माला सिन्हा: Difference between revisions
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हिंदी सिनेमा में ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां हुई हैं, जिन्हें परदे पर देखकर आम महिला दर्शक अपनी निजी ज़िंदगी से जोडने लगें और सिर्फ इसी वजह से उन्हें पारिवारिक और सामाजिक फ़िल्मों में लगातार काम मिलता रहे। माला सिन्हा की गिनती ऐसी ही अदाकाराओं में की जा सकती है। जब माला सिन्हा हिंदी फ़िल्मों में काम करने मुंबई आईं, तब [[नर्गिस]], [[मीना कुमारी]], [[मधुबाला]] और नूतन जैसी अभिनेत्रियों का दबदबा था। इसी दौरान [[वैजयंती माला]] और [[वहीदा रहमान]] भी फ़िल्मों में कदम रख चुकी थीं। लेकिन बात जब पारिवारिक फ़िल्मों की चलती थी, तो माला सिन्हा का नाम ही सबसे पहले आता था। फ़िल्मकारों का मानना था कि उन्हें परदे पर देखकर महिलाएं अपने आंसू नहीं रोक पाती हैं। माला सिन्हा की इसी खूबी ने उन्हें उन निर्देशकों का प्रिय बना दिया, जो आंसू और कहकहों के बीच फैमिली ड्रामा चित्रित करने में माहिर थे। हालांकि माला सिन्हा में हर तरह की भूमिका निभाने की क्षमता थी। यही वजह है कि उस वक्त के हर डायरेक्टर ने उनके साथ काम किया। केदार शर्मा, [[बिमल राय]], [[सोहराब मोदी]], [[बी. आर. चोपड़ा]], [[यश चोपड़ा]], अरविंद सेन, [[रामानंद सागर]], शक्ति सामंत, [[गुरुदत्त]], विजय भट्ट, [[ऋषिकेश मुखर्जी]], सुबोध मुखर्जी और सत्येन बोस जैसे फ़िल्मकारों ने माला सिन्हा को अपनी फ़िल्मों की | हिंदी सिनेमा में ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां हुई हैं, जिन्हें परदे पर देखकर आम महिला दर्शक अपनी निजी ज़िंदगी से जोडने लगें और सिर्फ इसी वजह से उन्हें पारिवारिक और सामाजिक फ़िल्मों में लगातार काम मिलता रहे। माला सिन्हा की गिनती ऐसी ही अदाकाराओं में की जा सकती है। जब माला सिन्हा हिंदी फ़िल्मों में काम करने मुंबई आईं, तब [[नर्गिस]], [[मीना कुमारी]], [[मधुबाला]] और नूतन जैसी अभिनेत्रियों का दबदबा था। इसी दौरान [[वैजयंती माला]] और [[वहीदा रहमान]] भी फ़िल्मों में कदम रख चुकी थीं। लेकिन बात जब पारिवारिक फ़िल्मों की चलती थी, तो माला सिन्हा का नाम ही सबसे पहले आता था। फ़िल्मकारों का मानना था कि उन्हें परदे पर देखकर महिलाएं अपने आंसू नहीं रोक पाती हैं। माला सिन्हा की इसी खूबी ने उन्हें उन निर्देशकों का प्रिय बना दिया, जो आंसू और कहकहों के बीच फैमिली ड्रामा चित्रित करने में माहिर थे। हालांकि माला सिन्हा में हर तरह की भूमिका निभाने की क्षमता थी। यही वजह है कि उस वक्त के हर डायरेक्टर ने उनके साथ काम किया। केदार शर्मा, [[बिमल राय]], [[सोहराब मोदी]], [[बी. आर. चोपड़ा]], [[यश चोपड़ा]], अरविंद सेन, [[रामानंद सागर]], शक्ति सामंत, [[गुरुदत्त]], विजय भट्ट, [[ऋषिकेश मुखर्जी]], सुबोध मुखर्जी और सत्येन बोस जैसे फ़िल्मकारों ने माला सिन्हा को अपनी फ़िल्मों की हिरोइन बनाया।<ref name="दैनिक ट्रिब्यून">{{cite web |url=http://dainiktribuneonline.com/2012/07/%E0%A4%9A%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A5%8B-%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%BE-%E0%A4%B2%E0%A4%97%E0%A5%87/|title=चेहरा जो अपना-सा लगे |accessmonthday=4 नवम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=दैनिक ट्रिब्यून |language=हिन्दी }} </ref> | ||
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माला सिन्हा की पहली फ़िल्म 1954 में आई थी और 1985 तक वह लगातार काम करती रहीं। 1985 में “दिल तुझको दिया” निपटाने के बाद माला को लगा कि बढ़ती उम्र और ग्लैमर के अभाव में उनका जमाना सिमट गया है। माँ और दीदी जैसे कैरेक्टर रोल में वे आना नहीं चाहती थीं। इसलिए ऐसे प्रस्ताव न मानकर उन्होंने फ़िल्मों से छुट्टी ले ली। 1991 में [[राकेश रोशन]] उन्हें “खेल” में फिर से कैमरे के सामने लाने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने दो फ़िल्में “राधा का संगम” (1992) और “जिद” (1994) कीं, उसके बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया।<ref name="JJ"/> | माला सिन्हा की पहली फ़िल्म 1954 में आई थी और 1985 तक वह लगातार काम करती रहीं। 1985 में “दिल तुझको दिया” निपटाने के बाद माला को लगा कि बढ़ती उम्र और ग्लैमर के अभाव में उनका जमाना सिमट गया है। माँ और दीदी जैसे कैरेक्टर रोल में वे आना नहीं चाहती थीं। इसलिए ऐसे प्रस्ताव न मानकर उन्होंने फ़िल्मों से छुट्टी ले ली। 1991 में [[राकेश रोशन]] उन्हें “खेल” में फिर से कैमरे के सामने लाने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने दो फ़िल्में “राधा का संगम” (1992) और “जिद” (1994) कीं, उसके बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया।<ref name="JJ"/> |
Latest revision as of 05:20, 4 February 2021
माला सिन्हा
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पूरा नाम | माला सिन्हा |
जन्म | 11 नवम्बर, 1936 |
जन्म भूमि | नेपाल |
पति/पत्नी | चिदंबर प्रसाद लोहानी |
संतान | प्रतिभा सिन्हा |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | अभिनेत्री |
मुख्य फ़िल्में | प्यासा, धर्मपुत्र, अनपढ़, गुमराह, धूल का फूल, हिमालय की गोद में, दिल तेरा दीवाना आदि |
नागरिकता | भारतीय |
अद्यतन | 19:04, 4 नवम्बर 2012 (IST)
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माला सिन्हा (अंग्रेज़ी:Mala Sinha, जन्म: 11 नवम्बर, 1936) बॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। माला सिन्हा ने फ़िल्मों में लंबा सफर तय किया और अपनी अलग पहचान बनाई। वे बांग्ला फ़िल्मों से हिंदी फ़िल्मों में आई थीं। 'बादशाह' से हिंदी फ़िल्मों में प्रवेश करने वाली माला सिन्हा ने एक सौ से कुछ ज्यादा फ़िल्में कीं।
जीवन परिचय
11 नवंबर, 1936 को जन्मी माला सिन्हा के पिता बंगाली और माँ नेपाली थी। उनके बचपन का नाम “आल्डा” था। स्कूल में बच्चे उन्हें “डालडा” कहकर चिढ़ाते थे जिसकी वजह से उनकी माँ ने उनका नाम बदलकर “माला” रख दिया। उन्हें बचपन से ही गायिकी और अभिनय का शौक़ था। उन्होंने कभी फ़िल्मों में पार्श्व गायन तो नहीं किया पर स्टेज शो के दौरान उन्होंने कई बार अपनी कला को जनता के सामने रखा।[1]
फ़िल्मी कैरियर
माला सिन्हा ने ऑल इंडिया रेडियो के कोलकाता केंद्र से गायिका के रूप में अपना करियर शुरू किया और जल्दी ही बांग्ला फ़िल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर पहुंच गई। उन्होंने बंगाली फ़िल्म “जय वैष्णो देवी” में बतौर बाल कलाकार काम किया। उनकी बांग्ला फ़िल्मों में “लौह कपाट” को अच्छी ख्याति मिली। जब माला सिन्हा हिंदी फ़िल्मों में काम करने मुंबई आईं तब रुपहले पर्दे पर नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी प्रतिभाएं अपने जलवे बिखेर रही थीं। माला के लगभग साथ-साथ वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी आ गईं। इन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बेहद कठिन काम था। इसे माला का कमाल ही कहना होगा कि वे पूरी तरह से कामयाब रहीं।
पहली फ़िल्म
फ़िल्म “बादशाह” के जरिए माला सिन्हा हिंदी फ़िल्म के दर्शकों के सामने आईं। शुरू में कई फ़िल्में फ्लॉप हुईं। फ़िल्मी पंडितों ने उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाए. कुछ यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि यह गोरखा जैसे चेहरे-मोहरे वाली युवती ग्लैमर की इस दुनिया में नहीं चल पाएगी। इन फब्तियों की परवाह न कर माला सिन्हा ने अपने परिश्रम, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने लिए विशेष जगह बनाई।[1]
'प्यासा' ने बदली किस्मत
1957 में आई प्यासा फ़िल्म ने माला सिन्हा की किस्मत बदल दी। इस फ़िल्म में उनकी अदाकारी को आज भी लोग याद करते हैं। इसके बाद तो जैसे समय ही बदल गया। फ़िल्म 'जहांआरा' में माला सिन्हा ने शाहजहां की बेटी जहांआरा का किरदार ख़ूबसूरती से निभाया। फ़िल्म मर्यादा में उन्होंने दोहरी भूमिका की थी।
प्रसिद्ध फ़िल्में
thumb|250px|माला सिन्हा 60 के दशक में तो उन्होंने कई हिट फ़िल्में दीं। उनकी यादगार फ़िल्मों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-
- प्यासा (1957)
- फिर सुबह होगी (1958)
- उजाला (1959)
- धर्मपुत्र (1961)
- अनपढ़ (1962)
- आँखेंं (1968)
