गुणस्थान: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''गुणस्थान''' (संस्कृत शब्द,अर्थात 'गुण का स्तर'), [[जैन ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "अर्थात " to "अर्थात् ") |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''गुणस्थान''' ([[संस्कृत]] शब्द, | '''गुणस्थान''' ([[संस्कृत]] शब्द,अर्थात् 'गुण का स्तर'), [[जैन धर्म]] में आध्यात्मिक विकास के 14 चरण में से एक, जिनसे [[आत्मा]] मोक्ष के अपने मार्ग पर गुज़रती है। इस प्रगति को क्रमश: घटते हुए पाप और बढ़ती हुई शुद्धता के रूप में देखा जाता है, जो व्यक्ति को कर्म (पाप और पुण्य) के बंधनों, [[पुनर्जन्म]] के चक्र से मुक्त करता है।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2|लेखक=इंदु रामचंदानी|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=90|url=}}</ref> | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
Latest revision as of 07:48, 7 November 2017
गुणस्थान (संस्कृत शब्द,अर्थात् 'गुण का स्तर'), जैन धर्म में आध्यात्मिक विकास के 14 चरण में से एक, जिनसे आत्मा मोक्ष के अपने मार्ग पर गुज़रती है। इस प्रगति को क्रमश: घटते हुए पाप और बढ़ती हुई शुद्धता के रूप में देखा जाता है, जो व्यक्ति को कर्म (पाप और पुण्य) के बंधनों, पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त करता है।[1]
मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम 'गुणस्थान' है। परिणाम यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक की अनन्तों वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए उनको 14 श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे 14 गुणस्थान कहलाते हैं। साधक अपने अन्तरंग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामों को चढ़ाता है, जिसके कारण कर्मों व संस्कारों का उपशम, क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ, अन्त में जाकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, वही उसका मोक्ष है।[2]
विकास के चरण
विकास के आरंभिक चरण इस प्रकार हैं-
- 'मिथ्या-त्व', शाब्दिक अर्थ 'भ्रमित होने की स्थिति'
- 'सस्वादन' या सत्य का स्वाद चखना
- 'मिश्र' या मन के उचित और अनुचित रूख
- 'अविरत-त्व' यानी परित्याग[3] बिना सम्यकता[4]
- 'देस-विरति', सांसारिकता से अंशत: वैराग्य
- 'प्रमत विरति', कुछ कमियों के साथ वैराग्य
- 'अप्रमत विरति', पूर्ण वैराग्य
अगले सात चरणों में इच्छुक व्यक्ति पवित्र जीवन में प्रवेश करता है-
- 8. 'अ-पूर्व-करण', उसकी खोज, जिसका अनुभव नहीं किया गया हो;
- 9. 'अ-निवृति-करण', नहीं लौटने[5] की खोज;
- 10. 'सूक्ष्म-संप्राय', सूक्ष्मता की स्थिति में संक्रमण;
- 11. 'क्षीण-मोह-ता', भ्रम के दूर होने की स्थिति;
- 12. 'अंतर्योपशांति', मुक्ति के मार्ग में सभी बाधाओं की समाप्ति[6]
- 13. 'स-योग-कैवल्य' को मूर्त रूप में ही आत्मिक मुक्ति के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इस स्थिति को प्राप्त कर चुका व्यक्ति उपदेश देता है। भिक्षु समुदाय का अंग बनता है तथा तीर्थंकर (संत) बन जाना है।
- 14. 'अ-योग-कैवल्य' भूर्तिमान शरीर के बिना मुक्ति है। इसमें आत्मा सिद्ध हो जाती है और शरीर को छोड़ कर ब्रह्मांड के शीर्ष पर निवास करने के लिए चली जाती है और पुनर्जन्म के चक्र से हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है। इस अंतिम मुक्ति को 'मोक्ष' कहा जाता है।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 90 |
- ↑ गुणस्थान (हिन्दी) जैनकोश। अभिगमन तिथि: 21 जुलाई, 2014।
- ↑ सांसारिकताओं का
- ↑ अंतर्दृष्टि की
- ↑ पुनर्जन्म के चक्र में
- ↑ अगर कोई व्यक्ति 12वें चरण में मर जाता है, तो उसकी आत्मा अगले दो चरणों से शीघ्र ही गुज़र जाती है और वह पुनर्जन्म के बिना ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।