देवसेन: Difference between revisions
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Latest revision as of 08:01, 1 August 2013
देवसेन प्राकृत भाषा में 'स्याद्वाद' और 'नय' का प्ररूपण करने वाले दूसरे जैन आचार्य थे। इनका समय दसवीं शताब्दी माना जाता है। देवसेन नय मनीषी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नयचक्र' की रचना की थी। संभव है, इसी का उल्लेख आचार्य विद्यानन्द ने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक'[1] में किया हो और इससे ही नयों को विशेष जानने की सूचना की हो।
रचनाएँ
देवसेन की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं-
- लघु-नयचक्र - इसमें 87 गाथाओं द्वारा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो तथा उनके नैगमादि नौ नयों को उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है।
- बृहन्नयचक्र - इसमें 423 गाथाएँ हैं और उसमें नयों व निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है।
इस रचना के अंत की 6, 7 गाथाओं में लेखक ने एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि आदितः उन्होंने 'दव्व-सहाव-पयास'[2] नाम से इस ग्रन्थ की रचना दोहा में की थी, किन्तु उनके एक शुभंकर नाम के मित्र ने कहा कि यह विषय इस छंद में शोभा नहीं देता। इसे गाथाबद्ध होना चाहिए। इसीलिए उनके माहल्ल धवल नाम के एक शिष्य ने उसे गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप उनके पारिभाषिक रूप में व्यवस्था से समझने के लिये देवसेन की ये रचनायें बहुत उपयोगी हैं। इनकी न्यायविषयक एक अन्य रचना 'आलाप-पद्धति' है। इसकी रचना संस्कृत गद्य में हुई है। जैन न्याय में सरलता से प्रवेश पाने के लिये यह छोटा-सा ग्रन्थ बहुत सहायक है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख