स्तव माला: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ") |
||
Line 1: | Line 1: | ||
[[रूपगोस्वामी]] के बहुत से फुटकर स्तवों को एकत्र कर [[जीव गोस्वामी]] ने उन्हें 'स्तवमाला' का नाम दिया है। इसमें उन्होंने क्रम से श्री चैतन्य देव, [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[राधा|श्रीराधा]], राधाकृष्ण<ref> युगल</ref> के स्तव पहले दिये हैं। उसके | [[रूपगोस्वामी]] के बहुत से फुटकर स्तवों को एकत्र कर [[जीव गोस्वामी]] ने उन्हें 'स्तवमाला' का नाम दिया है। इसमें उन्होंने क्रम से श्री चैतन्य देव, [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]], [[राधा|श्रीराधा]], राधाकृष्ण<ref> युगल</ref> के स्तव पहले दिये हैं। उसके पश्चात् विरूदावली, नाना प्रकार के छन्दों में नन्दोत्सव से लेकर कंस वध तक की लीलाएं, चक्रबन्धादिचित्रकाव्य, गीतावली, गीतावली को रसिक मोहन विद्या भूषण ने सनातन गोस्वामी की रचना कहा है। <ref>रूप-सनातन, शिक्षामृत, 2 य खण्ड, पृ. 448</ref> पर साधारण रूप से विद्वान इसे रूप की ही रचना मानते हैं। यह समझ में नहीं आता कि रूप गोस्वामी के पदों के संग्रह में जीव एक रचना सनातन गोस्वामी की क्यों जोड़ेंगे। | ||
<poem>"अकारुण्य: कृष्णो यदि मयि तवाग: कथमिदं | <poem>"अकारुण्य: कृष्णो यदि मयि तवाग: कथमिदं |
Latest revision as of 07:33, 7 November 2017
रूपगोस्वामी के बहुत से फुटकर स्तवों को एकत्र कर जीव गोस्वामी ने उन्हें 'स्तवमाला' का नाम दिया है। इसमें उन्होंने क्रम से श्री चैतन्य देव, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, राधाकृष्ण[1] के स्तव पहले दिये हैं। उसके पश्चात् विरूदावली, नाना प्रकार के छन्दों में नन्दोत्सव से लेकर कंस वध तक की लीलाएं, चक्रबन्धादिचित्रकाव्य, गीतावली, गीतावली को रसिक मोहन विद्या भूषण ने सनातन गोस्वामी की रचना कहा है। [2] पर साधारण रूप से विद्वान इसे रूप की ही रचना मानते हैं। यह समझ में नहीं आता कि रूप गोस्वामी के पदों के संग्रह में जीव एक रचना सनातन गोस्वामी की क्यों जोड़ेंगे।
"अकारुण्य: कृष्णो यदि मयि तवाग: कथमिदं
मुधा मा रोदीर्म्मे कुरु परमिमाभुत्तर कृतिम्।
तमालस्य स्कन्धे विनिहित भुजवर्ल्लाररियं
यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठतितनु:॥
और अन्त में क्रम से ललिता, यमुना, मथुरापुरी, गोवर्धन, वृन्दावन और कृष्ण नाम की स्तव-पद्धति का संग्रह किया है। इस स्तव-स्तोत्रों में गोविन्द विरूदावली भक्तजनों को बहुत प्रिय हैं। इसके शब्द विन्यास, कला कौशल और अनुप्रास-झंकार सहज ही मन-प्राण खींच लेते हैं। पर गीतावली भी कुछ कम आकर्षक नहीं है। इसकी ध्वनि-झंकार जयदेव के गीत गोविन्द के समान है। पर राधाकृष्ण के विविध लीला-विलास की परिकल्पना रूप की अपनी है।
|
|
|
|
|