जगह बेडौल लकड़ी दीवारों पर रखवा दी। जिनसे सिर्फ इतना हो सकता था कि आगामी कुछ वर्षों के लिए मौसम से रक्षा हो सकेगी। मगर आकृति में जो कुछ अद्वितीय विशिष्टता थी, अस्तित्व में नहीं रही। इस प्रकार भारतीय स्थापत्य के खण्डित इतिहास के कुछ पन्नों में हमेशा के लिए धब्बे लग गये।
वृन्दावन के गोविन्द देव मन्दिर की तर्ज पर यहाँ कोई प्रतिमा नहीं है जिससे अधिकांश हिन्दू धर्मस्थलों की तरह इसकी कलात्मक प्रतीति में अपकर्शण उत्पन्न हो गया। जबकि इसमे मौलिक रूप से मूर्तिपूजा के लिए प्राण प्रतिष्ठित किया गया था। इसमें पवित्रतम विश्वास की जन आनुशणनिक कार्यों के लिए स्थापत्य के सभी अर्थ समाहित थे। यदि इसे राष्ट्रीय स्मारक के रूप में से रक्षित किया गया होता तो भविष्य के किसी स्वर्णिम काल में गोवर्धन का वही स्थान होता जैसा कि प्राचीन रोम का है।

अन्य लिंक