राणा साँगा: Difference between revisions

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बाबर की कुशल सैन्य क्षमता और उसके तोपख़ानों से साँगा की सेना बीच में घिर गई और बहुत से सैनिक मारे गये। राणा साँगा की पराजय हुई। राणा साँगा बच कर भाग निकला ताकि बाबर के साथ फिर संघर्ष कर सके, परन्तु उसके सामन्तों ने ही उसे ज़हर दे दिया जो इस मार्ग को ख़तरनाक और आत्महत्या के समान समझते थे। इस प्रकार [[राजस्थान]] का सबसे बड़ा योद्धा अन्त को प्राप्त हुआ। साँगा की मृत्यु के साथ ही [[आगरा]] तक विस्तृत संयुक्त राजस्थान के स्वप्न को बहुत धक्का पहुँचा।


'खानवा की लड़ाई' से [[दिल्ली]]-[[आगरा]] में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में [[ग्वालियर]] और [[धौलपुर]] जैसे क़िलों की शृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से [[अलवर]] का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने [[मालवा]] स्थित [[चन्देरी]] के [[मेदिनी राय]] के विरुद्ध अभियान छेड़ा। [[राजपूत]] सैनिकों द्वारा [[रक्त]] की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।
'खानवा की लड़ाई' से [[दिल्ली]]-[[आगरा]] में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में [[ग्वालियर]] और [[धौलपुर]] जैसे क़िलों की श्रृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से [[अलवर]] का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने [[मालवा]] स्थित [[चन्देरी]] के [[मेदिनी राय]] के विरुद्ध अभियान छेड़ा। [[राजपूत]] सैनिकों द्वारा [[रक्त]] की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।


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राणा साँगा (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) को 'संग्राम सिंह' के नाम से भी जाना जाता है। वह राणा रायमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इतिहास में संग्राम सिंह मेवाड़ का राजा साँगा के नाम से प्रसिद्ध था। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा और गुजरात के विरुद्ध अभियान किया।। राणा साँगा महान् योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में से ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं था, जो उससे लोहा ले सके।[1]

युद्ध की आवश्यकता

बाबर के भारत पर आक्रमण के समय राणा साँगा को आशा थी कि वह भी तैमूर की भाँति दिल्ली में लूट-पाट करने के उपरान्त स्वदेश लौट जायेगा। किंतु 1526 ई. में राणा साँगा ने देखा कि इब्राहीम लोदी को 'पानीपत के युद्ध' में परास्त करने के बाद बाबर दिल्ली में शासन करने लगा है, तब उसने बाबर से युद्ध करने का निर्णय कर लिया। मालवा के महमूद ख़िलजी को युद्ध में हराने के बाद राणा साँगा का प्रभाव आगरा के निकट एक छोटी-सी नदी पीलिया ख़ार तक धीरे-धीरे बढ़ गया था। लेकिन सिंधु-गंगा घाटी में बाबर द्वारा मुग़ल साम्राज्य की स्थापना से राणा साँगा को ख़तरा बढ़ गया। राणा साँगा ने बाबर को भारत से खदेड़ने और कम-से-कम उसे पंजाब तक सीमित रखने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं।

बाबर का कथन

बाबर ने राणा साँगा पर संधि तोड़ने का दोष लगाया। उसका कहना था कि- "राणा साँगा ने मुझे हिन्दुस्तान आने का न्योता दिया और इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ युद्ध में मेरा साथ देने का वायदा किया था, लेकिन जब मैं दिल्ली और आगरा फ़तह कर रहा था, तो उसने पाँव भी नहीं हिलाये।"

