एकनाथी भागवत

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एकनाथी भागवत की रचना सन 1570 और सन 1580 ई. के मध्य हुई। इसके रचयिता श्री एकनाथजी वैष्णव कवि थे। इन्होंने दो प्रकार की रचनाएँ कीं- 'अध्यात्म विषयक' तथा 'चरित्र विषयक'। अध्यात्म विषयक रचनाओं में ‘एकनाथी भागवत’, ‘स्वात्म-सुख’, ‘चतु:श्लोकी भागवत टीका’, ‘हस्तामलक’ तथा ‘ज्ञानन्दलहरी’ प्रसिद्ध हैं। चरित्र विषयक ग्रंथों में ‘भावार्थ रामायण’ एवं 'रूक्मिणी स्वयंवर’ का नाम लिया जाता है।

एकनाथजी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

संत एकनाथ जी का जन्म सन 1533 ई. के लगभग हुआ था। मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण जन्म के थोड़े समय बाद ही इनके माता-पिता का देहावसान हो गया। इनका पालन-पोषण वृद्ध दादा-दादी ने किया। इनके दादा का नाम चक्रपाणि था। इनका उपनयन संस्कार छठे वर्ष में हुआ। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण थोड़े ही समय में इन्होंने 'पुरुष सूक्त' आदि कण्ठस्थ कर लिया। बारह वर्ष की आयु में इन्होंने 'महाभारत' तथा 'श्रीमद्भागवत' की कथाएँ पढ़ लीं। 13वें वर्ष में श्री जनार्दन स्वामी की सेवा में रहकर योग साधना करने लगे। 25 वर्ष की अवस्था में ये पैठण गए और भजन कीर्तन में तत्पर हो गए। इनकी धर्म पत्नी का नाम गिरिजा देवी था। सन 1599 ई. में इनकी मृत्यु हुई।[1]

भागवत रचना

एकनाथ ने भागवत की रचना वाराणसी मुक्तिक्षेत्र में, आनन्दवन में, मणिकर्णिका महातीर पर समाप्त की। ये केवल स्वतंत्र रचना करने में ही सिद्धहस्त न थे, वरन एक भाषा से अन्य भाषा में अनुवाद करने में भी उतने ही कुशल थे। संस्कृत के पण्डित थे। संस्कृत में काव्य लिखने की उनमें पूर्ण क्षमता थी, किंतु साधारण जनता संस्कृत के मर्म को समझने में असमर्थ थी। अत: जन-साधारण को संस्कृत रहस्य समझाने के लिए सरल मराठी भाषा में भागवत की रचना की। इस सम्बंध में इन्होंने संत ज्ञानेश्वर की परम्परा का निर्वाह किया है। इस ग्रंथ में श्रीमद्भागवत के ग्याहरवें अध्याय पर इन्होंने अपना समस्त पारमार्थिक अनुभव न्यौछावर कर दिया है।

भाषा-शैली

एकनाथ के काव्य में कृत्रिमता का अभाव है। भाषा सरस, सुबोध, शुद्ध, सरल एवं प्रभावशाली है। ज्ञानेश्वरकालीन प्राचीन और क्लिष्ट शब्दों का समावेश इन्होंने अपनी भाषा में नहीं किया है। यत्र-तत्र फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग अवश्य हो गया है। इनकी वर्णन शैली बड़ी रोचक है। यहाँ तक की वेदांत के कठिन विषयों को इन्होंने अत्यधिक मनोरंजक बना दिया है। कहीं-कहीं पर तो मूल अर्थ को सुबोध बनाने के लिए एक-एक श्लोक पर अनेक अध्याय लिखे हैं। तुलसीदास की भाँति इन्होंने नामस्मरण को परमार्थ की प्राप्ति का सर्वसुलभ उपाय बतलाया है। इनका मत है कि नाम के चिंतन से समस्त कार्यों की सिद्धि होती है।[1]

“चिंतनें तुटे आधि व्याधि। चिन्तनें तुटत से उपाधि॥
चिंतनें होय सर्वसिद्धि। एका जनार्दनाचे चरणीं॥“

पूजन एवं ध्यान के लिए भगवान की मूर्ति कैसी होनी चाहिए, इस सम्बंध में उनका कथन है-

“मूर्ति साजिरी सुनयन। सम सम सपोस सुप्रसन्न। पाहतां निवे तन मन। देखतां जाय भृक तहान।“

अर्थात “भगवान की मूर्ति पुष्ट एवं हँसमुख होनी चाहिए, जिसको देखते ही तन, मन शांत हो जाए तथा दृष्टि पड़ते ही भूख-प्यास न रहे।

एकनाथ तथा तुलसीदास

एकनाथ तथा तुलसीदास दोनों के ग्रंथों में विचार एवं अध्यात्म की दृष्टि से अत्यधिक साम्य है। दोनों के जीवन में भी सादृश्य दिखाई पड़ता है। दोनों का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था, जिनके कारण उनके माता-पिता की मृत्यु उनके बाल्यकाल में ही हो गई थी। दोनों का लालन-पालन उनके पितामह-मातामह के द्वारा हुआ था। बाल्यावस्था से ही दोनों की परमार्थ-साधना में रुचि थी। दोनों की जन्मतिथि एवं मृत्युकाल के सम्बंध में बड़ा मतभेद है, किंतु इस बात को सभी विद्वान मानते हैं कि इन दोनों ने ईसा की 16वीं शताब्दी के मध्य अपनी-अपनी रचनाएँ कीं।

एकनाथ ने पैठण जैसे प्राचीन आचार-विचारों एवं संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में रहकर भागवत धर्म का प्रचार किया तथा संस्कृत के स्थान में मराठी का प्रभुत्व स्थापित किया। वेदांत के उच्च विचारों को संस्कृत से मराठी में लाकर महाराष्ट्र में उनका प्रचार करना एकनाथ जैसे कर्मयोगी का कार्य था। एकनाथ के समय में संस्कृत साहित्य की भाषा, मराठी जनसाधारण की भाषा तथा फ़ारसी राजभाषा पद पर आरूढ़ थी। इन्होंने मराठी को साहित्य की भाषा बनाकर उसका प्रचार किया। सर्वप्रथम 'ज्ञानेश्वरी' को शुद्ध रूप प्रदान करके उसी के आधार पर अपने प्रवचन आरम्भ किए। बाद को भागवत धर्म के साथ ही मराठी भाषा का प्रचार करने लगे। इस प्रकार इन्होंने केवल धर्म परायण जनता में ही जागृति उत्पन्न नहीं की, वरन उस समय के साहित्यकारों का भी पथ-प्रदर्शन किया। पैठण में अब भी हर वर्ष फाल्गुन कृष्ण पक्ष अष्टमी को उनकी समाधि पर लाखों व्यक्ति एकत्रित होते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 59 |

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