कृष्णवट

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कृष्णवट भारत के कुछ भागों में पाये जाने वाले एक विशेष प्रकार के बरगद के वृक्ष को कहा जाता है। इसके पत्ते मुड़े हुए होते हैं। ये देखने में दोने के आकार के होते हैं। कृष्णवट के पत्तों में दूध, दही, मक्खन आदि खाद्य पदार्थों का आसानी से सेवन किया जा सकता है।

पौराणिक मान्यता

इस वृक्ष के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि भगवान कृष्ण बाल्यावस्था से ही गायों को चराने के लिए वन में जाया करते थे। जब गाय चर रही होती थीं, तब कृष्ण किसी वृक्ष पर बैठकर मधुर बांसुरी बजाया करते थे। बाँसुरी की आवाज सुनते ही गोपियाँ सभी कार्य छोड़ कर उनके पास दौड़ी चली आती थीं। वे अपने साथ दही-मक्खन आदि भी ले आती थीं। कृष्ण जिस स्थान पर बैठकर बांसुरी बजाया करते थे, उसके पास ही बरगद का एक पेड़ था। वह बरगद के पत्ते तोड़ते और दोने बनाते और दही-मख्खन आदि रखकर गोपियों के साथ खाते।

कृष्ण को बरगद के पत्तों से दोने बनाने में बहुत समय लगता था और गोपियाँ भी बेचैनी अनुभव करने लगती थीं। कृष्ण गोपियों के मन की बात सच समझ गये। उन्होंने तुरंत ही अपनी माया से वृक्ष के सभी पत्तों को दोनों के आकार वाले पत्तों में बदल दिया। इस प्रकार बरगद की एक नई प्रजाति का जन्म हुआ।

प्राप्ति स्थान

वर्तमान समय में भी दोने के आकार के पत्तों वाले बरगद के वृक्ष पाये जाते हैं। इनका आकार सामान्य बरगद से कुछ छोटा होता है। पश्चिम बंगाल में कृष्णवट कहीं-कहीं देखने को मिल जाता है। उत्तराखंड में देहरादून स्थित 'भारतीय वन्यजीव संस्थान' में भी कृष्णवट के कुछ वृक्ष हैं।

शोध कार्य

कृष्णवट पर कुछ विदेशी वनस्पति शास्त्रियों ने शोध भी किया है। 1901 में कैंडोल ने इसका अध्ययन करने के बाद इसे सामान्य बरगद से अलग एक विशिष्ट जाति का वृक्ष माना और इसे कृष्ण के नाम पर वैज्ञानिक नाम दिया- 'फ़ाइकस कृष्णीसी द कंदोल', किंतु विख्यात भारतीय वैज्ञानिक के. विश्वास इसका विरोध करते हैं। उनका मत है कि कृष्णवट एक अलग जाति का वृक्ष नहीं है। यह बरगद की ही एक प्रजाति है।



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