विद्यारण्य: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - " महान " to " महान् ") |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''विद्यारण्य''' चौदहवीं शताब्दी में [[दक्षिण भारत]] के | '''विद्यारण्य''' चौदहवीं शताब्दी में [[दक्षिण भारत]] के महान् धार्मिक और राजनीतिक नेता थे। इनके बचपन का नाम 'माधव' था। अपनी बाल्यावस्था के बाद जब विद्यारण्य ने होश संभाला तो इन्होंने देखा कि देश पर विदेशियों के आक्रमण लगातार हो रहे हैं, और ऐसी स्थिति में भी भारतीय राजा अपने आपसी कलह और युद्धों में उलझे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि विद्यारण्य के संरक्षण में ही संगम पुत्रों ने [[विजयनगर साम्राज्य]] की स्थापना की। इनके प्रयासों से ही दक्षिण में [[भारतीय संस्कृति]] पुनर्जीवित हुई और विजयनगर के राज्य का विस्तार हुआ। | ||
==शिक्षा== | ==शिक्षा== | ||
विद्यारण्य का घर का नाम 'माधव' था। उनके [[पिता]] का नाम मायण था, जिनके सायण और भोगनाथ नाम के दो अन्य पुत्र और थे। माधव ने आरम्भिक शिक्षा अपने [[पिता]] से प्राप्त की। उसके बाद विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकंठ को उन्होंने अपना गुरु बनाया। विद्यातीर्थ [[श्रृंगेरी|श्रृंगेरी मठ]] के स्वामी थे और भारतीतीर्थ [[वेदान्त]] के उपदेशक। | विद्यारण्य का घर का नाम 'माधव' था। उनके [[पिता]] का नाम मायण था, जिनके सायण और भोगनाथ नाम के दो अन्य पुत्र और थे। माधव ने आरम्भिक शिक्षा अपने [[पिता]] से प्राप्त की। उसके बाद विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकंठ को उन्होंने अपना गुरु बनाया। विद्यातीर्थ [[श्रृंगेरी|श्रृंगेरी मठ]] के स्वामी थे और भारतीतीर्थ [[वेदान्त]] के उपदेशक। | ||
Line 7: | Line 7: | ||
माधव ने देखा कि राज्यों पर विदेशी अधिकार का लोगों के धार्मिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। लोग [[चिदम्बरम]] के [[तीर्थ]] को छोड़कर भाग गए थे। मंदिर या तो गिर गए या गिरा दिये गए। उनके मंडपों और गर्भगृहों में घास उग आई। [[हिन्दू]] राज्य में जन्मे और [[भारतीय संस्कृति]] में दीक्षित माधव का [[हृदय]] इस स्थिति को देखकर उद्वेलित हो उठा। मान्यता है कि 'माधव' या माधवाचार्य के संरक्षण में ही 1336 ई. में संगमराज के पुत्रों ने [[विजयनगर साम्राज्य|विजयनगर]] राज्य की स्थापना की। माधव के छोटे भाई सायण विद्वान और अच्छे सेनापति थे। इन दोनों भाइयों की सहायता से दक्षिण में भारतीय संस्कृति पुनर्जीवित हुई और विजयनगर के राज्य का विस्तार हुआ। | माधव ने देखा कि राज्यों पर विदेशी अधिकार का लोगों के धार्मिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। लोग [[चिदम्बरम]] के [[तीर्थ]] को छोड़कर भाग गए थे। मंदिर या तो गिर गए या गिरा दिये गए। उनके मंडपों और गर्भगृहों में घास उग आई। [[हिन्दू]] राज्य में जन्मे और [[भारतीय संस्कृति]] में दीक्षित माधव का [[हृदय]] इस स्थिति को देखकर उद्वेलित हो उठा। मान्यता है कि 'माधव' या माधवाचार्य के संरक्षण में ही 1336 ई. में संगमराज के पुत्रों ने [[विजयनगर साम्राज्य|विजयनगर]] राज्य की स्थापना की। माधव के छोटे भाई सायण विद्वान और अच्छे सेनापति थे। इन दोनों भाइयों की सहायता से दक्षिण में भारतीय संस्कृति पुनर्जीवित हुई और विजयनगर के राज्य का विस्तार हुआ। | ||
====रचनाएँ==== | ====रचनाएँ==== | ||
1377 ई. के लगभग माधव ने | 1377 ई. के लगभग माधव ने सन्न्यास ले लिया। इस समय वे 'विद्यारण्य' के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अनेक [[ग्रन्थ|ग्रन्थों]] की रचना भी की। उनके ग्रन्थ 'पराशरमाधवीय' का '[[मनुस्मृति]]' के समान ही सम्मान है। उनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- 'जीवन मुक्ति विवेकपंचदशी' और 'जैमिनीय न्यायमाला'। | ||
==विचार== | ==विचार== | ||
विद्यारण्य यह मानते थे कि परमब्रह्म के सिवा कहीं भी कोई वस्तु नहीं है और [[आत्मा]] उससे भिन्न है। विद्यारण्य के प्रयत्नों से ही दक्षिण में भारतीय संस्कृति बच गई और [[संस्कृत साहित्य]] तथा [[दर्शन]] को नया वातावरण मिला। | विद्यारण्य यह मानते थे कि परमब्रह्म के सिवा कहीं भी कोई वस्तु नहीं है और [[आत्मा]] उससे भिन्न है। विद्यारण्य के प्रयत्नों से ही दक्षिण में भारतीय संस्कृति बच गई और [[संस्कृत साहित्य]] तथा [[दर्शन]] को नया वातावरण मिला। |
Latest revision as of 11:02, 1 August 2017
विद्यारण्य चौदहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के महान् धार्मिक और राजनीतिक नेता थे। इनके बचपन का नाम 'माधव' था। अपनी बाल्यावस्था के बाद जब विद्यारण्य ने होश संभाला तो इन्होंने देखा कि देश पर विदेशियों के आक्रमण लगातार हो रहे हैं, और ऐसी स्थिति में भी भारतीय राजा अपने आपसी कलह और युद्धों में उलझे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि विद्यारण्य के संरक्षण में ही संगम पुत्रों ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। इनके प्रयासों से ही दक्षिण में भारतीय संस्कृति पुनर्जीवित हुई और विजयनगर के राज्य का विस्तार हुआ।
शिक्षा
विद्यारण्य का घर का नाम 'माधव' था। उनके पिता का नाम मायण था, जिनके सायण और भोगनाथ नाम के दो अन्य पुत्र और थे। माधव ने आरम्भिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। उसके बाद विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकंठ को उन्होंने अपना गुरु बनाया। विद्यातीर्थ श्रृंगेरी मठ के स्वामी थे और भारतीतीर्थ वेदान्त के उपदेशक।
तत्कालीन परिस्थितियाँ
माधव ने जिस समय होश सम्भाला, देश राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ी कठिन परिस्थितियों में पड़ा हुआ था। 712 ई. में सिंध पर अरबों के अधिकार के बाद विदेशी आक्रमण होते रहे, जो देश को नुकसान पहुँचा रहे थे और उसे खोखला कर रहे थे, किंतु इस स्थिति में भी भारत के राजाओं ने पारस्परिक कलह और युद्धों में फंसे रहने के कारण इन विदेशी आक्रांताओं का मिलकर सामना नहीं किया। इसके फलस्वरूप धीरे-धीरे उत्तर भारत पर मुस्लिम शासकों का अधिकार हो गया। दक्षिण भारत की भी यही दशा हुई। राजा इस भ्रम में पड़े रहे कि विंध्य और सतपुड़ा की पहाड़ियों तथा घने वनों के कारण वे विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित हैं। वे आपस में अपनी श्रेष्टता के लिए लड़ते रहे और विदेशी आक्रमकों ने उन पर अधिकार कर लिया।
विजयनगर की स्थापना
माधव ने देखा कि राज्यों पर विदेशी अधिकार का लोगों के धार्मिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। लोग चिदम्बरम के तीर्थ को छोड़कर भाग गए थे। मंदिर या तो गिर गए या गिरा दिये गए। उनके मंडपों और गर्भगृहों में घास उग आई। हिन्दू राज्य में जन्मे और भारतीय संस्कृति में दीक्षित माधव का हृदय इस स्थिति को देखकर उद्वेलित हो उठा। मान्यता है कि 'माधव' या माधवाचार्य के संरक्षण में ही 1336 ई. में संगमराज के पुत्रों ने विजयनगर राज्य की स्थापना की। माधव के छोटे भाई सायण विद्वान और अच्छे सेनापति थे। इन दोनों भाइयों की सहायता से दक्षिण में भारतीय संस्कृति पुनर्जीवित हुई और विजयनगर के राज्य का विस्तार हुआ।
रचनाएँ
1377 ई. के लगभग माधव ने सन्न्यास ले लिया। इस समय वे 'विद्यारण्य' के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना भी की। उनके ग्रन्थ 'पराशरमाधवीय' का 'मनुस्मृति' के समान ही सम्मान है। उनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- 'जीवन मुक्ति विवेकपंचदशी' और 'जैमिनीय न्यायमाला'।
विचार
विद्यारण्य यह मानते थे कि परमब्रह्म के सिवा कहीं भी कोई वस्तु नहीं है और आत्मा उससे भिन्न है। विद्यारण्य के प्रयत्नों से ही दक्षिण में भारतीय संस्कृति बच गई और संस्कृत साहित्य तथा दर्शन को नया वातावरण मिला।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 792 |
संबंधित लेख