महाभाष्य: Difference between revisions
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महर्षि पतंजलि द्वारा कृत 'महाभाष्य' 84 अध्यायों में विभक्त व्याकरण महाभाष्य है। इसका प्रथम अध्याय "पस्पशा" के नाम से जाना जाता है, जिसमें शब्द स्वरूप का निरूपण किया गया है। 'अथ शब्दानुशासनम' से शास्त्र का प्रारंभ करते हुए पतंजलि मुनि ने [[शब्द (व्याकरण)|शब्दों]] के दो प्रकार बताए हैं- | |||
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*'''लौकिक शब्द''' - इन शब्दों में [[गौ]], अश्व, पुरुष, शकुनि अर्थात् पशु, पक्षी एवं मनुष्य आदि को लिया गया है। | |||
*'''वैदिक शब्द''' - इस प्रकार के शब्दों में 'अग्निमीले पुरोहितम्' आदि वैदिक मन्त्रों को लिया गया है। | |||
====उदाहरण==== | |||
'गौ' शब्द का वर्णन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जब 'गौ' बोला जाता है तो वास्तव में उसमें शब्द क्या होता है? स्पष्टीकरण में वे कहते हैं कि 'गौ' के शारीरिक अवयव खुर, सींग को शब्द नहीं कहा जाता, इसे [[द्रव्य]] कहते हैं। इसकी शारिरिक क्रियाओं को भी शब्द नहीं कहते, इसे क्रिया कहते हैं। इसके [[रंग]] (शुक्ल, नील) को शब्द नहीं कहते, यह तो गुण है। यदि दार्शनिक दृष्टिकोण से यह कहा जाय कि जो भिन्न-भिन्न [[पदार्थ|पदार्थों]] में एकरूप है और जो उसके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता, सब में साधारण और अनुगत है, वह शब्द है तो ऐसा नहीं है, इसे जाति कहते हैं।<ref>{{cite web |url=http://prayaslt.blogspot.in/2010/01/blog-post_144.html |title=महाभाष्य|accessmonthday=3 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
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महाभाष्य महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है। पतंजति ने पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखा था, जिसे 'व्याकरण महाभाष्य' का नाम दिया गया। 'महाभाष्य' वैसे तो व्याकरण का ग्रंथ माना जाता है, किन्तु इसमें कहीं-कहीं राजाओं-महाराजाओं एवं जनतंत्रों के घटनाचक्र का विवरण भी मिलता हैं।
अध्याय
महर्षि पतंजलि द्वारा कृत 'महाभाष्य' 84 अध्यायों में विभक्त व्याकरण महाभाष्य है। इसका प्रथम अध्याय "पस्पशा" के नाम से जाना जाता है, जिसमें शब्द स्वरूप का निरूपण किया गया है। 'अथ शब्दानुशासनम' से शास्त्र का प्रारंभ करते हुए पतंजलि मुनि ने शब्दों के दो प्रकार बताए हैं-
- लौकिक
- वैदिक
- लौकिक शब्द - इन शब्दों में गौ, अश्व, पुरुष, शकुनि अर्थात् पशु, पक्षी एवं मनुष्य आदि को लिया गया है।
- वैदिक शब्द - इस प्रकार के शब्दों में 'अग्निमीले पुरोहितम्' आदि वैदिक मन्त्रों को लिया गया है।
उदाहरण
'गौ' शब्द का वर्णन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जब 'गौ' बोला जाता है तो वास्तव में उसमें शब्द क्या होता है? स्पष्टीकरण में वे कहते हैं कि 'गौ' के शारीरिक अवयव खुर, सींग को शब्द नहीं कहा जाता, इसे द्रव्य कहते हैं। इसकी शारिरिक क्रियाओं को भी शब्द नहीं कहते, इसे क्रिया कहते हैं। इसके रंग (शुक्ल, नील) को शब्द नहीं कहते, यह तो गुण है। यदि दार्शनिक दृष्टिकोण से यह कहा जाय कि जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में एकरूप है और जो उसके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता, सब में साधारण और अनुगत है, वह शब्द है तो ऐसा नहीं है, इसे जाति कहते हैं।[1]
वास्तविक रूप में जो उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होकर खुर, सींग वाले गौ का बोध करता है, वह शब्द है। अर्थात् लोक-व्यवहार में जिस ध्वनि से अर्थ का बोध होता है, वह 'शब्द' कहलाता है। सार्थक ध्वनि शब्द है। इसी शब्दार्थ बोधन को भर्तृहरि ने 'स्फोट' कहा है। शब्द वह है, जो उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होता है और अभिव्यक्त होने पर उस अर्थ का बोध कराता है।
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