सत्संग: Difference between revisions

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'''सत्संग''' अर्थात सत का संग, जहां ‘सत्’ का अर्थ है परम सत्य अर्थात [[ईश्वर]], तथा संग का अर्थ है साधकों अथवा [[संत|संतों]] का सान्निध्य। संक्षेप में, सत्संग से तात्पर्य है [[ईश्वर]] के अस्तित्त्व को अनुभव करने के लिए अनुकूल परिस्थिति। सत्संग का [[हिन्दू धर्म]] में बहुत अधिक महत्त्व है।
'''सत्संग''' अर्थात सत का संग, जहां ‘सत्’ का अर्थ है परम सत्य अर्थात [[ईश्वर]], तथा संग का अर्थ है साधकों अथवा [[संत|संतों]] का सान्निध्य। संक्षेप में, सत्संग से तात्पर्य है [[ईश्वर]] के अस्तित्त्व को अनुभव करने के लिए अनुकूल परिस्थिति। सत्संग का [[हिन्दू धर्म]] में बहुत अधिक महत्त्व है।<ref>{{cite web |url=http://www.spiritualresearchfoundation.org/hi/what-is-satsang|title=सत्संग का अर्थ|accessmonthday=5 मार्च|accessyear=2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=spiritualresearchfoundation|language=हिन्दी}}</ref>
==साधना==
==साधना==
ईश्वर का नाम जपना आरंभ करने के उपरांत [[साधना]] का यह अगला चरण है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम नामजप करना छोड़ दें। इसे नामजप के साथ करना चाहिए। नियमित रूप से समविचारी व्यक्तियों के साथ रहने से  सहायता ही होती है। सत्संग में सहभागी होने के कई लाभ हैं। सत्संग में हम अध्यात्म शास्त्र के विषय में प्रश्‍न पूछ सकते हैं, जिससे हमारी शंकाआें का समाधान होता है। साधना तथा उसके सिद्धांतों के विषय में कोई शंकाएं हों तो उनका निराकरण किए बिना हम मन लगाकर साधना नहीं कर पाएंगे।
ईश्वर का नाम जपना आरंभ करने के उपरांत [[साधना]] का यह अगला चरण है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम नामजप करना छोड़ दें। इसे नामजप के साथ करना चाहिए। नियमित रूप से समविचारी व्यक्तियों के साथ रहने से  सहायता ही होती है। सत्संग में सहभागी होने के कई लाभ हैं। सत्संग में हम अध्यात्म शास्त्र के विषय में प्रश्‍न पूछ सकते हैं, जिससे हमारी शंकाआें का समाधान होता है। साधना तथा उसके सिद्धांतों के विषय में कोई शंकाएं हों तो उनका निराकरण किए बिना हम मन लगाकर साधना नहीं कर पाएंगे।
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<blockquote><poem>बिनु सत्संग विवेक न होई, रामु कृपा बिन सुलभ न सोई</poem></blockquote>
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सभी [[शास्त्र|शास्त्रों]] में विवेक को ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया गया है। विवेक प्राप्त होता है, सत्संग से और सत्संग के लिये चाहिए, अकारण करूणा वरुणालय की कृपा। यह अहैतु की कृपा बरस तो सब पर रही है, पर इसका अनुभव वह ही कर पाता है जिसने अपने घट को मोह, मद, मत्सर आदि विकारों से, ख़ाली कर लिया है। जितना जितना घट ख़ाली होता जायेगा, उतना उतना ही कृपा का अनुभव प्रगाढ़ होता जायेगा। अहंकार के विगलन के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगी, को अहम् ? से सो अहम् की यात्रा।  
सभी [[शास्त्र|शास्त्रों]] में विवेक को ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया गया है। विवेक प्राप्त होता है, सत्संग से और सत्संग के लिये चाहिए, अकारण करूणा वरुणालय की कृपा। यह अहैतु की कृपा बरस तो सब पर रही है, पर इसका अनुभव वह ही कर पाता है जिसने अपने घट को मोह, मद, मत्सर आदि विकारों से, ख़ाली कर लिया है। जितना जितना घट ख़ाली होता जायेगा, उतना उतना ही कृपा का अनुभव प्रगाढ़ होता जायेगा। अहंकार के विगलन के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगी, को अहम् ? से सो अहम् की यात्रा।  
जीव, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि विकारों से अपने को ख़ाली कैसे करे ? शास्त्रों ने इसके लिए, बहुत सारे उपाय बताए हैं। महर्षि पतांजलि ने इसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ सोपानों में विभक्त करते हुए, क्रमश:आगे बढ़ने की बात कही गयी है ।
जीव, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि विकारों से अपने को ख़ाली कैसे करे ? शास्त्रों ने इसके लिए, बहुत सारे उपाय बताए हैं। महर्षि पतांजलि ने इसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ सोपानों में विभक्त करते हुए, क्रमश:आगे बढ़ने की बात कही गयी है।<ref>{{cite web |url=http://rsmishrabanda.blogspot.in/2015/04/blog-post_3.html|title=सर्वे भवन्तु सुखिनः|accessmonthday=5 मार्च|accessyear=2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=rsmishrabanda|language=हिन्दी}}</ref>
==कर्मयोग का सिद्धान्त==  
==कर्मयोग का सिद्धान्त==  
<blockquote><poem>करमनयेवाधिकारसते मा फलेषु कदाचिन्,मा करम फल हेतुर भूरमा ते संगोंतस्व करमणि</poem></blockquote>
<blockquote><poem>करमनयेवाधिकारसते मा फलेषु कदाचिन्,मा करम फल हेतुर भूरमा ते संगोंतस्व करमणि</poem></blockquote>

