दीनबंधु रघुपति कर किंकर: Difference between revisions
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मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्रवतजल पुलकित गाता॥5॥ | मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्रवतजल पुलकित गाता॥5॥ | ||
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Latest revision as of 14:02, 2 June 2017
दीनबंधु रघुपति कर किंकर
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
शैली | सोरठा, चौपाई, छन्द और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | उत्तरकाण्ड |
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥ |
- भावार्थ
मैं दीनों के बंधु श्री रघुनाथजी का दास हूँ। यह सुनते ही भरत जी उठकर आदरपूर्वक हनुमान जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया॥5॥
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चौपाई- मात्रिक सम छन्द का भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के 16 मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में चौपाई छन्द का बहुत अच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख