नित नव सोचु सती उर भारा: Difference between revisions
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मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥ | मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥ | ||
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Latest revision as of 14:00, 2 June 2017
नित नव सोचु सती उर भारा
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
भाषा | अवधी भाषा |
शैली | सोरठा, चौपाई, छंद और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | बालकाण्ड |
नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दु:ख सागर पारा॥ |
- भावार्थ-
सती के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख-समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो रघुनाथ का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना - ।
left|30px|link=सती बसहिं कैलास तब|पीछे जाएँ | नित नव सोचु सती उर भारा | right|30px|link=सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा|आगे जाएँ |
चौपाई- मात्रिक सम छन्द का भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के 16 मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में चौपाई छन्द का बहुत अच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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