Revision as of 07:48, 5 March 2016

सत्संग अर्थात सत का संग, जहां ‘सत्’ का अर्थ है परम सत्य अर्थात ईश्वर, तथा संग का अर्थ है साधकों अथवा संतों का सान्निध्य। संक्षेप में, सत्संग से तात्पर्य है ईश्वर के अस्तित्त्व को अनुभव करने के लिए अनुकूल परिस्थिति। सत्संग का हिन्दू धर्म में बहुत अधिक महत्त्व है।[1]

साधना

ईश्वर का नाम जपना आरंभ करने के उपरांत साधना का यह अगला चरण है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम नामजप करना छोड़ दें। इसे नामजप के साथ करना चाहिए। नियमित रूप से समविचारी व्यक्तियों के साथ रहने से सहायता ही होती है। सत्संग में सहभागी होने के कई लाभ हैं। सत्संग में हम अध्यात्म शास्त्र के विषय में प्रश्‍न पूछ सकते हैं, जिससे हमारी शंकाआें का समाधान होता है। साधना तथा उसके सिद्धांतों के विषय में कोई शंकाएं हों तो उनका निराकरण किए बिना हम मन लगाकर साधना नहीं कर पाएंगे।

आध्यात्मिक अनुभूति

सत्संग में हम एक-दूसरे को अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियां बता सकते हैं तथा अनुभूतियों की आधारभूत आध्यात्मिक कारण मीमांसा से समझ सकते हैं। इससे किसी दूसरे की श्रद्धा से प्रेरित होकर हमें अपने पथ पर दृढ़ रह पाते हैं । सूक्ष्म स्तर पर व्यक्ति को चैतन्य का लाभ प्राप्त होता है । सत्संग से प्राप्त अधिक सात्त्विकता साधना में सहायक होती है। हमारे आस-पास के राजसी एवं तामसी घटकों के आध्यात्मिक प्रदूषण के कारण ईश्‍वर तथा साधना के विषय में विचार करना भी कठिन हो जाता है। तथापि जब हम पूरे दिन नामजप करने वाले लोगों के समूह में होते हैं, तब इसके ठीक विपरीत होता है ! उनसे प्रक्षेपित सात्त्विक किरणों से अथवा चैतन्य से हमें लाभ होता है।

बिनु सत्संग विवेक न होई, रामु कृपा बिन सुलभ न सोई

सभी शास्त्रों में विवेक को ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया गया है। विवेक प्राप्त होता है, सत्संग से और सत्संग के लिये चाहिए, अकारण करूणा वरुणालय की कृपा। यह अहैतु की कृपा बरस तो सब पर रही है, पर इसका अनुभव वह ही कर पाता है जिसने अपने घट को मोह, मद, मत्सर आदि विकारों से, ख़ाली कर लिया है। जितना जितना घट ख़ाली होता जायेगा, उतना उतना ही कृपा का अनुभव प्रगाढ़ होता जायेगा। अहंकार के विगलन के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगी, को अहम् ? से सो अहम् की यात्रा। जीव, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि विकारों से अपने को ख़ाली कैसे करे ? शास्त्रों ने इसके लिए, बहुत सारे उपाय बताए हैं। महर्षि पतांजलि ने इसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ सोपानों में विभक्त करते हुए, क्रमश:आगे बढ़ने की बात कही गयी है।[2]

कर्मयोग का सिद्धान्त

करमनयेवाधिकारसते मा फलेषु कदाचिन्,मा करम फल हेतुर भूरमा ते संगोंतस्व करमणि

इस श्लोक के द्वारा निष्काम कर्मों, कर्मयोग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। सरव धर्माणि परित्यजय, मामेकं शरणं व्रज। अहं तवाम् सर्व पापेभयो मोक्षषियामि मा शुच:" के द्वारा भक्ति योग का प्रतिपादन किया गया है। जप, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान, धार्मिक अनुष्ठान, नाम, रूप, लीला, धाम आदि भी विकारों से मुक्त होने के साधन बताए गये हैं। इनमें से किसी भी एक का आश्रय लेकर, जीव अपनी यात्रा सफलता पूर्वक, पूर्ण कर सकता है। पर मुझे लगता है कि जीव मानस की इस पंक्ति को यदि अपने जीवन में उतार ले तो भी जीव अपने जीवन की सार्थकता प्राप्त कर सकता है ।

परिहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई

यह पंक्ति सुनने में जितनी सरल लगती है, उतनी है नहीं, ये जीवन में उतारने पर पता चलता है कि यह कितनी सरल है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्संग का अर्थ (हिन्दी) spiritualresearchfoundation। अभिगमन तिथि: 5 मार्च, 2016।
  2. सर्वे भवन्तु सुखिनः (हिन्दी) rsmishrabanda। अभिगमन तिथि: 5 मार्च, 2016।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख