ललई सिंह यादव: Difference between revisions
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ललई सिंह यादव
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पूरा नाम | ललई सिंह यादव |
जन्म | 1 सितम्बर, 1921 |
जन्म भूमि | कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 7 फ़रवरी, 1993 |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | सामाजिक कार्यकर्ता |
अन्य जानकारी | ललई सिंह यादव ने इतिहास के बहुजन नायकों की खोज की। बौद्ध धर्मानुयायी अशोक उनके आदर्श व्यक्तित्वों में शामिल थे। उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया। |
ललई सिंह यादव (अंग्रेज़ी: Lalai Singh Yadav, जन्म- 1 सितम्बर, 1921, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 7 फ़रवरी, 1993) सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया। द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी, सामाजिक क्रांतिकारी पेरियार ईवी रामासामी नायकर की किताब 'सच्ची रामायण' को पहली बार हिंदी में लाने का श्रेय ललई सिंह यादव को जाता है। उनके द्वारा पेरियार की सच्ची रामायण का हिंदी में अनुवाद करते ही उत्तर भारत में तूफान उठ खड़ा हुआ था। 1968 में ही ललई सिंह यादव ने ‘द रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद कराकर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कराया। छपते ही सच्ची रामायण ने वह धूम मचाई कि लोग विरोध में सड़कों पर उतर आए। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने दबाव में आकर 8 दिसम्बर 1969 को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में किताब को जब्त कर लिया। मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में गया।
परिचय
ललई सिंह यादव ने 1928 में उर्दू के साथ हिन्दी से मिडिल पास किया। 1929 से 1931 तक वह फाॅरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में सरदार सिंह यादव की बेटी दुलारी देवी से विवाह हुआ। 1933 में वह सशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना, मध्य प्रदेश में कॉन्स्टेबल पद पर भर्ती हुए। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने पढ़ाई की। 1946 में पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम करके उसके अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने हिन्दी में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। उन्होंने ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई।[1]
विद्रोह
29 मार्च 1947 को ललई सिंह यादव को पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप में धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों के साथ राज-बन्दी बनाया गया। 6 नवम्बर 1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 साल सश्रम कारावास और पाँच रुपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड ग्वालियर नेशनल आर्मी के अध्यक्ष हाई कमाण्डर होने के कारण दी। 12 जनवरी 1948 को सिविल साथियों के साथ वह बाहर आए।
क़ानूनी लड़ाई
द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी, सामाजिक क्रांतिकारी पेरियार ईवी रामासामी नायकर की किताब 'सच्ची रामायण' को पहली बार हिंदी में लाने का श्रेय ललई सिंह यादव को जाता है। सन 1968 में ललई सिंह ने ‘द रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद करा कर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कराया। छपते ही हिन्दू धर्म रक्षक उसके विरोध में सड़कों पर उतर आए। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने दबाव में आकर 8 दिसम्बर 1969 को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में किताब को जब्त कर लिया। मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में गया।[1]
राज्य सरकार के वक़ील ने कोर्ट में कहा यह पुस्तक राज्य की विशाल हिंदू जनसंख्या की पवित्र भावनाओं पर प्रहार करती है और इस पुस्तक के लेखक ने बहुत ही खुली भाषा में महान अवतार श्रीराम और सीता एवं जनक जैसे दैवी चरित्रों पर कलंक मढ़ा है, जिसकी हिंदू पूजा करते हैं। इसलिए इस किताब पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है। ललई सिंह यादव के एडवोकेट बनवारी लाल यादव ने ‘सच्ची रामायण’ के पक्ष में जबर्दस्त पैरवी की। 19 जनवरी 1971 को कोर्ट ने जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी जब्तशुदा पुस्तकें वापस करे और अपीलकर्ता ललई सिंह को तीन सौ रुपए मुकदमे का खर्च दे।
इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुनवाई तीन जजों की पीठ ने की, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने की और इसके दो अन्य जज थे पीएन भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली। सुप्रीम कोर्ट में ‘उत्तर प्रदेश बनाम ललई सिंह यादव’ नाम से इस मामले पर फ़ैसला 16 सितम्बर 1976 को आया। फ़ैसला पुस्तक के प्रकाशक के पक्ष में रहा। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना और राज्य सरकार की अपील को ख़ारिज कर दिया।
बन गये बौद्ध
इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सच्ची रामायण के पक्ष में मुकदमा जीतने के बाद पेरियार ललई सिंह यादव दलित-पिछड़ों के नायक बन गए। ललई सिंह यादव ने 1967 में हिन्दू धर्म का त्याग करके बौद्ध धर्म अपना लिया। बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उन्होंने अपने नाम से यादव शब्द हटा दिया। यादव शब्द हटाने के पीछे उनकी गहरी जाति विरोधी चेतना काम कर रही थी। वे जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष कर रहे थे।
लेखन कार्य
पेरियार ललई सिंह यादव ने इतिहास के बहुजन नायकों की खोज की। बौद्ध धर्मानुयायी अशोक उनके आदर्श व्यक्तित्वों में शामिल थे। उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा था। उन्होंने पांच नाटक लिखे[2]-
- अंगुलीमाल नाटक
- शम्बूक वध
- सन्त माया बलिदान
- एकलव्य
- नाग यज्ञ नाटक
गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं- 'शोषितों पर धार्मिक डकैती', 'शोषितों पर राजनीतिक डकैती', और 'सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो?' ललई सिंह यादव के नाटकों और साहित्य में उनके योगदान के बारे में कंवल भारती लिखते हैं कि यह साहित्य हिन्दी साहित्य के समानान्तर नई वैचारिक क्रान्ति का साहित्य था, जिसने हिन्दू नायकों और हिन्दू संस्कृति पर दलित वर्गों की सोच को बदल दिया था। यह नया विमर्श था, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था।
उत्तर भारत के पेरियार
ललई सिंह यादव को पेरियार की उपाधि पेरियार की जन्मस्थली और कर्मस्थली तमिलनाडु में मिली। बाद में वे हिंदी पट्टी में 'उत्तर भारत के पेरियार' के रूप में प्रसिद्ध हुए। वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे, पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, जो ब्रिटिश हुकूमत में जुर्म था, वह दो साल बाद बर्खास्त कर दिए गए। उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए। 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने। इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिसकर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े।[2]
जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर ऑफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी। ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था। लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया। ‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी। यदि वह प्रकाशित हुई होती तो उसकी तुलना आज महात्मा ज्योतिबा फूले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 Periyar Lalai Singh Yadav (हिंदी) bspindia.org। अभिगमन तिथि: 01 सितम्बर, 2021।
- ↑ 2.0 2.1 सच्ची रामायण छापने वाले ललई यादव क्यों बन गये बौद्ध? (हिंदी) hindi.theprint.in। अभिगमन तिथि: 01 सितम्बर, 2021।
बाहरी कड़ियाँ
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