सती प्रथा: Difference between revisions
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Revision as of 09:43, 25 March 2015
सती प्रथा
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विवरण | सती प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को मृत पति की चिता पर ज़िंदा ही जला दिया जाता था। |
पहला साक्ष्य | सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ई. एरण अभिलेख में मिलता है। |
प्रथा का अंत | 1829 ई. के 17वें नियम के अनुसार विधवाओं को जीवित ज़िन्दा जलाना अपराध घोषित कर दिया। पहले यह नियम बंगाल प्रेसीडेंसी में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बम्बई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया। |
संबंधित लेख | अग्नि परीक्षा, दहेज प्रथा, नाता प्रथा, पर्दा प्रथा |
अन्य जानकारी | राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए भी प्रयत्न किया। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। |
सती प्रथा (अंग्रेज़ी: Sati or Suttee) भारत में प्राचीन हिन्दू समाज की एक घिनौनी एवं ग़लत प्रथा है। इस प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को मृत पति की चिता पर ज़िंदा ही जला दिया जाता था। 'सती' (सती, सत्य शब्द का स्त्रीलिंग रूप है) हिंदुओं के कुछ समुदायों की एक प्रथा थी, जिसमें हाल में ही विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय स्वंय भी उसकी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी। इस शब्द को देवी सती (जिसे दक्षायनी के नाम से भी जाना जाता है) से लिया गया है। देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सह सकने करने के कारण यज्ञ की अग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी। यह शब्द सती अब कभी-कभी एक पवित्र औरत की व्याख्या करने में प्रयुक्त होता है। यह प्राचीन हिन्दू समाज की एक घिनौनी एवं ग़लत प्रथा है।
प्राचीन काल में सती प्रथा
भारतीय (मुख्यतः हिन्दू) समाज में सती प्रथा का उद्भव यद्यपि प्राचीन काल से माना जाता है, परन्तु इसका भीषण रूप आधुनिक काल में भी देखने को मिलता है। सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ई. एरण अभिलेख में मिलता है।
सती प्रथा हटाने को आन्दोलन
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए भी प्रयत्न किया। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। इसका विरोध इतना अधिक था कि एक अवसर पर तो उनका जीवन ही खतरे में था। वे अपने शत्रुओं के हमले से कभी नहीं घबराये। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लार्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके। जब कट्टर लोगों ने इंग्लैंड में 'प्रिवी कॉउन्सिल' में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने भी अपने प्रगतिशील मित्रों और साथी कार्यकर्ताओं की ओर से ब्रिटिश संसद के सम्मुख अपना विरोधी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्हें प्रसन्नता हुई जब प्रिवी कॉउन्सिल ने सती प्रथा के समर्थकों के प्रार्थना पत्र को अस्वीकृत कर दिया। सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गये। [[चित्र:Raja-Rammohana-Roy-2.jpg|राजा राममोहन राय|left|thumb]]
सती प्रथा का अंत
15वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक सिकन्दर ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया था। बाद में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्बुकर्क ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया। भारत में अकबर (मुग़ल सम्राट) व पेशवाओं के अलावा कम्पनी के कुछ गर्वनर जनरलों जैसे लार्ड कार्नवालिस एवं लार्ड हैस्टिंग्स ने इस दिशा में कुछ प्रयत्न किये, परन्तु इस क्रूर प्रथा को क़ानूनी रूप से बन्द करने का श्रेय लार्ड विलियम बैंटिक को जाता है। राजा राममोहन राय ने बैंटिक के इस कार्य में सहयोग किया। राजा राममोहन राय ने अपने पत्र ‘संवाद कौमुदी’ के माध्यम से इस प्रथा का व्यापक विरोध किया। राधाकान्त देव तथा महाराजा बालकृष्ण बहादुर ने राजा राममोहन राय की नीतियों का विरोध किया। 1829 ई. के 17वें नियम के अनुसार विधवाओं को जीवित ज़िन्दा जलाना अपराध घोषित कर दिया। पहले यह नियम बंगाल प्रेसीडेंसी में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बम्बई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- sati pratha Nepal (यू-ट्यूब)
- Relics of sati ; widow burning in india (यू-ट्यूब)
- सती प्रथा का उन्मूलन
- सती प्रथा मुग़लों की देन
संबंधित लेख