पउम चरिउ: Difference between revisions
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Latest revision as of 09:46, 10 October 2014
लगभग छठी से बारहवीं शती तक उत्तर भारत में साहित्य और बोलचाल में व्यवहृत प्राकृत की उत्तराधिकारिणी भाषाएँ अपभ्रंश कहलाईँ। अपभ्रंश के प्रबंधात्मक साहित्य के प्रमुख प्रतिनिधि कवि थे- स्वयंभू देव (सत्यभूदेव), जिनका जन्म लगभग साढ़े आठ सौ वर्ष पूर्व बरार प्रांत में हुआ था। स्वयंभू जैन मत के माननेवाले थे। उन्होंने रामकथा पर आधारित पउम चरिउ जैसी बारह हज़ार पदों वाली कृति की रचना की। जैन मत में राजा राम के लिए 'पद्म' शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को 'पद्म चरित' (पउम चरिउ) कहा गया। यह रचना छह वर्ष तीन मास ग्यारह दिन में पूरी हुई। मूलरूप से इस रामायण में कुल 92 सर्ग थे, जिनमें स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग और जोड़े। गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' पर महाकवि स्वयंभू रचित 'पउम चरिउ' का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है।[1]
समय
इन्होंने अपना ग्रंथ 'पउम चरिउ' (पद्म चरित्र - जैन रामायण) में ऐसी अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप इंगित है। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी ज्ञात होता है। इसका कारण यह है कि इन्होंने अपने ग्रंथ 'पउम चरिउ' और 'रिट्ठिनेमि चरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है।
स्वरूप
- पउम चरिउ' में बारह हज़ार श्लोक हैं। इन श्लोकों में नब्बे संधियाँ हैं। इन संधियों का विवरण इस प्रकार है -
- विद्याधर काण्ड 20 संधि
- अयोध्या काण्ड 22 संधि
- सुन्दर काण्ड 14 संधि
- युद्ध काण्ड 21 संधि
- उत्तर काण्ड 13 संधि
- कुल 5 काण्ड 90 संधियाँ
इन संधियों में स्वयंभू देव की 83 संधियाँ हैं और त्रिभुवन की 7। अंतिम सात संधियों के बिना भी 'पउम चरिउ' ग्रंथ पूर्ण है।
काव्य सौष्ठव
पउम चरिउ' में वे विलाप और युद्ध लिखने में विशेष पटु हैं। उन्होंने नारी विलाप, बन्धु विलाप, दशरथ विलाप, राम विलाप, भरत विलाप, रावण विलाप, विभीषण विलाप आदि बड़े सुन्दर ढंग से लिखे हैं। युद्ध में वे योद्धाओं की उमंगें, रण यात्रा, मेघवाहन युद्ध, हनुमान युद्ध, कुम्भकर्ण युद्ध, लक्ष्मण युद्ध बड़े वीरत्व पूर्ण ढंग स्पष्ट करते हैं। प्रेम विरह गीत, प्रकृति वर्णन, नगर वर्णन और वस्तु वर्णन भी वे बड़े विस्तार और स्वाभाविक ढंग से लिखते हैं।
- रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी विलाप (करुण रस)
आएहिं सोआरियहि, अट्ठारह हिव जुवह सहासेहिं।
णव घण माला डंबरेहि, छाइउ विज्जु जेम चउपासेहिं॥
रोवइ लंकापुर परमेसिर। हा रावण! तिहुयण जण केसरि॥
पइ विणु समर तुरु कहों वज्जइ। पइ विणु बालकील कहो छज्जइ॥
पइ विणु णवगह एक्कीकरणउ। को परिहेसइ कंठाहरणउ॥
पइविणु को विज्जा आराहइ। पइ विणु चन्द्रहासु को साहइ॥
को गंधव्व वापि आडोहइ। कण्णहों छवि सहासु संखोहइ॥
पण विणु को कुवेर भंजेसइ। तिजग विहुसणु कहों वसें होसइ॥
पण विणु को जमु विणवारेसई। को कइलासु द्धरण करेसई॥
सहस किरणु णल कुब्वर सक्कहु। को अरि होसइ ससि वरुणक्कहु॥
को णिहाण रयणइ पालेसइ। को वहुरूविणि विज्जां लएसइ॥
घत्ता - सामिय पइँ भविएण विणु, पुफ्फ विमापों चडवि गुरुभत्तिएँ।
मेरु सिहरें जिण मंदिरइँ, को मइ णेसइ वंदण हत्तिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत के कुछ रामकाव्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 मई, 2011।
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