कुरुक्षेत्र -रामधारी सिंह दिनकर: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "सन्न्यासी" to "संन्यासी") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "ईष्या" to "ईर्ष्या") |
||
Line 35: | Line 35: | ||
मनुष्य का धर्म है, कर्म करते रहना। इसी की व्याख्या दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में करते हैं। शत्रुपक्ष में सगे-संबंधियों को देखकर [[अर्जुन]] मोह में पड़ जाता है। वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। तब शत्रु शत्रु होता है, फिर वह गुरु हो, भाई हो अथवा और कोई। उसके विरुद्ध हथियार उठाना हमारा आद्य कर्तव्य है। इस प्रकार का उपदेश भगवान [[श्रीकृष्ण]] ने अर्जुन को दिया। कर्म पहले। कर्म पर भावनाओं को हावी होने नहीं देना है। यही बात [[भीष्म]] समझा देते हैं [[युधिष्ठिर]] को। 'कुरुक्षेत्र' का युधिष्ठिर '[[गीता]]' का अर्जुन है। दोनों में अंतर यह है कि अर्जुन की यह स्थिति युद्ध के पहले हो गई थी, जबकि युधिष्ठिर की युद्ध के पश्चात। दिनकर जी ने ‘कुरुक्षेत्र’ के अंतर्गत कई सवाल उठाए हैं, भीष्म और युधिष्ठिर का आलंबन लेकर। उनके भीष्म और युधिष्ठिर [[महाभारत]] के भीष्म और युधिष्ठिर नहीं हैं। कारण महाभारत के प्रसंग को दोहराना उनका उद्देश्य नहीं है। बल्कि भारतीय जनमानस में प्राण फूंक कर उसे ब्रिटिशों के विरोध में खड़ा करना था। इस संदर्भ में सुनीति का कथन दृष्टव्य है, ‘भारतीय जनमानस अर्जुन की तरह व्यामोह में फंसा हुआ था। वह कर्तव्यविमूढ़ होकर एक भीषण रक्तपात की काल्पनिक स्थिति से बचने के उद्देश्य से भारत माता के विभाजन को भी अंगीकृत करना चाहता था। ऐसे समय दिनकर की वाणी से ‘कुरुक्षेत्र’ की जो गीता प्रस्फुटित हुई है, भले ही उसका प्रभाव तत्कालीन समाज पर इतनी तीव्रता से न पड़ा हो, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत आज दिनकर की कुरुक्षेत्रीय भावना शासन व जनता दोनों को समान रूप से पथ-प्रदर्शन करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।’<ref name="aa"/> | मनुष्य का धर्म है, कर्म करते रहना। इसी की व्याख्या दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में करते हैं। शत्रुपक्ष में सगे-संबंधियों को देखकर [[अर्जुन]] मोह में पड़ जाता है। वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। तब शत्रु शत्रु होता है, फिर वह गुरु हो, भाई हो अथवा और कोई। उसके विरुद्ध हथियार उठाना हमारा आद्य कर्तव्य है। इस प्रकार का उपदेश भगवान [[श्रीकृष्ण]] ने अर्जुन को दिया। कर्म पहले। कर्म पर भावनाओं को हावी होने नहीं देना है। यही बात [[भीष्म]] समझा देते हैं [[युधिष्ठिर]] को। 'कुरुक्षेत्र' का युधिष्ठिर '[[गीता]]' का अर्जुन है। दोनों में अंतर यह है कि अर्जुन की यह स्थिति युद्ध के पहले हो गई थी, जबकि युधिष्ठिर की युद्ध के पश्चात। दिनकर जी ने ‘कुरुक्षेत्र’ के अंतर्गत कई सवाल उठाए हैं, भीष्म और युधिष्ठिर का आलंबन लेकर। उनके भीष्म और युधिष्ठिर [[महाभारत]] के भीष्म और युधिष्ठिर नहीं हैं। कारण महाभारत के प्रसंग को दोहराना उनका उद्देश्य नहीं है। बल्कि भारतीय जनमानस में प्राण फूंक कर उसे ब्रिटिशों के विरोध में खड़ा करना था। इस संदर्भ में सुनीति का कथन दृष्टव्य है, ‘भारतीय जनमानस अर्जुन की तरह व्यामोह में फंसा हुआ था। वह कर्तव्यविमूढ़ होकर एक भीषण रक्तपात की काल्पनिक स्थिति से बचने के उद्देश्य से भारत माता के विभाजन को भी अंगीकृत करना चाहता था। ऐसे समय दिनकर की वाणी से ‘कुरुक्षेत्र’ की जो गीता प्रस्फुटित हुई है, भले ही उसका प्रभाव तत्कालीन समाज पर इतनी तीव्रता से न पड़ा हो, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत आज दिनकर की कुरुक्षेत्रीय भावना शासन व जनता दोनों को समान रूप से पथ-प्रदर्शन करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।’<ref name="aa"/> | ||
यह धरती संन्यासी कर्मविमुखी लोगों के कारण जीवित नहीं है। बल्कि निरंतर कर्म करते हुए, खून-पसीना एक करते हुए मर मिटने वाले लोगों के कारण जीवित है। प्रकृति भी उद्यमी मनुष्य के ही सामने झुकती है। इसीलिए [[रामधारी सिंह दिनकर]] विराग, सन्न्यास, अकर्मण्यता, भोग, निवृत्ति का विरोध करते दिखते हैं। समस्त धरती को उलट-पुलट देने का अडिग आत्मविश्वास उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर व्यक्त हुआ है। सामाजिक कुरीतियों, रुग्ण मान्यताओं पर उन्होंने तीव्र प्रहार किए है। डॉ. रमा रानी सिंह के मतानुसार, समाज की कुव्यवस्था से उन्हें घृणा तो है तथा उसके प्रति | यह धरती संन्यासी कर्मविमुखी लोगों के कारण जीवित नहीं है। बल्कि निरंतर कर्म करते हुए, खून-पसीना एक करते हुए मर मिटने वाले लोगों के कारण जीवित है। प्रकृति भी उद्यमी मनुष्य के ही सामने झुकती है। इसीलिए [[रामधारी सिंह दिनकर]] विराग, सन्न्यास, अकर्मण्यता, भोग, निवृत्ति का विरोध करते दिखते हैं। समस्त धरती को उलट-पुलट देने का अडिग आत्मविश्वास उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर व्यक्त हुआ है। सामाजिक कुरीतियों, रुग्ण मान्यताओं पर उन्होंने तीव्र प्रहार किए है। डॉ. रमा रानी सिंह के मतानुसार, समाज की कुव्यवस्था से उन्हें घृणा तो है तथा उसके प्रति ईर्ष्या भी है, लेकिन इस व्यवस्था से वह भयभीत नहीं, क्योंकि उनका व्यक्ति कर्मनिष्ठ है। कर्म के आधार पर ही वह इस व्यवस्था को दूर करने के प्रतिपक्षी हैं। समस्त ‘कुरुक्षेत्र’ उनके इसी आत्मविश्वास और कर्मनिष्ठता का प्रतिपादन करता है।<ref>डॉ. रमा रानी सिंह, दिनकर साहित्य में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, पृ.79</ref> कर्मवाद एवं प्रवृत्ति की प्रधानता ‘कुरुक्षेत्र’ में दृष्टिगोचर होती है। भीष्म निवृत्ति तथा वैराग्य का खंडन करते हैं। समष्टि के सुख के लिए कार्यरत रहना ही सही अर्थों में मोक्षदान है। अपनी सामर्थ्य और बुद्धि के आधार पर दूसरों का जीवन प्रकाशमय बनाना मनुष्य धर्म है। केवल अपने बारे में सोचना, जीना पशु का लक्षण है। मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों के काम आए। धरती पर फैले अंधकार को मिटा दे। यही मनुष्य का धर्म है। | ||
<blockquote><poem>‘दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ | <blockquote><poem>‘दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ | ||
श्रेय नहीं जीवन का, | श्रेय नहीं जीवन का, |
Latest revision as of 13:35, 7 April 2018
कुरुक्षेत्र -रामधारी सिंह दिनकर
| ||
कवि | रामधारी सिंह दिनकर | |
मूल शीर्षक | कुरुक्षेत्र | |
प्रकाशक | राजपाल प्रकाशन | |
ISBN | 81-7028-186-5 | |
देश | भारत | |
भाषा | हिन्दी | |
प्रकार | काव्य | |
टिप्पणी | 'कुरुक्षेत्र' रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित विचारात्मक काव्य है। इसमें युद्ध से सम्बन्धित कुछ ऐसी बातें हैं, जिन पर सोचते-सोचते यह काव्य पूरा हुआ है। |
कुरुक्षेत्र प्रसिद्ध लेखक, निबन्धकार और कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित विचारात्मक काव्य है, यद्यपि इसकी प्रबन्धात्मकता पर प्रश्न उठाये जा सकते हैं, लेकिन यह मानवतावाद के विस्तृत पटल पर लिखा गया आधुनिक काव्य अवश्य है।[1] युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ है। युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म है, किन्तु उसका दायित्व किस पर होना चाहिए? जो अनीतियों का जाल बिछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है, उस पर? या उस पर, जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर रहता है? दिनकर जी के 'कुरुक्षेत्र' में ऐसी ही कुछ बातें हैं, जिन पर सोचते-सोचते यह काव्य पूरा हो गया है।
कवि के सम्बन्ध में
आत्मविश्वास, कर्मठता, सामयिक प्रश्नों के प्रति जागरुकता, चुनौती भरा आशावादी स्वर, उदात्त सांस्कृतिक दृष्टिकोण, प्रखर राष्ट्राभिमान आदि ऐसे तत्व हैं, जो रामधारी सिंह 'दिनकर' को परंपरावादी कवियों से अलग कर देते हैं। सच्चे अर्थों में वे ‘युगचारण’ तथा ‘जनकवि’ थे। राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना एवं जनजागरण का शंख फूंका है। उनमें निर्भीकता थी, स्पष्टवादिता थी। इसीलिए वे अपनी समस्त रचनाओं में युगीन स्थितियों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्यक्त करते थे। पूंजीवादी शोषण व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा देते थे। वे विदेशी नृशंस शासकों को सिंहासन ख़ाली करने के लिए कहते हैं। उन्हें विश्वास था खुद पर, अपने देश बांधवों पर। वे जानते थे कि एक-न-एक दिन आजादी मिलकर रहेगी और वह भी सामान्य जनता के कारण। इसीलिए विश्वसपूर्वक वे फटकारते हैं-
‘आरती लिए तू किसे ढूँढता है मूरख’
‘सिंहासन ख़ाली करो’ आज के युग संदर्भ में उतनी ही
महत्वपूर्ण है, जितनी उस समय थी।
व्याख्या
मनुष्य का धर्म है, कर्म करते रहना। इसी की व्याख्या दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में करते हैं। शत्रुपक्ष में सगे-संबंधियों को देखकर अर्जुन मोह में पड़ जाता है। वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। तब शत्रु शत्रु होता है, फिर वह गुरु हो, भाई हो अथवा और कोई। उसके विरुद्ध हथियार उठाना हमारा आद्य कर्तव्य है। इस प्रकार का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया। कर्म पहले। कर्म पर भावनाओं को हावी होने नहीं देना है। यही बात भीष्म समझा देते हैं युधिष्ठिर को। 'कुरुक्षेत्र' का युधिष्ठिर 'गीता' का अर्जुन है। दोनों में अंतर यह है कि अर्जुन की यह स्थिति युद्ध के पहले हो गई थी, जबकि युधिष्ठिर की युद्ध के पश्चात। दिनकर जी ने ‘कुरुक्षेत्र’ के अंतर्गत कई सवाल उठाए हैं, भीष्म और युधिष्ठिर का आलंबन लेकर। उनके भीष्म और युधिष्ठिर महाभारत के भीष्म और युधिष्ठिर नहीं हैं। कारण महाभारत के प्रसंग को दोहराना उनका उद्देश्य नहीं है। बल्कि भारतीय जनमानस में प्राण फूंक कर उसे ब्रिटिशों के विरोध में खड़ा करना था। इस संदर्भ में सुनीति का कथन दृष्टव्य है, ‘भारतीय जनमानस अर्जुन की तरह व्यामोह में फंसा हुआ था। वह कर्तव्यविमूढ़ होकर एक भीषण रक्तपात की काल्पनिक स्थिति से बचने के उद्देश्य से भारत माता के विभाजन को भी अंगीकृत करना चाहता था। ऐसे समय दिनकर की वाणी से ‘कुरुक्षेत्र’ की जो गीता प्रस्फुटित हुई है, भले ही उसका प्रभाव तत्कालीन समाज पर इतनी तीव्रता से न पड़ा हो, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत आज दिनकर की कुरुक्षेत्रीय भावना शासन व जनता दोनों को समान रूप से पथ-प्रदर्शन करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।’[1]
