अवर प्रवालादि युग: Difference between revisions
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अवर प्रवालादि युग पुराकल्प जिन छह युगों में विभक्त किया गया है उनमें से दूर से प्राचीनतम युग को अवर प्रवालादि युग कहते हैं। इसी को अंगेजी में ऑर्डोवीशियन पीरियड कहते हैं। सन् 1879 ई. में लैपवर्थ महोदय ने इस अवर प्रवालादि युग का प्रतिपादन करके मरचीसन तथा सेज़विक महोदयों के बीच प्रवालादि (साइल्यूरियन) और त्रिखंड (कैंब्रियन) युगों की सीमा के विषय में चल रहे प्रतिद्वंद्व को समाप्त कर दिया। इस युग के प्रस्तरों का सर्वप्रथम अध्ययन वेल्स प्रांत में किया गया था और ऑर्डोवीशियन नाम वहाँ बसनेवाली प्राचीन जाति ऑर्डोविशाई पर पड़ा है।
भारतवर्ष में इस युग के स्तर बिरले स्थानों में ही मिलते हैं। दक्षिण भारत में इस युग का कोई स्तर नहीं है। हिमालय में जो निम्न स्तर मिलते हैं, वे भी केवल कुछ ही स्थानों में सीमित हैं, यथा स्पिटी, कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल। विश्व के अन्य भागों में इस युग के प्रस्तर अधिक मिलते हैं।
ऑर्डोवीशयन युग के प्राणियों के अवशेष कैंब्रियन युग के सदृश हैं। इस युग के प्रस्तरों में ग्रैप्टोलाइट नामक जीवों के अवशेषों की प्रचुरता है। ट्राइलोबाइट और ब्रैकियोपॉड जीवों के अवशेष भी अधिक मात्रा में मिलते हैं। कशेरुदंडी जीवों में मछली का प्रादुर्भाव इसी युग में हुआ। अमरीका के बिग हॉर्न पर्वत और ब्लैक पर्वत के ऑर्छोवीशियन बालुकाश्मों में प्राथमिक मछलियों के अवशेष पाए गए हैं।[1]
अवलोकितेश्वर महायान बौद्ध ग्रंथ सद्धर्मपुंडरीक में अवलोकितेश्वर बोधिसत्व के माहात्म्य का चमत्कारपूर्ण वर्णन मिलता है। अनंत करुणा के अवतार बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का व्रात है कि बिना संसार के अनंत प्राणियों का उद्धार किए वे स्वयं निवार्णलाभ नहीं करेंगे। जब चीनी यात्री फाहियान ३९९ ई. में भारत आया था तब उसने सभी जगह अवलोकितेश्वर की पूजा होते देखी।[2]
भगवान् बुद्ध ने बराबर अपने को मानव के रूप में प्रकट किया और लोगों को प्रेरित किया कि वे उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करें। किंतु उसपर भी ब्राह्मणधर्म की छाप पड़े बिना नहीं रही। बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की कल्पना उसी का परिणाम है। ब्रह्म के समान ही अवलोकितेश्वर के विषय में लिखा है :
'अवलोकितेश्वर की आँखों से सूरज और चाँद, भ्रू से महेश्वर, स्कंधों से देवगण, हृदय से नारायण, दाँतों से सरस्वती, मुख से वायु, पैरों से पृथ्वी तथा उदर से वरुण उत्पन्न हुए।' अवलोकितेश्वरों में महत्वपूर्ण सिंहनाद की उत्तर मध्यकालीन[3] असाधारण सुंदर प्रस्तरमूर्ति लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है।[4]
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