सप्ताह
सामान्यत: एक माह में चार सप्ताह होते हैं और एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। सप्ताह के प्रत्येक दिन पर नौ ग्रहों के स्वामियों में से क्रमश: पहले सात का राज चलता है. जैसे-
- रविवार पर सूर्य का राज चलता है।
- सोमवार पर चन्द्रमा का राज चलता है।
- मंगलवार पर मंगल का राज चलता है।
- बुधवार पर बुध का राज चलता है।
- बृहस्पतिवार पर गुरु का राज चलता है।
- शुक्रवार पर शुक्र का राज चलता है।
- शनिवार पर शनि का राज चलता है।
यहाँ एक बात याद रखना ज़रूरी है- पश्चिम में दिन की शुरुआत मध्य रात्रि से होती है और वैदिक दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है। वैदिक ज्योतिष में जब हम दिन की बात करें तो मतलब सूर्योदय से ही होगा। सप्ताह के प्रत्येक दिन के कार्यकलाप उसके स्वामी के प्रभाव से प्रभावित होते हैं और व्यक्ति के जीवन में उसी के अनुरुप फल की प्राप्ति होती है। जैसे- चन्द्रमा दिमाग और गुरु धार्मिक कार्यकलाप का कारक होता है। इस वार में इनसे सम्बन्धित कार्य करना व्यक्ति के पक्ष में जाता है। सप्ताह के दिनों के नाम ग्रहों की संज्ञाओं के आधार पर रखे गए हैं अर्थात जो नाम ग्रहों के हैं, वही नाम इन दिनों के भी हैं। जैसे-
- सूर्य के दिन का नाम रविवार, आदित्यवार, अर्कवार, भानुवार इत्यादि।
- शनिश्चर के दिन का नाम शनिवार, सौरिवार आदि।
- संस्कृ्त में या अन्य किसी भी भाषा में भी साप्ताहिक दिनों के नाम सात ग्रहों के नाम पर ही मिलते हैं। संस्कृ्त में ग्रह के नाम के आगे वार या वासर या कोई ओर प्रयायवाची शब्द रख दिया जाता है।
- सप्ताह केवल मानव निर्मित व्यवस्था है। इसके पीछे कोई ज्योतिःशास्त्रीय या प्राकृतिक योजना नहीं है।
- स्पेन आक्रमण के पूर्व मेक्सिको में पाँच दिनों की योजना थी।
- सात दिनों की योजना यहूदियों, बेबिलोनियों एवं दक्षिण अमेरिका के इंका लोगों में थी।
- लोकतान्त्रिक युग में रोमनों में आठ दिनों की व्यवस्था थी, मिस्रियों एवं प्राचीन अथेनियनों में दस दिनों की योजना थी।
- ओल्ड टेस्टामेण्ट में आया है कि ईश्वर ने छह दिनों तक सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम करके उसे आशीष देकर पवित्र बनाया। - जेनेसिरा[1], एक्सोडस[2] एवं डेउटेरोनामी[3] में ईश्वर ने यहूदियों को छह दिनों तक काम करने का आदेश दिया है और एक दिन (सातवें दिन) आराम करने को कहा है और उसे ईश्वर के सैब्बाथ (विश्रामवासर) के रूप में पवित्र मानने की आज्ञा दी है।
- यहूदियों ने सैब्बाथ (जो कि सप्ताह का अन्तिम दिन है) को छोड़कर किसी दिन को नाम नहीं दिया है; उसे वे रविवार न कहकर शनिवार मानते हैं।
