आदि पुराण: Difference between revisions

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'''आदि पुराण'''
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'''आदि पुराण''' [[जैनधर्म]] का एक प्रख्यात पुराण। [[हरिवंश पुराण]] के रचयिता जिनसेन आदिपुराण के कर्ता से भिन्न तथा बाद के हैं, क्योंकि जिनसेन स्वामी की स्तुति अपने ग्रंथ के मंगलश्लोक में की है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=369 |url=}}</ref>आचार्य जिनसेन (9वीं शती) द्वारा प्रणीत आदि (प्रथम) [[तीर्थंकर]] [[ऋषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभदेव]] तथा उनके सुयोग्य एवं विख्यात पुत्र [[भरत]] एवं [[बाहुबलि]] के पुण्य चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति तथा इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकास क्रम को आलोकित करने वाला अन्यत्र महत्त्वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के जानने के लिये इसका अध्ययन अनिवार्य है। यह पुराण ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से यह [[धर्मशास्त्र]], [[राजनीतिशास्त्र]], सिद्धान्तशास्त्र और आर्षग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादक होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव सभ्यता का विकास-क्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, धर्म विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गई है। [[संस्कृत]] एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिये यह मार्गदर्शक रहा है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुक्तं आर्षे' इन महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिमा वृद्धिगत की है। वास्तव में आदि पुराण [[संस्कृत साहित्य]] का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो। यह युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान् [[इतिहास]] है।  
आचार्य जिनसेन (9वीं शती) द्वारा प्रणीत आदि (प्रथम) [[तीर्थंकर]] [[ऋषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभदेव]] तथा उनके सुयोग्य एवं विख्यात पुत्र भरत एवं [[बाहुबलि]] के पुण्य चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति तथा इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकास क्रम को आलोकित करने वाला अन्यत्र महत्त्वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के जानने के लिये इसका अध्ययन अनिवार्य है। यह पुराण ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र और आर्षग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादक होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव सभ्यता का विकास-क्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, धर्म विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गई है। [[संस्कृत]] एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिये यह मार्गदर्शक रहा है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुक्तं आर्षे' इन महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिमा वृद्धिगत की है। वास्तव में आदि पुराण संस्कृत साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो। यह पुराण है, महाकाव्य है, धर्मशास्त्र है, राजनीतिशास्त्र है, आचार शास्त्र है और युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान् इतिहास है।  
;महापुराण
;महापुराण
आचार्य जिनसेन ने इस ग्रन्थ को 'महापुराण' नाम से रचने का संकल्प किया था। परन्तु असमय में जीवन समाप्त हो जाने से उनका वह संकल्प पूर्ण नहीं हो सका। यह आदिपुराण महापुराण का पूर्व भाग हे। इससे इसका दूसरा नाम 'पूर्वपुराण' भी प्रसिद्ध है। इसकी प्रारम्भ के 42 पर्वों और 43वें पर्व के 3 श्लोकों तक की रचना आयार्य जिनसेन के द्वारा हुई है। उनके द्वारा छोड़ा गया शेषभाग उनके प्रबुद्ध शिष्य आचार्य गुणभद्र के द्वारा रचा गया है, जो 'उत्तर पुराण' नाम से प्रसिद्ध है।  
[[जैनधर्म]] के अनुसार 63 महापुरुष बड़े ही प्रतिभाशाली, धर्मप्रवर्तक तथा चरित्रसंपन्न माने जाते हैं और इसीलिए ये "'शलाकापुरुष'" के नाम से विख्यात हैं। ये 24 [[तीर्थंकर]], 12 [[चक्रवर्ती]], नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव तथा नौ बलदेव (या बलभद्र) हैं। इन शलाकापुरुषों के जीवनप्रतिपादक ग्रंथों को श्वेतांबर लोग 'चरित्र' तथा [[दिगंबर]] लोग '"[[पुराण]]"' कहते हैं। आचार्य जिनसेन ने इन समग्र महापुरुषों की जीवनी काव्यशैली में संस्कृत में लिखने के विचार से इस 'महापुराण' का आरंभ किया, परंतु ग्रंथ की समाप्ति से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। फलत: अवशिष्ट भाग को उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने समाप्त किया जो [[उत्तर पुराण]] नाम से प्रसिद्ध है। ग्रंथ के प्रथम भाग में 48 पर्व और 12 सहस्र श्लोक हैं जिनमें आद्य [[ऋषभनाथ तीर्थंकर|तीर्थकर ऋषभनाथ]] की जीवनी निबद्ध है और इसलिए 'महापुराण' का प्रथमार्ध 'आदिपुराण' तथा उत्तरार्ध उत्तरपुराण के नाम से विख्यात है। आदिपुराण के भी केवल 42 पर्व पूर्ण रूप से तथा 43वें पर्व के केवल तीन श्लोक आचार्य जिनसेन की रचना हैं और अंतिम पर्व (1620 श्लोक) गुणभद्र की कृति है। इस प्रकार आदि पुराण के 10,380 श्लोकों के कर्ता जिनसेन स्वामी हैं। यह आदिपुराण महापुराण का पूर्व भाग है। इससे इसका दूसरा नाम 'पूर्वपुराण' भी प्रसिद्ध है।


'''पुराणकथा और कथानायक'''
'''पुराणकथा और कथानायक'''
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*महापुराण के कथा नायक मुख्यतया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ हैं और सामान्यतया त्रिषष्टिशलाका पुरुष हैं। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण ये 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन है। अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण में है। आचार्य जिनसेन ने जिस रीति से प्रथम तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान् होता।  
*महापुराण के कथा नायक मुख्यतया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ हैं और सामान्यतया त्रिषष्टिशलाका पुरुष हैं। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण ये 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन है। अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण में है। आचार्य जिनसेन ने जिस रीति से प्रथम तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान् होता।  
*भगवान् वृषभदेव इस अवसर्पिणी (अवनति) काल के 24 तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना का प्रारम्भ होने वाला था, उस सन्धि काल में अयोध्या के अन्तिम कुलकर-मनु श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारी थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब बिना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिराज के पास पहुँचे। नाभिराज शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदशा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतक्षेत्र में असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प-इन षट्कर्मों का उपदेश कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया।  
*भगवान् वृषभदेव इस अवसर्पिणी (अवनति) काल के 24 तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना का प्रारम्भ होने वाला था, उस सन्धि काल में अयोध्या के अन्तिम कुलकर-मनु श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारी थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब बिना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिराज के पास पहुँचे। नाभिराज शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदशा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतक्षेत्र में असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प-इन षट्कर्मों का उपदेश कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया।  
*पिता नाभिराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। उन्हें यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि हुई। गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त किया तथा संसार-सागर से पार करने वाला पारमार्थिक (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया। तृतीय काल में जब तीन वर्ष आठ माह और 15 दिन बाकी थे, तब कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।  
*पिता नाभिराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। उन्हें यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि हुई। गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त किया तथा संसार-सागर से पार करने वाला पारमार्थिक (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया।  
*तृतीय काल में जब तीन वर्ष आठ माह और 15 दिन बाकी थे, तब कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। आदिपुराण कवि की अंतिम रचना है। जिनसेन का लगभग श.सं. 770 (=848 ई.) में स्वर्गवास हुआ। राष्ट्रकूट नरेश [[अमोघवर्ष प्रथम|अमोघवर्ष (प्रथम)]] का वह राज्यकाल था। फलत: आदिपुराण की रचना का काल नवीं शताब्दी का मध्य भाग है। यह ग्रंथ काव्य की रोचक शैली में लिखा गया है।<ref>सं.ग्रं.-नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, बंबई 1942; डॉ. विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, द्वतीय खंड, कलकत्ता, 1933। </ref>


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Latest revision as of 09:52, 4 February 2021

आदि पुराण आदि पुराण जैनधर्म का एक प्रख्यात पुराण। हरिवंश पुराण के रचयिता जिनसेन आदिपुराण के कर्ता से भिन्न तथा बाद के हैं, क्योंकि जिनसेन स्वामी की स्तुति अपने ग्रंथ के मंगलश्लोक में की है।[1]आचार्य जिनसेन (9वीं शती) द्वारा प्रणीत आदि (प्रथम) तीर्थंकर ऋषभदेव तथा उनके सुयोग्य एवं विख्यात पुत्र भरत एवं बाहुबलि के पुण्य चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति तथा इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकास क्रम को आलोकित करने वाला अन्यत्र महत्त्वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के जानने के लिये इसका अध्ययन अनिवार्य है। यह पुराण ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र और आर्षग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादक होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव सभ्यता का विकास-क्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, धर्म विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गई है। संस्कृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिये यह मार्गदर्शक रहा है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुक्तं आर्षे' इन महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिमा वृद्धिगत की है। वास्तव में आदि पुराण संस्कृत साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो। यह युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान् इतिहास है।

महापुराण

जैनधर्म के अनुसार 63 महापुरुष बड़े ही प्रतिभाशाली, धर्मप्रवर्तक तथा चरित्रसंपन्न माने जाते हैं और इसीलिए ये "'शलाकापुरुष'" के नाम से विख्यात हैं। ये 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव तथा नौ बलदेव (या बलभद्र) हैं। इन शलाकापुरुषों के जीवनप्रतिपादक ग्रंथों को श्वेतांबर लोग 'चरित्र' तथा दिगंबर लोग '"पुराण"' कहते हैं। आचार्य जिनसेन ने इन समग्र महापुरुषों की जीवनी काव्यशैली में संस्कृत में लिखने के विचार से इस 'महापुराण' का आरंभ किया, परंतु ग्रंथ की समाप्ति से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। फलत: अवशिष्ट भाग को उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने समाप्त किया जो उत्तर पुराण नाम से प्रसिद्ध है। ग्रंथ के प्रथम भाग में 48 पर्व और 12 सहस्र श्लोक हैं जिनमें आद्य तीर्थकर ऋषभनाथ की जीवनी निबद्ध है और इसलिए 'महापुराण' का प्रथमार्ध 'आदिपुराण' तथा उत्तरार्ध उत्तरपुराण के नाम से विख्यात है। आदिपुराण के भी केवल 42 पर्व पूर्ण रूप से तथा 43वें पर्व के केवल तीन श्लोक आचार्य जिनसेन की रचना हैं और अंतिम पर्व (1620 श्लोक) गुणभद्र की कृति है। इस प्रकार आदि पुराण के 10,380 श्लोकों के कर्ता जिनसेन स्वामी हैं। यह आदिपुराण महापुराण का पूर्व भाग है। इससे इसका दूसरा नाम 'पूर्वपुराण' भी प्रसिद्ध है।

पुराणकथा और कथानायक

  • महापुराण के कथा नायक मुख्यतया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ हैं और सामान्यतया त्रिषष्टिशलाका पुरुष हैं। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण ये 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन है। अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण में है। आचार्य जिनसेन ने जिस रीति से प्रथम तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान् होता।
  • भगवान् वृषभदेव इस अवसर्पिणी (अवनति) काल के 24 तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना का प्रारम्भ होने वाला था, उस सन्धि काल में अयोध्या के अन्तिम कुलकर-मनु श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारी थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब बिना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिराज के पास पहुँचे। नाभिराज शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदशा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतक्षेत्र में असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प-इन षट्कर्मों का उपदेश कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया।
  • पिता नाभिराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। उन्हें यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि हुई। गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त किया तथा संसार-सागर से पार करने वाला पारमार्थिक (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया।
  • तृतीय काल में जब तीन वर्ष आठ माह और 15 दिन बाकी थे, तब कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। आदिपुराण कवि की अंतिम रचना है। जिनसेन का लगभग श.सं. 770 (=848 ई.) में स्वर्गवास हुआ। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) का वह राज्यकाल था। फलत: आदिपुराण की रचना का काल नवीं शताब्दी का मध्य भाग है। यह ग्रंथ काव्य की रोचक शैली में लिखा गया है।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 369 |
  2. सं.ग्रं.-नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, बंबई 1942; डॉ. विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, द्वतीय खंड, कलकत्ता, 1933।

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