फल्गु नदी: Difference between revisions
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'नेरंजरा' (बुद्ध गया के पास प्रवाहित होने वाली वर्तमान [[नीलांजना नदी|नीलाजन]]) नदी बुद्ध गया के कुछ ऊपर चलकर मोहना नदी में मिलती है और दोनों मिलकर फल्गु नदी कहलाती हैं। कुछ | 'नेरंजरा' (बुद्ध गया के पास प्रवाहित होने वाली वर्तमान [[नीलांजना नदी|नीलाजन]]) नदी बुद्ध गया के कुछ ऊपर चलकर मोहना नदी में मिलती है और दोनों मिलकर फल्गु नदी कहलाती हैं। कुछ विद्वान् नेरंजरा को ही फल्गु मानते हैं। भगवान ने इस जगह [[उरुवेला]] में 6 वर्ष तप किया, उसके बाद में कई बार विहार किया था। संयुत्त निकाय के कई सुत्तों में नेरंजरा के तट पर भगवान ने जो उपदेश दिए उनका वर्णन है। यहाँ का [[जल]], [[मिट्टी]] अत्यन्त ही पवित्र मानी गई है, क्योंकि भगवान के चरणों ने इसे स्पर्श कर पावन बनाया।<ref>बु.भा.भू., पृ. 135, 218</ref> | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
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फल्गु नदी छोटा नागपुर पठार के उत्तरी भाग से निकलती है। यह नदी झारखण्ड राज्य की एक प्रमुख नदी है। अनेक छोटी-छोटी सरिताओं के मिलने से इस नदी की मुख्य धारा का निर्माण होता है। मुख्य धारा का नाम 'निरंजना' या 'लिलाजन' है। बोध गया के पास मोहना नामक सहायक नदी से मिलकर यह विशाल रूप धारण कर लेती है। गया के निकट इसकी चौड़ाई सर्वाधिक होती है।
- प्रसिद्ध नदी तीर्थ
पितृपक्ष के समय देश के विभिन्न भागों से लोग फल्गु नदी में स्नान के लिए आते हैं और पिण्डदान करते हैं। आचार्य बुद्धघोष के अनुसार प्राचीन समय में गया एक घाट (तित्थ) और गाँव दोनों था। प्रतिवर्ष 'फग्गुण' (फाल्गुन) मास में कृष्णपक्ष में गया के फग्गुणी घाट पर मेला जुड़ता था। इस मेले में सेनक थेर (श्रेणिक स्थविर) को भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। बोध गया से छह-सात मील की दूरी पर फल्गु नदी है। भगवान यहाँ विचरण कर चुके थे।
- विद्वान् मान्यता
'नेरंजरा' (बुद्ध गया के पास प्रवाहित होने वाली वर्तमान नीलाजन) नदी बुद्ध गया के कुछ ऊपर चलकर मोहना नदी में मिलती है और दोनों मिलकर फल्गु नदी कहलाती हैं। कुछ विद्वान् नेरंजरा को ही फल्गु मानते हैं। भगवान ने इस जगह उरुवेला में 6 वर्ष तप किया, उसके बाद में कई बार विहार किया था। संयुत्त निकाय के कई सुत्तों में नेरंजरा के तट पर भगवान ने जो उपदेश दिए उनका वर्णन है। यहाँ का जल, मिट्टी अत्यन्त ही पवित्र मानी गई है, क्योंकि भगवान के चरणों ने इसे स्पर्श कर पावन बनाया।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बु.भा.भू., पृ. 135, 218