यह धरती संन्यासी कर्मविमुखी लोगों के कारण जीवित नहीं है। बल्कि निरंतर कर्म करते हुए, खून-पसीना एक करते हुए मर मिटने वाले लोगों के कारण जीवित है। प्रकृति भी उद्यमी मनुष्य के ही सामने झुकती है। इसीलिए रामधारी सिंह दिनकर विराग, सन्न्यास, अकर्मण्यता, भोग, निवृत्ति का विरोध करते दिखते हैं। समस्त धरती को उलट-पुलट देने का अडिग आत्मविश्वास उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर व्यक्त हुआ है। सामाजिक कुरीतियों, रुग्ण मान्यताओं पर उन्होंने तीव्र प्रहार किए है। डॉ. रमा रानी सिंह के मतानुसार, समाज की कुव्यवस्था से उन्हें घृणा तो है तथा उसके प्रति ईर्ष्या भी है, लेकिन इस व्यवस्था से वह भयभीत नहीं, क्योंकि उनका व्यक्ति कर्मनिष्ठ है। कर्म के आधार पर ही वह इस व्यवस्था को दूर करने के प्रतिपक्षी हैं। समस्त ‘कुरुक्षेत्र’ उनके इसी आत्मविश्वास और कर्मनिष्ठता का प्रतिपादन करता है।[2] कर्मवाद एवं प्रवृत्ति की प्रधानता ‘कुरुक्षेत्र’ में दृष्टिगोचर होती है। भीष्म निवृत्ति तथा वैराग्य का खंडन करते हैं। समष्टि के सुख के लिए कार्यरत रहना ही सही अर्थों में मोक्षदान है। अपनी सामर्थ्य और बुद्धि के आधार पर दूसरों का जीवन प्रकाशमय बनाना मनुष्य धर्म है। केवल अपने बारे में सोचना, जीना पशु का लक्षण है। मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों के काम आए। धरती पर फैले अंधकार को मिटा दे। यही मनुष्य का धर्म है।
‘दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ
श्रेय नहीं जीवन का,
है सद्धर्म दीप्त रख उसको
हरना तिमिर भुवन का।’
भारतीय संस्कृति के उदात्त रूप की तरफ भी कवि हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। हमारी संस्कृति में वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए जिए। कवि कर्मठ मनुष्य गढ़ना चाहते हैं। भाग्य के बजाय वे कर्म में विश्वास करते हैं। उनके मतानुसार भाग्यवाद मनुष्य को निष्काम बना देता है, पलायनवादी बना देता है। भाग्यवाद पाप को छिपाने का आवरण और मनुष्य के शोषण का साधन है, जैसे-
‘भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन
भाग दूसरे जन का।’
कवि के विचार
कवि रामधारी सिंह दिनकर के विचार में भाग्यवाद यानी विशिष्ट लोगों ने अपना पेट भरने के लिए तैयार किया हथियार है। कवि दिनकर भौतिक सुखों में लीन मनुष्य की तीखी आलोचना करते हैं। उन्हें विश्वास है कि केवल कर्म के आधार पर ही इस धरती को हम स्वर्ग बना सकते हैं। कवि समता पर आधारित शोषण विरहित समाज का सपना देखता है। यह तभी संभव होगा, जब सभी तरह की विषमता नष्ट होगी। इसके लिए भाग्यवाद को छोड़कर काम करने की आवश्यकता है। आज मनुष्य जो कुछ भी है, वह केवल कर्म के कारण, भुजबल के कारण। उसके पास प्रज्ञा और सामर्थ्य है। उनका सही दिशा में उपयोग करते हुए दीनों की सहायता करके उनके जीवन से अंधकार को नष्ट कर देना है। यही मनुष्य धर्म है।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 मानव धर्म और कर्म की गाथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 सितम्बर, 2013।
- ↑ डॉ. रमा रानी सिंह, दिनकर साहित्य में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, पृ.79
संबंधित लेख