राणा साँगा के सहायक

इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा साँगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था। हो सकता है कि उसने एक लम्बी लड़ाई की कल्पना की हो और सोचा हो कि जब तक वह स्वयं उन प्रदेशों पर अधिकार कर सकेगा, जिन पर उसकी निगाह थी। या शायद उसने यह सोचा हो कि दिल्ली को रौंद कर लोदियों की शक्ति को क्षीण करके बाबर भी तैमूर की भाँति लौट जायेगा। बाबर के भारत में ही रुकने के निर्णय ने परिस्थिति को पूरी तरह से बदल दिया। इब्राहिम लोदी के छोटे भाई महमूद लोदी सहित अनेक अफ़ग़ानों ने यह सोच कर राणा साँगा का साथ दिया कि अगर वह जीत गया, तो शायद उन्हें दिल्ली की गद्दी वापस मिल जायेगी। मेवात के शासक हसन ख़ाँ मेवाती ने भी राणा साँगा का पक्ष लिया। लगभग सभी बड़ी राजपूत रियासतों ने राणा की सेवा में अपनी-अपनी सेनाएँ भेजीं।

जिहाद का नारा

राणा साँगा की प्रसिद्धि और बयाना जैसी बाहरी मुग़ल छावनियों पर उसकी प्रारम्भिक सफलताओं से बाबर के सिपाहियों का मनोबल गिर गया। उनमें फिर से साहस भरने के लिए बाबर ने राणा साँगा के ख़िलाफ़ 'जिहाद' का नारा दिया। लड़ाई से पहले की शाम उसने अपने आप को सच्चा मुस्लिम सिद्ध करने के लिए शराब के घड़े उलट दिए और सुराहियाँ फोड़ दी। उसने अपने राज्य में शराब की ख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक लगा दी और मुसलमानों पर से सीमा कर हटा दिया। बाबर ने बहुत ध्यान से रणस्थली का चुनाव किया और वह आगरा से चालीस किलोमीटर दूर खानवा नामक स्थान पर पहुँच गया। पानीपत की तरह ही उसने बाहरी पंक्ति में गाड़ियाँ लगवा कर और उसके साथ खाई खोद कर दुहरी सुरक्षा की पद्धति अपनाई। इन तीन पहियों वाली गाड़ियों की पंक्ति में बीच-बीच में बन्दूक़चियों के आगे बढ़ने और गोलियाँ चलाने के लिए स्थान छोड़ दिया गया।

खानवा का युद्ध

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

'खानवा की लड़ाई' (1527) में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। बाबर के अनुसार साँगा की सेना में 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे। यह संख्या भी, और स्थानों की भाँति बढ़ा-बढ़ा कर कही गई हो सकती है, लेकिन बाबर की सेना निःसन्देह छोटी थी। साँगा ने बाबर की दाहिनी सेना पर ज़बर्दस्त आक्रमण किया और उसे लगभग भेद दिया। लेकिन बाबर के तोपख़ाने ने काफ़ी सैनिक मार गिराये और साँगा को खदेड़ दिया गया। इसी अवसर पर बाबर ने केन्द्र-स्थित सैनिकों से, जो गाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, आक्रमण करने के लिए कहा। ज़जीरों से गाड़ियों से बंधे तोपख़ाने को भी आगे बढ़ाया गया।

साँगा की पराजय

बाबर की कुशल सैन्य क्षमता और उसके तोपख़ानों से साँगा की सेना बीच में घिर गई और बहुत से सैनिक मारे गये। राणा साँगा की पराजय हुई। राणा साँगा बच कर भाग निकला ताकि बाबर के साथ फिर संघर्ष कर सके, परन्तु उसके सामन्तों ने ही उसे ज़हर दे दिया जो इस मार्ग को ख़तरनाक और आत्महत्या के समान समझते थे। इस प्रकार राजस्थान का सबसे बड़ा योद्धा अन्त को प्राप्त हुआ। साँगा की मृत्यु के साथ ही आगरा तक विस्तृत संयुक्त राजस्थान के स्वप्न को बहुत धक्का पहुँचा।

'खानवा की लड़ाई' से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में ग्वालियर और धौलपुर जैसे क़िलों की श्रृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से अलवर का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने मालवा स्थित चन्देरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान छेड़ा। राजपूत सैनिकों द्वारा रक्त की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 458 |

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