जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "करनेवाली" to "करने वाली") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "अर्थात " to "अर्थात् ") |
||
Line 39: | Line 39: | ||
{{poemclose}} | {{poemclose}} | ||
;भावार्थ- | ;भावार्थ- | ||
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप - [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]], शिवरूप - बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के | जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप - [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]], शिवरूप - बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करनेवाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करनेवाले, मुनियों के मन को आनंद देनेवाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाली हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं। | ||
{{लेख क्रम4| पिछला=जय जय अबिनासी सब |मुख्य शीर्षक=रामचरितमानस |अगला=सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा}} | {{लेख क्रम4| पिछला=जय जय अबिनासी सब |मुख्य शीर्षक=रामचरितमानस |अगला=सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा}} |
Latest revision as of 07:47, 7 November 2017
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध
| |
कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
भाषा | अवधी भाषा |
शैली | सोरठा, चौपाई, छंद और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | बालकाण्ड |
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। |
- भावार्थ-
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप - ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप - बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करनेवाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करनेवाले, मुनियों के मन को आनंद देनेवाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाली हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं।
left|30px|link=जय जय अबिनासी सब|पीछे जाएँ | जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध | right|30px|link=सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा|आगे जाएँ |
छन्द- शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्याय से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख