रश्मिरथी -रामधारी सिंह दिनकर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 14:01, 13 November 2014 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replace - "कमजोर" to "कमज़ोर")
Jump to navigation Jump to search
रश्मिरथी -रामधारी सिंह दिनकर
कवि रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक रश्मिरथी
मुख्य पात्र कर्ण
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 81-85341-03-6
देश भारत
भाषा हिंदी
प्रकार महाकाव्य
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
विशेष 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है।

रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। आज के युग में लेखन व्यक्तिगत की बजाय सामूहिक अथवा सहयोगी होगा। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। 'रश्मिरथी' में कर्ण का चित्रण टाइप पात्र के रूप में हुआ है। यह पात्र हमारे मन में रमा हुआ है। टाइप पात्र के बहाने कर्ण हमारे मन की तहों को खोलता है।

कर्ण कथा

कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है और मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने अनेक सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[1]

जाति भेद का विरोध

  • रश्मिरथी में जाति भेद का विरोध दिनकर जी इस प्रकार करते हैं-

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते है जग से प्रशस्ति अपना करतव दिखलाके।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।[2]

रश्मिरथी में कर्ण का परिचय

  • रश्मिरथी में कर्ण का परिचय दिनकर जी इस प्रकार देते हैं-

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।[3]

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।[4]

कर्ण का अस्त्र कौशल

इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।[5]

फिरा कर्ण, त्यों ‘साधु-साधु’ कह उठे सकल नर-नारी।
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद् अति भारी।
द्रोण, भीम, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, ‘‘वीर ! शाबाश ![6]’’

भूमिका दिनकर जी

फिर भी यह सच है कि कथा-काव्य की रचना, आदि से अन्त तक, केवल दाहिने हाथ के भरोसे नहीं की जा सकती। जब मन ऊबने लगता है और प्रतिभा आगे बढ़ने से इनकार कर देती है, तब हमारा उपेक्षित बायाँ हाथ हमारी सहायता को आगे बढ़ता है। मगर, बेचारा बायाँ हाथ तो बायाँ ही ठहरा। वह चमत्कार तो क्या दिखलाये, कवि की कठिनाइयों का कुछ परदा ही खोल देता है। और इस क्रम में खुलनेवाली कमज़ोरियों को ढँकने के लिए कवि को नाना कौशलों से काम लेना पड़ता है।

यह तो हुई महाकाव्यों की बात। अगर इस ‘‘रश्मिरथी’’ काव्य को सामने रखा जाय, तो मेरे जानते इसका आरम्भ ही बायें-हाथ से हुआ है और आवश्यकतानुसार अनेक बार कलम बायें से दाहिने और दाहिने से बायें हाथ में आती-जाती रही है। फिर भी, ख़त्म होने पर चीज़ मुझे अच्छी लगी। विशेषतः मुझे इस बात का सन्तोष है कि अपने अध्ययन और मनन से मैं कर्ण के चरित को जैसा समझ सका हूँ, वह इस काव्य में ठीक से उतर आया है और उसके वर्णन के बहाने मैं अपने समय और समाज के विषय में जो कुछ कहना चाहता था, उसके अवसर भी मुझे यथास्थान मिल गये हैं।

इस काव्य का आरम्भ मैंने 16 फरवरी, सन् 1950 ई. को किया था। उस समय मुझे केवल इतना ही पता था कि प्रयाग के यशस्वी साहित्यकार पं. लक्ष्मीनारायणजी मिश्र कर्ण पर एक महाकाव्य की रचना कर रहे हैं। किन्तु, ‘‘रश्मिरथी’’ के पूरा होते-होते हिन्दी में कर्णचरित पर कई नूतन और रमणीय काव्य निकल गये। यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। अतएव, यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाए जो हज़ारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा रहा है।[7]

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
  2. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 9।
  3. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 9।
  4. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 9।
  5. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 10।
  6. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 10।
  7. दिनकर, रामधारी सिंह “भूमिका”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, क,ख,ग।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः