युगल शतक: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''युगल शतक''' श्रीभट्ट द्वारा रचित '[[निम्बार्क सम्प्...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ") |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 2: | Line 2: | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
==रचना काल== | ==रचना काल== | ||
'युगल शतक' के रचना काल के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। [[निम्बार्क सम्प्रदाय]] के अनुसार यह [[ग्रंथ]] [[संवत]] 1352 में लिखा गया था, किंतु अन्य | 'युगल शतक' के रचना काल के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। [[निम्बार्क सम्प्रदाय]] के अनुसार यह [[ग्रंथ]] [[संवत]] 1352 में लिखा गया था, किंतु अन्य विद्वान् इसे संवत 1642 की रचना मानते हैं। इस विवाद का कारण 'युगल शतक' के अन्त में दिया हुआ [[दोहा]] है। दोहे में 'नयन वान पुनिराग शशि' को लेकर विवाद है। राम पाठ मानने से 1352 और राग पाठ मानने से 1652 संवत बनता है। कुछ विद्वान् इस दोहे को भी प्रक्षिप्त ठहराते हैं, किंतु [[भाषा]] आदि के आधार पर यह रचना संवत 1652 (1595 ई.) की ही प्रतीत होती है। | ||
====विभाजन==== | ====विभाजन==== | ||
इस [[ग्रंथ]] का विभाजन 'सुख' शीर्षक से किया गया है। कुल 6 प्रकार के सुखों का वर्णन है- | इस [[ग्रंथ]] का विभाजन 'सुख' शीर्षक से किया गया है। कुल 6 प्रकार के सुखों का वर्णन है- | ||
Line 12: | Line 12: | ||
#उत्साह सुख | #उत्साह सुख | ||
==निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति== | ==निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति== | ||
इस कृति के अध्ययन से निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति का तात्त्विक पक्ष सामने आता है। [[श्रीभट्ट]] की यह वाणी उनके आभ्यंतर [[रस]] का द्योतन करने वाली है। [[वृन्दावन]] के [[वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव सम्प्रदायों]] में युगल मूर्ति की उपासना का विशेष विधान है। श्रीभट्ट जी ने इसी युगल मूर्ति [[राधा]]-[[कृष्ण]] की दैनिक लीलाओं का सरल एवं ललित पदावली में वर्णन किया है। वर्णन में चित्रात्मकता है। जिन सुन्दर दृश्यों की अवधारणा [[कवि]] ने | इस कृति के अध्ययन से निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति का तात्त्विक पक्ष सामने आता है। [[श्रीभट्ट]] की यह वाणी उनके आभ्यंतर [[रस]] का द्योतन करने वाली है। [[वृन्दावन]] के [[वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव सम्प्रदायों]] में युगल मूर्ति की उपासना का विशेष विधान है। श्रीभट्ट जी ने इसी युगल मूर्ति [[राधा]]-[[कृष्ण]] की दैनिक लीलाओं का सरल एवं ललित पदावली में वर्णन किया है। वर्णन में चित्रात्मकता है। जिन सुन्दर दृश्यों की अवधारणा [[कवि]] ने दोहों में की है, वह इतनी सर्वोंगपूर्ण एवं सटीक है कि पाठक के [[नेत्र|नेत्रों]] के सामने वही दृश्य खड़ा हो जाता है। बिम्ब-विधान की दृष्टि से भी यह रचना बहुत सुन्दर है। | ||
==भाषा== | ==भाषा== | ||
[[भाषा]] की दृष्टि से इस रचना में पूर्ण प्रासादिकता है। वाक्यावली लघु, | [[भाषा]] की दृष्टि से इस रचना में पूर्ण प्रासादिकता है। वाक्यावली लघु, [[अनुप्रास अलंकार]] युक्त और ललित है। 'युगल शतक' की भाषा को देखकर यह स्पष्ट लक्षित होता है कि [[ब्रजभाषा]] का पूर्ण परिष्कार और प्रसार हो जाने के बाद यह [[काव्य]] लिखा गया होगा। प्रवाह और प्रांजलता की दृष्टि से इसके दोहे [[सूरदास]] से ही अधिक परिष्कृत हैं। साथ ही यह भी विदित होता है कि जिस [[भक्त]] [[कवि]] की यह रचना है, उसने और भी बहुत-से पद ब्रजभाषा में अवश्य लिखे होंगे। यह कृति पहली नहीं मालूम होती। दोहे के नीचे भाव विशदीकरण के पदों में गेयता की मात्रा उत्कृष्ट कोटि की है। कहते हैं श्रीभट्ट जी इन पदों के गान के समय आत्मविभोर हो जाते थे और उन क्षणों में उन्हें भगवान के युगल रूप के प्रत्यक्ष दर्शन हो जाते थे। | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
Latest revision as of 14:34, 6 July 2017
युगल शतक श्रीभट्ट द्वारा रचित 'निम्बार्क सम्प्रदाय' के आचार्यों में ब्रजभाषा की प्रथम रचना है। निम्बार्क सम्प्रदाय में यह 'आदिवाणी' के नाम से भी विख्यात है। वाणी के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें शतक अर्थात् सौ दोहे हैं। दोहों के अर्थ के विशदीकरण के लिए विभिन्न रागों में ग्रथित उतने ही पद हैं।
रचना काल
'युगल शतक' के रचना काल के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुसार यह ग्रंथ संवत 1352 में लिखा गया था, किंतु अन्य विद्वान् इसे संवत 1642 की रचना मानते हैं। इस विवाद का कारण 'युगल शतक' के अन्त में दिया हुआ दोहा है। दोहे में 'नयन वान पुनिराग शशि' को लेकर विवाद है। राम पाठ मानने से 1352 और राग पाठ मानने से 1652 संवत बनता है। कुछ विद्वान् इस दोहे को भी प्रक्षिप्त ठहराते हैं, किंतु भाषा आदि के आधार पर यह रचना संवत 1652 (1595 ई.) की ही प्रतीत होती है।
विभाजन
इस ग्रंथ का विभाजन 'सुख' शीर्षक से किया गया है। कुल 6 प्रकार के सुखों का वर्णन है-
- सिद्धांत सुख
- ब्रजलीला सुख
- सेवासुख
- सहज सुख
- सुरत सुख
- उत्साह सुख
निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति
इस कृति के अध्ययन से निम्बार्कीय सिद्धांत तथा उपासना पद्धति का तात्त्विक पक्ष सामने आता है। श्रीभट्ट की यह वाणी उनके आभ्यंतर रस का द्योतन करने वाली है। वृन्दावन के वैष्णव सम्प्रदायों में युगल मूर्ति की उपासना का विशेष विधान है। श्रीभट्ट जी ने इसी युगल मूर्ति राधा-कृष्ण की दैनिक लीलाओं का सरल एवं ललित पदावली में वर्णन किया है। वर्णन में चित्रात्मकता है। जिन सुन्दर दृश्यों की अवधारणा कवि ने दोहों में की है, वह इतनी सर्वोंगपूर्ण एवं सटीक है कि पाठक के नेत्रों के सामने वही दृश्य खड़ा हो जाता है। बिम्ब-विधान की दृष्टि से भी यह रचना बहुत सुन्दर है।
भाषा
भाषा की दृष्टि से इस रचना में पूर्ण प्रासादिकता है। वाक्यावली लघु, अनुप्रास अलंकार युक्त और ललित है। 'युगल शतक' की भाषा को देखकर यह स्पष्ट लक्षित होता है कि ब्रजभाषा का पूर्ण परिष्कार और प्रसार हो जाने के बाद यह काव्य लिखा गया होगा। प्रवाह और प्रांजलता की दृष्टि से इसके दोहे सूरदास से ही अधिक परिष्कृत हैं। साथ ही यह भी विदित होता है कि जिस भक्त कवि की यह रचना है, उसने और भी बहुत-से पद ब्रजभाषा में अवश्य लिखे होंगे। यह कृति पहली नहीं मालूम होती। दोहे के नीचे भाव विशदीकरण के पदों में गेयता की मात्रा उत्कृष्ट कोटि की है। कहते हैं श्रीभट्ट जी इन पदों के गान के समय आत्मविभोर हो जाते थे और उन क्षणों में उन्हें भगवान के युगल रूप के प्रत्यक्ष दर्शन हो जाते थे।
|
|
|
|
|