- ओल्ड टेस्टामेण्ट में सप्ताह-दिनों के नाम (व्यक्तिवाचक) नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यू टेस्टामेण्ट में भी सप्ताह-दिन केवल संख्या से ही द्योतित हैं।[4] सप्ताह में कोई न कोई दिन कतिपय देशों एवं धार्मिक सम्प्रदायों द्वारा सैब्बाथ (विश्रामदिन) या पवित्र माना गया है, यथा - सोमवार यूनानी सैब्बाथ दिन, मंगल पारसियों का, बुध असीरियों का, बृहस्पति मिस्रियों का, शुक्र मुसलमानों का, शनिवार यहूदियों का एवं रविवार ईसाईयों का पवित्र विश्रामदिन है।
- सात दिनों के वृत्त के उद्भव एवं विकास का वर्णन 'एफ. एच. कोल्सन' के ग्रन्थ 'दी वीक'[5] में उल्लिखित है।
- डायोन कैसिअस (तीसरी शती के प्रथम चरण में) ने अपनी 37वीं पुस्तक में लिखा है कि 'पाम्पेयी ई. पू. 83 में येरूसलेम पर अधिकार किया, उस दिन यहूदियों का विश्राम दिन था। उसमें आया है कि ग्रहीय सप्ताह (जिसमें दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर आधारित हैं) का उद्भव मिस्र में हुआ।
- डियो ने 'रोमन हिस्ट्री'[6] में यह स्पष्ट किया है कि सप्ताह का उद्गम यूनान में न होकर मिस्र में हुआ और वह भी प्राचीन नहीं है बल्कि हाल का है। इससे प्रकट है कि यूनान में सप्ताह का ज्ञान-प्रवेश ईसा की पहली शती में हुआ। पाम्पेयी के नगर में, जो सन् 79 ई. में लावा (ज्वालामुखी) में डूब गया था, एक दीवार पर सप्ताह के छह दिनों के नाम आलिखित हैं। इससे संकेत मिलता है कि सन् 79ई0 के पूर्व ही इटली में सप्ताह-दिनों के नाम ज्ञात थे।
- कोल्सन महोदय इस बात से भ्रमित हो गए हैं कि ट्यूटान देशों में 'वेंस्डे' एवं 'थस्टडे' जैसे नाम कैसे आए।
- सार्टन ने 'हिस्ट्री ऑफ साइंस' में लिखा है कि 'यहूदी, मिस्री दिन-घण्टे एवं चाल्डिया के ज्योतिष ने वर्तमान सप्ताह की सृष्टि की है।[7] सार्टन का मत है कि ग्रहीय दिनों का आरम्भ मिस्र एवं बेबिलोन में हुआ, यूनान में इसका पूर्वज्ञान नहीं था। आधुनिक यूरोपीय घण्टे बेबिलोन घण्टों एवं मिस्री पंचांग की दिन-संख्या पर आधारित हैं।
- ई. पू. दूसरी शती तक यूरोप में तथा मध्य एशिया में आज के सप्ताह-दिनों के नामों के आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था।
रोमन केलैंण्डर
रोमन केलैंण्डर में सम्राट कोंस्टेंटाईन ने ईसा के क़रीब तीन सौ वर्ष के बाद सात दिनों वाले सप्ताह को निश्चत किया और उन्हें नक्षत्रों के नाम दिये -
- सप्ताह के पहले दिन को 'सूर्य का नाम' दिया गया है।
- दूसरे दिन को चाँद का नाम दिया गया है।
- तीसरे दिन को मंगल दिया गया है।
- चौथे दिन को बुध दिया गया है।
- पाँचवें दिन को बृहस्पति दिया गया है।
- छठे दिन को शुक्र दिया गया है।
- सातवें दिन को शनि का नाम दिया गया है।
- आज भी रोमन संस्कृती से प्रभावित देशों में इन्हीं नामों का प्रयोग होता है.
विभिन्न देशों के अनुसार
सोमवार को 'लूना' यानि चाँद का नाम दिया गया, इसलिए इतालवी भाषा में उसे 'लुनेदी' और फ्राँस में उसे 'लंदी' कहते हैं। भारत में भी सप्ताह के दिन इसी परम्परा से जुड़े हैं। लेकिन पुर्तग़ाल जो कि लेटिन भाषा और रोमन संस्कृति का देश है, वहाँ कुछ भिन्न हुआ। वे लोग 'रविवार' को तो सूर्य के साथ जोड़ते हैं पर सप्ताह के बाकी के दिनों को 'सुगुंदा फेरा', 'तेरसेइरा फेरा', यानि दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि कहते हैं। इसी प्रकार का हिसाब चीन में भी है जहाँ 'छिंगचीयी', 'छिंगचीएर', 'छिंगचीसान' आदि का अर्थ पहला दिन, दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि ही होता है। पर जापानी भाषा इससे भिन्न है। जापानी भाषा में दिनों के नाम इस प्रकार हैं-
- रविवार को 'निचीयोबि' यानि 'सूर्य का दिन' कहा जाता है।
- सोमवार को गेतसुयोबी यानि चाँद का दिन कहा जाता है।
- मँगलवार को कायोबी यानि आग का दिन कहा जाता है।
- बुधवार को सुईयोबी यानि पानी का दिन कहा जाता है।
- बृहस्पतिवार को मोकुयोबी यानि लकड़ी का दिन कहा जाता है।
- शुक्रवार को किनयोबी यानि स्वर्णदिन कहा जाता है।
- शनिवार को दोयोबी यानि धरती का दिन कहा जाता है।
अग्रेजी में इन्हीं दिनो को 'सण्डे', 'मण्डे' और 'सेटरडे' तीन दिनों के नाम रोमन नामों से मिलते हैं यानि 'सूर्य', 'चंद्र' और 'शनि' के नाम से जुड़े पर बाकी दिनों के नाम भिन्न हैं, यह कैसे हुआ? इसका कारण इंग्लैंड का इतिहास है। रोमन साम्राज्य के बाद वहाँ पर बाहर से हमले होते रहे, कभी जर्मनी से, कभी स्केडेनेविया के देशों से, जहाँ के एन्गलोसेक्सन लोग अपने साथ अपने देवी देवता ले कर आये। नोर्वे के 'थोर देवता' जो बादलों और तूफ़ान की गड़गड़ाहट के देवता हैं उन्होंने अपना नाम दिया 'बृहस्पतिवार' को यानि कि 'थर्सडे'। नोर्वे के सबसे बड़े देवता 'वोडन' ने नाम दिया बुधवार यानि 'वेडनेसडे' को। 'वोडेन' देवता के पुत्र 'तीव' ने नाम दिया मंगलवार यानि 'ट्यूसडे' को और 'वोडेन' की पत्नी 'फ्रिया' ने नाम दिया शुक्रवार यानि 'फ्राईडे' को।
ग्रंथों के अनुसार
- यही बात विष्णुपुराण[8] में भी है।
ऐसा तर्क दिया जाता है कि सप्ताह - दिनों का क्रम मिस्रियों के 24 घण्टों वाली विधि पर आधारित है, जहाँ प्रत्येक दिन - भाग क्रम से एक ग्रह से शासित है।
- रविवार को प्रथम भाग पर सूर्य का,
- 21वें भाग के उपरान्त 22वें भाग पर पुनः सूर्य का,
- 23वें पर शुक्र का,
- 24वें पर बुध का शासन माना जाता है तथा
- दूसरे दिन 25वें भाग (या घण्टे) को सोमवार कहा जाता है। यदि यह व्यवस्था 24 घण्टों एवं घण्टा-शासकों पर आधारित है तो वही क्रम लम्बे ढंग से भी हो सकता है। 24 घण्टों के स्थान पर 60 भागों (घटिकाओं) में दिन को बाँटा जा सकता है। यदि हम चन्द्र से आरम्भ करें और एक घटी (या घटिका) एक ग्रह से समन्वित करें तो 57वीं घटी चन्द्र की होगी, 58वीं बुध की, 59वीं शुक्र की, 60वीं सूर्य की और सोमवार के उपरान्त दूसरा दिन होगा मंगलवार।
- ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में किसी देश में (और आज भी ऐसा है) सप्ताह - दिनों में एक के उपरान्त एक दिनों में धार्मिक कृत्य नहीं होते थे। सप्ताह के दिनों के उद्भव एवं विकास के विषय पर मत-मतान्तर है। ऐसा कहा गया है कि भारतीय सप्ताह - दिन भारत के नहीं हैं, प्रच्युत वे चाल्डिया या यूनान के हैं। यहाँ हम यह देखेंगे साहित्यिक एवं शिलालेखीय प्रमाण हमें इस विषय में कितनी दूर ले जाते हैं। इस विषय में अत्यन्त प्राचीन शिलालेखीय प्रमाण है-
- एरण का स्तम्भ-शिलालेख, जो बुधगुप्त (सन 484 ई.) का है, जिसमें आषाढ़ शुक्ल द्वादशी एवं बृहस्पति का उल्लेख है। मान लिया जाए कि सप्ताह की धारणा अभारतीय है, तो इसके पूर्व की वह सर्वसाधारण के जीवन में इस प्रकार समाहित हो जाए कि गुप्त सम्राट अपनी घोषणाओं में उसका प्रयोग करने लगें, तो यह मानना पड़ेगा कि ऐसा होने में कई शतियों की आवश्यकता पड़ेगी।
- अब हम साहित्यिक प्रमाण लें। आर्यभट कृत दशगीतिका, श्लोक 3 में गुरुदिवस (बृहस्पतिवाद) का उल्लेख है।[9]
- बृहत्संहिता[10] में मंगल (क्षितितनय दिवस) का उल्लेख है।
- पंचसिद्धान्तिका[11] में सोम दिवस (सोमवार) आया है।
- बृहत्संहिता[12] ने रविवार से शनिवार तक के कर्मों का उल्लेख किया है।
- इसी विषय में उत्पल ने गर्ग नामक प्राचीन ज्योतिर्विद् के 18 अनुष्टुप् श्लोकों का उद्धरण दिया है। कर्न ने गर्ग को ई. पू. पहली शती का माना है। इससे प्रकट है कि भारत में सप्ताह-दिनों का ज्ञान ई. पू. प्रथम शती में अवश्य था।
- फिलास्ट्रेटस ने टायना के अपोल्लोनियस (जो सन् 18 ई. में मरा) के जीवन चरित में लिखा है कि किस प्रकार भारत में यात्रा करते समय अपोल्लोनियस ने ब्राह्मणों के नेता इर्चुस से 7 अँगूठियाँ प्राप्त कीं, जिन पर 7 ग्रहों के नाम थे और जिन्हें उसे प्रतिदिन एक-एक करके पहनना था। इससे भी यही प्रकट होता है कि ग्रह - नाम प्रथम शती के बीच में भारत के लोग ग्रहीय दिनों से परिचित थे।
- वैखानस-स्मार्त-सूत्र[13] एवं बौधायन धर्मसूत्र[14] में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु नामक ग्रहों के नाम आए हैं।
- प्रथम ग्रन्थ[15] में बुधवार का भी उल्लेख है।
- आथर्वण-वेदांग-ज्योतिष (वारप्रकरण, श्लोक 1 से 8) में रविवार से लेकर शनिवार तक के कर्मों का उल्लेख है।
- गाथा-सप्तशती (हाल कृत प्राकृत काव्य संग्रह) में मंगल एवं विष्टि का उल्लेख है।[16]
- याज्ञवल्क्य स्मृति[17] में आज की भाँति दिनों एवं राहु-केतु के साथ नवग्रहों की चर्चा है।
- यही बात नारद पुराण[18] में है।[19]
- पुराणों में सप्ताह-दिनों के विषय में बहुत-से वर्जित एवं मान्य कर्मों के उल्लेख हैं। बहुत-से पुराणों की तिथियों के विषय में मतभेद हैं, किन्तु इतना तो प्रमाणों से सिद्ध है कि ईसा की प्रथम दो शतियों में ग्रहों की पूजा एवं सप्ताह के दिनों के विषय में पूर्ण ज्ञान था।
- महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ में, जहाँ पर धर्मशास्त्रीय उल्लेख अधिक संख्या में हुए हैं, सप्ताह-दिनों की चर्चा नहीं है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यह सप्रमाण सिद्ध हो चुका है कि भारतीय लोग ई. पू. प्रथम शती एवं ई. उपरान्त प्रथम शती के बीच ग्रहों की पूजा एवं ग्रहयुक्त दिनों के ज्ञान से भली-भाँति परिचित थे। एक अन्य द्रष्टव्य बात यह है कि दिनों के नाम पूर्णतया भारतीय हैं, उन पर यूनानी या अभारतीय प्रभाव नहीं है। किन्तु राशियों के नाम के विषय में ऐसी बात नहीं है, वहाँ 'क्रिय' एवं 'लेय' जैसे शब्द बाह्य रूप से आ गए हैं। टॉल्मी (सन 150 ई.) ने 24 घण्टों एवं 60 भागों का उल्लेख किया है। भारतीयों में 60 घटिकाओं का प्रयोग प्राचीन है। भारतीयों ने दोपहर या रात्रि से दिन की गणना नहीं कि, प्रत्युत प्रातः से ही की है। आश्वमेधिक पर्व[20] में स्पष्ट कथन है कि पहले दिन आता है तब रात्रि आती है।
भारत में सात दिनों वाले दिन-वृत्त के विषय में कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना सम्भव है। बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति एवं शनि पाँच ग्रहों के साथ प्राचीन बेबिलोनियों ने पाँच देवों की कल्पना की थी। ये देव आगे चलकर रोमक रूपों में परिवर्तित हो गए। प्रेम की देवी ईस्टर शुक्र के रूप में हो गई, मुर्दुक नामक बड़ा देव बृहस्पति हो गया.......आदि। ये पाँचों ग्रह सूर्य एवं चन्द्र के साथ स्वर्गिक रूप वाले हो गए। चाल्डिया के मन्दिरों में जो पूजा होती थी और जो सीरिया तक प्रचारित थी, उसमें विशिष्ट दिन पर प्रत्येक देव की प्रार्थनाएँ होती थीं। जो देव जिस दिन पूजित होता था वह उसी दिन के साथ समन्वित हो गया। जो दिन सूर्य एवं चन्द्र के लिए पवित्र थे वे रविवार एवं सोमवार हो गए। इंग्लैण्ड में कुछ दिन-नाम प्रयोग में आ गए, यथा वेड्नस डे (वोडेंसडे) एवं थर्सडे (थोर्स डे)। किन्तु सप्ताह के दिन यूरोप में बेबिलोन देवों के नाम से ही बने। भारत एवं बेबिलोन में आते प्राचीन काल से व्यापारिक तथा अन्य प्रकार के सम्पर्क स्थापित थे। भारत में सूर्य-पूजा प्राचीन है, यथा- कश्मीर में मार्तण्ड, उत्तरी गुजरात में मोढेरा, उड़ीसा में कोणार्क। आज भी कहीं-कहीं 'राहु' एवं 'केतु' के मन्दिर हैं, यथा- अहमदनगर ज़िले में 'राहुरि' स्थान पर। कौटिल्य ने काल के बहुत-से भागों का (त्रुटि से युग तक) उल्लेख किया है और कहा है कि दो नाड़िकाएँ एक मुहूर्त के तथा एक अहोरात्र (दिन-रात) 30 मुहूर्तों के बराबर हैं। इससे प्रकट है कि कौटिल्य को केवल 60 नाड़िकाओं वाला दिन ज्ञात था। एक नाड़ी बराबर थी एक घटी (या घटिका) के।
- काल-गणना की अन्य विधियाँ भी प्रचलित थीं, यथा-6 बड़े अक्षरों के उच्चारण में जो समय लगता है उसे प्राण कहा जाता है; 6 प्राण मिलकर एक पल के बराबर होते हैं, 60 पल एक दण्ड, घटी या नाड़ी के बराबर (सूर्यसिद्धान्त 1|11; ज्योतिस्तत्त्व, पृ0 562)।
- पाणिनि[21] ने 'नाडिन्घम' की व्युत्पत्ति 'नाड़ी' से की है। 'नाड़ी' एक अति प्राचीन शब्द है।[22]
- यह ऋग्वेद[23] में आया है जिसका अर्थ है मुरली। लगता है, आगे चलकर यह कालावधि का द्योतक हो गया जो शंख या मुरली या तुरही जैसे बाजे के बजाने से प्रकट किया जाता था और जो 'नाड़ी' के रूप में (एक दिन के 60वें भाग में) घोषित हो गया, क्योंकि उन दिनों घड़ियाँ नहीं होती थीं। अतः 60 नाड़ियाँ एवं घटियाँ (दोनों शब्द पंतञ्जलि द्वारा, जो ई. पू. 150 में विद्यमान थे, प्रयुक्त हुए हैं) का दिन-विभाजन बहुत प्राचीन है।
- सूर्यसिद्धान्त में 24 घण्टों की चर्चा है, किन्तु वह ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और उस पर बाह्य प्रभाव हो सकता है, किन्तु उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में दिन-विभाजन परिपाटी (अर्थात् दिन को घटियों एवं नाड़ियों में बाँटना) अति प्राचीन है और उस पर बाह्य प्रभाव की बात ही नहीं उठती। स्वयं पंतजलि ने नाड़ी एवं घटी के प्रयोग को पुराना माना है। अतः ई. पू. दूसरी शती से बहुत पहले नाड़ी एवं घटि का प्रचलन सिद्ध है। पूर्ण रूप से सप्ताह-दिनों पर भी बाह्य प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। बेबिलोनी एवं सीरियाई प्रचलन के प्रभाव की बात उठायी जाती है, किन्तु इसे समानता मात्र से सिद्ध नहीं किया जा सकता। केवल पाश्चात्य हठवादिता प्रमाण नहीं हो सकती।[24] जहाँ यूरोपियन एवं भारतीय सप्ताह-विभाजन की तालिकाएँ एवं रेखाचित्र दिए हए हैं।
- अल्बरूनी[25] ने लिखा है कि भारतीय लोग ग्रहों एवं सप्ताह-दिनों के विषय में अपनी परिपाटी रखते हैं और दूसरे लोगों की परिपाटी को, भले ही वह अधिक ठीक हो, मानने को सन्नद्ध नहीं हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जेनेसिरा 2|1-3
- ↑ एक्सोडस 20|8-11,23|12-14
- ↑ डेउटेरोनामी 5|12-15
- ↑ मैथ्यू, 28|1; मार्क, 16|9; ल्यूक, 24|1
- ↑ एफ. एच. कोल्सन के ग्रन्थ 'दी वीक' कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, 1926
- ↑ रोमन हिस्ट्री जिल्द 3, पृ0 129, 131
- ↑ हिस्ट्री ऑफ साइंस पृ0 76-77
- ↑ विष्णुपुराण 1|12|92
- ↑
काहो ढ मनुयुग श्ख गतास्ते च मनुयुग छ्ना च। कल्पादेर्युगपादा ग च गुरुदिवसाच्च भारतात्पूर्वम्।। दशगीतिका, श्लोक 3।
टीकाकार ने लिखा हैः 'राज्यं चरतां युघिष्ठिरादीनायन्त्यो गुरुदिवसो भारतगुरुदिवसः। द्वापरावसानगत इत्यर्थः।
तस्मिन् दिवसे युधिष्ठिरादयो राज्यमुत्सृज्य महाप्रस्थानं गता इति प्रसिद्धः।
तस्माट्गुरुदिवसात् पूर्वकल्पादेरारभ्य गता मन्वादय इहोक्ताः। - ↑ बृहत्संहिता 1|4
- ↑ पंचसिद्धान्तिका (1|8)
- ↑ बृहत्संहिता 103|61-63
- ↑ वैखानस-स्मार्त-सूत्र 1|4
- ↑ बौधायन धर्मसूत्र 2|5|23
- ↑ प्रथम ग्रन्थ (2|12)
- ↑ 3|61
- ↑ याज्ञवल्क्य स्मृति 1|296
- ↑ नारद पुराण 1|5180
- ↑ और देखिए मत्स्य पुराण (93|7), विष्णुधर्मोत्तर पुराण (78|1-7) आदि।
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व 44|2
- ↑ पाणिनि (3|2|30)
- ↑ 11. 'नाड़ी' एवं 'नाड़िका' के कई अर्थ हैं-मुरली, नली, धमनी, एक आधा मुहूर्त। 'नाडिन्घम' का अर्थ स्वर्णकार है (क्योंकि वह एक नली से फूँककर आग धौंकता है)। काठकसंहिता (23|4 सैषा वनस्पतिषु वाग्वदति या नाड्या तूणवे) से प्रकट होता है कि नाड़ी एक ऐसा वाद्य था जिससे स्वर निकलते थे।
- ↑ ऋग्वेद (10|135|7
- ↑ कर्निघम (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 14, पृ0 1
- ↑ अल्बरूनी सचौ, जिल्द 1, अध्याय 19, पृ0 214-215