- गीत (1970)
- गुमराह (1963)
- गहरा दाग़ (1963)
- जहांआरा (1964)
- अपने हुए पराये (1966)
- संजोग (1971)
- नई रोशनी (1967)
- मेरे हुज़ूर (1969)
- देवर भाभी (1958)
- हरियाली और रास्ता (1962)
- हिमालय की गोद में (1965)
- धूल का फूल (1959)
- दिल तेरा दीवाना (1962)
पारिवारिक फ़िल्मों की नायिका
हिंदी सिनेमा में ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां हुई हैं, जिन्हें परदे पर देखकर आम महिला दर्शक अपनी निजी ज़िंदगी से जोडने लगें और सिर्फ इसी वजह से उन्हें पारिवारिक और सामाजिक फ़िल्मों में लगातार काम मिलता रहे। माला सिन्हा की गिनती ऐसी ही अदाकाराओं में की जा सकती है। जब माला सिन्हा हिंदी फ़िल्मों में काम करने मुंबई आईं, तब नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी अभिनेत्रियों का दबदबा था। इसी दौरान वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी फ़िल्मों में कदम रख चुकी थीं। लेकिन बात जब पारिवारिक फ़िल्मों की चलती थी, तो माला सिन्हा का नाम ही सबसे पहले आता था। फ़िल्मकारों का मानना था कि उन्हें परदे पर देखकर महिलाएं अपने आंसू नहीं रोक पाती हैं। माला सिन्हा की इसी खूबी ने उन्हें उन निर्देशकों का प्रिय बना दिया, जो आंसू और कहकहों के बीच फैमिली ड्रामा चित्रित करने में माहिर थे। हालांकि माला सिन्हा में हर तरह की भूमिका निभाने की क्षमता थी। यही वजह है कि उस वक्त के हर डायरेक्टर ने उनके साथ काम किया। केदार शर्मा, बिमल राय, सोहराब मोदी, बी. आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा, अरविंद सेन, रामानंद सागर, शक्ति सामंत, गुरुदत्त, विजय भट्ट, ऋषिकेश मुखर्जी, सुबोध मुखर्जी और सत्येन बोस जैसे फ़िल्मकारों ने माला सिन्हा को अपनी फ़िल्मों की हिरोइन बनाया।[2]
फ़िल्मों को कहा अलविदा
माला सिन्हा की पहली फ़िल्म 1954 में आई थी और 1985 तक वह लगातार काम करती रहीं। 1985 में “दिल तुझको दिया” निपटाने के बाद माला को लगा कि बढ़ती उम्र और ग्लैमर के अभाव में उनका जमाना सिमट गया है। माँ और दीदी जैसे कैरेक्टर रोल में वे आना नहीं चाहती थीं। इसलिए ऐसे प्रस्ताव न मानकर उन्होंने फ़िल्मों से छुट्टी ले ली। 1991 में राकेश रोशन उन्हें “खेल” में फिर से कैमरे के सामने लाने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने दो फ़िल्में “राधा का संगम” (1992) और “जिद” (1994) कीं, उसके बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया।[1]
निजी जीवन
वर्ष 1966 में माला सिन्हा को नेपाली फ़िल्म ‘माटिघर’ में काम करने का मौका मिला। इसी दौरान उनकी मुलाकात फ़िल्म के अभिनेता चिदंबर प्रसाद लोहानी से हुई जो इस फ़िल्म के नायक थे। फ़िल्म में काम करने के दौरान माला सिन्हा को उनसे प्रेम हो गया और 16 मार्च 1968 के दिन दोनों ने शादी कर ली। फ़िल्मों में अभिनय जारी रखने की शर्त पर शादी तीन रीति-रिवाजों के जरिए पूरी हुई। लीगल सिविल मैरिज, क्रिश्चियन पद्धति से चर्च में शादी और नेपाली तौर-तरीकों से, क्योंकि माला की माँ नेपाली थीं। माला कितनी ही बड़ी अभिनेत्री क्यों न बन गई थीं, मगर अपने पिता से हमेशा डरती थीं। घर आते ही सादगी से रहती थीं। उनकी माँ उन्हें घरेलू लड़की ही मानती थीं, जो स्टार-स्टेटस घर के बाहर छोड़ आती थी। रसोईघर में जाकर खाना बनाना और फिर प्रेम से मेहमानों को खिलाना माला के शौक़ रहे हैं। माला सिन्हा इन दिनों मुम्बई में ही रहती हैं। उनकी बेटी प्रतिभा सिन्हा ने भी फ़िल्मों में अपना रास्ता तलाशने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलत नहीं मिली। अपनी बेटी की फ़िल्मों की विफलता ने माला सिन्हा को भी निराश कर दिया और उन्होंने इंडस्ट्री के लोगों से दूरी बना ली।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 माला सिन्हा : सुन्दरता और लगन का मेल (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 4 नवम्बर, 2012।
- ↑ 2.0 2.1 चेहरा जो अपना-सा लगे (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) दैनिक ट्रिब्यून। अभिगमन तिथि: 4 नवम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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