वैराग्य संदीपनी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "निरुपण" to "निरूपण")
 
Line 37: Line 37:
#[[दोहा]] 14 में 'अति अनन्य गति' का 'अति' अनावश्यक है। उसी में 'जानी' पूर्वकलिक क्रिया रूप असंगत लगता है। होना चाहिए था, 'जानई' किंतु परवर्ती चरण के 'पहिचानी' के तुक पर उसे 'जानी' कर दिया गया।
#[[दोहा]] 14 में 'अति अनन्य गति' का 'अति' अनावश्यक है। उसी में 'जानी' पूर्वकलिक क्रिया रूप असंगत लगता है। होना चाहिए था, 'जानई' किंतु परवर्ती चरण के 'पहिचानी' के तुक पर उसे 'जानी' कर दिया गया।


पुन: इसमें संत-लक्षण-निरुपण करते हुए शांति पद का प्रतिपादन अधिकतर [[तुलसीदास]] के राम भक्ति सम्बन्धी विचार धारा से भिन्न प्रतीत होता है। शांति पद के सुख का प्रतिपादन न कर उन्होंने अन्यत्र सर्वत्र भक्ति-सुख का उपदेश दिया है।
पुन: इसमें संत-लक्षण-निरूपण करते हुए शांति पद का प्रतिपादन अधिकतर [[तुलसीदास]] के राम भक्ति सम्बन्धी विचार धारा से भिन्न प्रतीत होता है। शांति पद के सुख का प्रतिपादन न कर उन्होंने अन्यत्र सर्वत्र भक्ति-सुख का उपदेश दिया है।


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}

Latest revision as of 07:54, 6 February 2021

वैराग्य संदीपनी
कवि गोस्वामी तुलसीदास
मूल शीर्षक 'वैराग्य संदीपनी'
देश भारत
शैली चौपाई और दोहे
विषय वैराग्योपदेश
टिप्पणी इस कृति में तुलसीदास ने शांति पद के सुख का प्रतिपादन न कर अन्यत्र सर्वत्र भक्ति-सुख का उपदेश दिया है।

वैराग्य संदीपनी की रचना चौपाई और दोहों में हुई है। माना जाता है कि भगवान श्रीराम के परम भक्त गोस्वामी तुलसीदास ने इसकी रचना की थी। तुलसीदास जी की इस रचना में दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार 'वैराग्योपदेश' है।

  • 'वैराग्य संदीपनी' की शैली और विचारधारा तुलसीदास की ज्ञात रचनाओं से भिन्न है। उदाहरणार्थ-
  1. 'निकेत'[1] का प्रयोग 'शरीर' के अर्थ में हुआ है, किंतु वह 'तुलसी ग्रंथावली' में सर्वत्र घर के लिए आता है।
  2. दोहा 6 में 'तवा' के 'शांत' होने की उक्ति आती हैं, इसका 'शीतल' होना ही बुद्धि-समस्त है।
  3. दोहा 8 में एकवचन 'ताहि' का प्रयोग 'संतजन' के लिए किया गया है, जो अशुद्ध है।
  4. दोहा 14 में 'अति अनन्य गति' का 'अति' अनावश्यक है। उसी में 'जानी' पूर्वकलिक क्रिया रूप असंगत लगता है। होना चाहिए था, 'जानई' किंतु परवर्ती चरण के 'पहिचानी' के तुक पर उसे 'जानी' कर दिया गया।

पुन: इसमें संत-लक्षण-निरूपण करते हुए शांति पद का प्रतिपादन अधिकतर तुलसीदास के राम भक्ति सम्बन्धी विचार धारा से भिन्न प्रतीत होता है। शांति पद के सुख का प्रतिपादन न कर उन्होंने अन्यत्र सर्वत्र भक्ति-सुख का उपदेश दिया है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा 3

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 584।

संबंधित लेख