ललिता कुण्ड काम्यवन: Difference between revisions

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सूर्य कुण्ड से पूर्व दिशा में हरे-भरे वनों के भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है। यह ललिता जी के स्नान करने का स्थान है। कभी–कभी ललिता जी किसी छल-बहाने से [[राधा|राधिका]] को यहाँ लाकर उनका [[कृष्ण]] के साथ मिलन कराती थीं। यह कुण्ड [[नन्दगाँव]] के पूर्व दिशा में है।  
[[सूर्य कुण्ड]] से पूर्व दिशा में हरे-भरे वनों के भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है। यह ललिता जी के स्नान करने का स्थान है। कभी–कभी ललिता जी किसी छल-बहाने से [[राधा|राधिका]] को यहाँ लाकर उनका [[कृष्ण]] के साथ मिलन कराती थीं। यह कुण्ड [[नन्दगाँव]] के पूर्व दिशा में है।  


'''प्रसंग'''
'''प्रसंग'''

Revision as of 08:48, 25 June 2010

सूर्य कुण्ड से पूर्व दिशा में हरे-भरे वनों के भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है। यह ललिता जी के स्नान करने का स्थान है। कभी–कभी ललिता जी किसी छल-बहाने से राधिका को यहाँ लाकर उनका कृष्ण के साथ मिलन कराती थीं। यह कुण्ड नन्दगाँव के पूर्व दिशा में है।

प्रसंग

एक समय कृष्ण ने राधिका को देवर्षि नारद से सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने कहा-देवर्षि बड़े अटपटे स्वभाव के ऋषि हैं। कभी-कभी ये बाप-बेटे, माता-पिता या पति –पत्नी में विवाद भी करा देते हैं। अत: इनसे सावधान रहना ही उचित है। किन्तु राधा जी ने इस बात को हँसकर टाल दिया।


एक दिन ललिता जी वन से बेली, चमेली आदि पुष्पों का चयन कर कृष्ण के लिए एक सुन्दर फूलों का हार बना रहीं थीं। हार पूर्ण हो जाने पर वह उसे बिखेर देतीं और फिर से नया हार गूँथने लगतीं। वे ऐसा बार-बार कर रही थीं। कहीं वृक्षों की ओट से नारद जी ललिता जी के पास पहुँचे और उनसे पुन:-पुन: हार को गूँथने और बिखेरने का कारण पूछा। ललिता जी ने कहा कि मैं हार गूँथना पूर्णकर लेती हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह हार कृष्ण के लिए या तो छोटा है या बड़ा है। इसलिए मैं ऐसा कर रही हूँ। कौतुकी नारद जी ने कहा-कृष्ण तो पास ही में खेल रहे हैं। अत: क्यों न उन्हें पास ही बिठाकर उनके गले का माप लेकर हार बनाओ? ऐसा सुनकर ललिता जी ने कृष्ण को बुलाकर कृष्ण के अनुरूप सुन्दर हार गूँथकर कृष्ण को पहनाया। अब कृष्ण ललिता जी के साथ राधा जी की प्रतीक्षा करने लगे क्योंकि राधिका ने ललिता से पहले ही ऐसा कहा था कि तुम हार बनाओ, मैं तुरन्त आ रही हूँ। किन्तु उनके आने में कुछ विलम्ब हो गया। सखियाँ उनका श्रृंगार कर रही थीं।


नारद जी ने पहले से ही श्री कृष्ण से यह वचन ले लिया था कि वे श्री ललिता और श्री कृष्ण युगल को एक साथ झूले पर झूलते हुए दर्शन करना चाहते हैं। अत: आज अवसर पाकर उन्होंने श्री कृष्ण को वचन का स्मरण करा कर ललिता जी के साथ झूले पर झूलने के लिए पुन:-पुन: अनुरोध करने लगे। नारद जी के पुन:-पुन: अनुरोध से राधिका की प्रतीक्षा करते हुए दोनों झूले में एक साथ बैठकर झूलने लगे। इधर देवर्षि, 'ललिता-कृष्ण की जय हो, ललिता-कृष्ण की जय हो', कीर्तन करते हुए राधिका के निकट उपस्थित हुए। राधिका ने देवर्षि नारद जी को प्रणाम कर पूछा- देर्वषि! आज आप बड़े प्रसन्न होकर ललिता-कृष्ण का जयगान कर रहे हैं। कुछ आश्चर्य की बात अवश्य है। आख़िर बात क्या है? नारद जी मुस्कराते हुए बोले-'अहा! क्या सुन्दर दृश्य है। कृष्ण सुन्दर वनमाला धारण कर ललिता जी के साथ झूल रहे हे। आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं वहाँ पधारकर देखें। परन्तु श्रीमतीजी को नारदजी के वचनों पर विश्वास नहीं हुआ। मेरी अनुपस्थिति में ललिताजी के साथ झूला कैसे सम्भव है? वे स्वयं उठकर आई और दूर से उन्हें झूलते हुए देखा अब तो उन्हें बड़ा रोष हुआ। वे लौट आई और अपने कुञ्ज में मान करके बैठ गई। इधर कृष्ण राधा जी के आने में विलम्ब देखकर स्वयं उनके निकट आये। उन्होंने नारद जी की सारी करतूतें बतला कर किसी प्रकार उनका मन शान्त किया तथा उन्हें साथ लेकर झूले पर झूलने लगे। ललिता और विशाखा उन्हें झुलाने लगीं। यह मधुर लीला यहीं पर सम्पन्न हुई थी कुण्ड के निकट ही झूला झूलने का स्थान तथा नारद कुण्ड है।

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