दक्ष

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प्रजापति दक्ष

  • भगवान ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से प्रजापति दक्ष की उत्पत्ति हुई।
  • कल्पान्तर में वही प्रचेता के पुत्र हुए।
  • सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे।
  • उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी को पत्नी बनाया।
  • सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
  • दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।'
  • भगवान ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए। उन्होंने अपनी पत्नी से 53 कन्याएँ उत्पन्न कीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान शंकर को ब्याही गयीं।
  • महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं।

अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन

दक्ष प्रजापति ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। भगवान शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। उस यज्ञ में दधीचि मुनि भी उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि शिव के अतिरिक्त सभी देवता वहाँ विद्यमान है।, अत: उन्होंने दक्ष का ध्यान इस ओर केंद्रित किया। दक्ष ने उपेक्षा भाव से कहा- हाथों में त्रिशूल और मस्तक पर जटाजूट धारण करनेवाले ग्यारह रूद्र हमारे यहाँ रहते हैं। उनके अलावा किसी महादेव को मैं नहीं जानता। दधीचि को लगा, सब देवताओं ने मिलकर शिव को न बुलाने की मंत्रणा की है। उन्होंने कहा- मैं भावी संहार की आंशका से त्रस्त हूं- बड़ों की अवमानना का फल यही होता है। किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। कैलास पर्वत पर पार्वती ने भी शिव को ध्यान दिलाया- सब देवता यज्ञ में सम्मिलित हो रहे हैं? शिव ने क्रुद्ध होकर अपने मुंह से वीरभद्र नामक भयंकर प्राणी की सृष्टि की तथा उसे दक्ष का यज्ञ नष्ट करने के लिए कहा। भवानी के क्रोध से प्रकट महाकाली महेश्वरी भी यज्ञ नष्ट करने के लिए गयी। समस्त अतिथि, देवता, दास इत्यादि भयभीत होने लगे। देवताओं ने वीरभद्र के आने का निमित्त पूछा। वीरभद्र ने पार्वती के रोष के कारण यज्ञ नष्ट करने का अपना निश्चय बताया तो दक्ष ने शिव की आराधना प्रारंभ की। वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया। दक्ष ने एक हजार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हजार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।


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