जोग अगिनि करि प्रगट: Difference between revisions
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तब योग रूपी [[अग्नि]] प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी [[अग्नि]] में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी [[माखन|मक्खन]] का) ममता रूपी मल, [[जल]] जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी [[घी]] को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें॥117 (क)॥ | तब योग रूपी [[अग्नि]] प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी [[अग्नि]] में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी [[माखन|मक्खन]] का) ममता रूपी मल, [[जल]] जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी [[घी]] को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें॥117 (क)॥ | ||
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Latest revision as of 05:47, 15 July 2016
जोग अगिनि करि प्रगट
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
शैली | सोरठा, चौपाई, छन्द और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | उत्तरकाण्ड |
सभी (7) काण्ड क्रमश: | बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधा काण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, उत्तरकाण्ड |
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ। |
- भावार्थ
तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपी मल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें॥117 (क)॥
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दोहा- मात्रिक अर्द्धसम छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन- भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|पृष्ठ संख्या-534
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