बिरहा: Difference between revisions

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==विरह-व्यथा की अभिव्यक्ति==
==विरह-व्यथा की अभिव्यक्ति==
भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है। देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं। [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की यह विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे 'बिरहा' नाम से पहचाना जाता है।
भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है। देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं। [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की यह विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे 'बिरहा' नाम से पहचाना जाता है।
*[[कांडरा नृत्य]] [[बुंदेलखंड]] का प्रसिद्ध नृत्य है। इस नृत्य के साथ गाया जाने वाला एक बिरहा गीत इस प्रकार है-
<blockquote><poem>"सौने होय तो पैरियो, नातर नागे भलै दोई कान।
छीता होय तो व्याइयो, नातर क्वांरे श्री भगवान।
रानीपुरा में मृदंग बजो रे, और मऊ में बजी मौचंग।
नाचत आवत पुरानी मऊ की, बरेठिन ऊके सासऊ गोरे अंग।
अरे भाले की अनी से टोडरब पलेरा, भाले की अनी से।
घर नइया रइया राव जू, घरै नइयां किशोरी महाराज।
घरे तो नइयाँ रनदूला, आड़ी करत तरवार। भाले की अनी। ....।"</poem></blockquote>





Revision as of 09:11, 5 June 2015

बिरहा अहीरों का जातीय लोकगीत है। लोकगीतों में इसका स्थान उसी तरह महत्त्वपूर्ण है, जिस तरह संस्कृत में 'द्विपदी', प्राकृत में 'गाथा' और हिन्दी में 'बरवै' का है। यह दो कड़ियों की रचना है। जब एक पक्ष अपनी बात कह लेता है तो दूसरा पक्ष उसी छन्द में उत्तर देता है। मात्राओं की संख्या इसमें सीमित नहीं होतीं। गाने वाले की धुनकर मात्राएँ घट-बढ़ जाती हैं।

उत्पत्ति

इस लोक संगीत की उत्पत्ति के सूत्र उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं। ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में छोटे-छोटे समूह में यह लोग इसी लोक-विधा के गीतों का ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे। लगभग 55 वर्ष पहले वाराणसी के ठठेरी बाज़ार, चौखम्भा आदि व्यावसायिक क्षेत्रों में श्रमिकों को बिरहा गायन करते हुए देखा-सुना जाता था।

प्रचलित रूप

प्रारम्भ में बिरहा श्रम-मुक्त करने वाले लोकगीत के रूप में ही प्रचलित था। बिरहा गायन के आज दो प्रकार मिलते हैं[1]-

  1. पहले प्रकार को "खड़ी बिरहा" कहा जाता है। गायकी के इस प्रकार में वाद्यों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है। पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है और फिर गायक दल उसमें सम्मिलित हो जाता है।
  2. बिरहा गायन का दूसरा रूप मंचीय है।

"न बिरहा की खेती करै, भैया, न बिरहा फरै डार। बिरहा बसलै हिरदया में हो, राम, जब तुम गैले तब गाव।"

'बिरहा' की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भोजपुरी बिरहा की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। यह मुख्य रूप से प्रेम और विरह की उपयुक्त व्यंजना के लिए सार्थक लोक छन्द है। विप्रलम्भ शृंगार को अधिकांश बिरहा में स्थान प्राप्त है। कहते हैं, इसका जन्म भोजपुर प्रदेश में हुआ। गड़रिये, पासी, धोबी, अहीर और अन्य चरवाह जातियाँ कभी-कभी होड़ बदकर रातभर बिरहा गाती हैं।[2]

वाद्य

बिरहा गायन के मंचीय रूप में वाद्यों की संगति होती है। प्रमुख रूप से ढोलक, हारमोनियम और करताल की संगति होती है। करताल गुल्ली के आकार में लगभग 8 -9 इंच लम्बे स्टील के दो टुकड़े होते हैं, जिसे गायक अपनी दोनों हथेलियों के बीच रख कर आपस में टकराते हुए बजाते हैं। बिरहा लोकगीत का फ़िल्मों में प्रायः नहीं के बराबर उपयोग हुआ है। आश्चर्यजनक रूप से 1955 की फ़िल्म "मुनीमजी" में बिरहा का अत्यन्त मौलिक रूप में प्रयोग किया गया है। देवानन्द और नलिनी जयवन्त अभिनीत इस फ़िल्म के संगीतकार सचिन देव बर्मन हैं तथा हेमन्त कुमार और साथियों के स्वरों में इस बिरहा का गायन किया गया है। इस बिरहा में भी शिव विवाह का ही प्रसंग है। गीत की अन्तिम पंक्तियों में दो नाम लिये गए है- पहले "बरसाती" और फिर "दुखहरण" । पहला नाम अखाड़े के गुरु का और दूसरा नाम गायक का है। यह गीत बरसाती यादव अखाड़े का है और इसे किसी दुखहरण नामक गायक ने गाया था।

बिरहा दंगल

कालान्तर में लोक-रंजन-गीत के रूप में बिरहा का विकास हुआ। पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर बिरहा गायन की परम्परा रही है। किसी विशेष पर्व पर मन्दिर के परिसरों में बिरहा दंगल का प्रचलन भी है। बिरहा के दंगली स्वरुप में गायकों की दो टोलियाँ होती है और वे बारी-बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं। ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक-दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं। इस प्रकार के गायन में आशुसर्जित लोक-गीतकार को प्रमुख स्थान मिलता है। बिरहा के अखाड़े (गुरु घराना) भी होते है। विभिन्न अखाड़ों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है। लगभग पाँच दशक पहले एक ऐसे ही अखाड़े के गुरु पत्तू सरदार भी थे। वह बिरहा-गीतों के अनूठे रचनाकार और गायक थे। उनके अखाड़े के सैकड़ों शिष्य थे, जिन्हें समाज में लोक गायक के रूप में भरपूर सम्मान प्राप्त था। गुरु पत्तू सरदार निरक्षर थे।[1]

गायन के विषय

बिरहा गायन में पहले देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है, तत्पश्चात् कौटुम्बिक जीवन के विभिन्न सम्बन्धों का स्वाभाविक वर्णन, ग्राम जीवन के चित्र, प्रेम और विरह के कोमल प्रसंग, नैहर और ससुराल की मीनमेख, नायिकाओं की प्रणय उमंगें, अनब्याही ग्रामीण नारी की व्यथा, सास-बहू के झगड़े, ननद-भावज की चुहल आदि विषयों के वर्णन मुखर होते हैं। यद्यपि विरहा भोजपुर की धरती में उपजा है, तथापि आज के लोक-जीवन में बिरहा ने समस्त कृषक जातियों के गीतों में अपना स्थान बना लिया है। गाते समय उठने वाली आवाज़ की ऊँचाई से दूर-दूर तक वन-प्रांतर में हृदय की टीस गूँजने लगती है।

प्रसंग

बिरहा गीतों के प्रसंग अधिकतर रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं। कभी-कभी लोकगीतकार सामयिक विषयों पर भी गीत रचते हैं। गुरु पत्तू सरदार ने 1965 के भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय-गाथा को इन पंक्तियों में व्यक्त किया था[1]-

"चमके लालबहादुर रामनगरिया वाला, अयूब के मुह को काला कर दिया...।"

विरह-व्यथा की अभिव्यक्ति

भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है। देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की यह विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे 'बिरहा' नाम से पहचाना जाता है।

"सौने होय तो पैरियो, नातर नागे भलै दोई कान।
छीता होय तो व्याइयो, नातर क्वांरे श्री भगवान।
रानीपुरा में मृदंग बजो रे, और मऊ में बजी मौचंग।
नाचत आवत पुरानी मऊ की, बरेठिन ऊके सासऊ गोरे अंग।
अरे भाले की अनी से टोडरब पलेरा, भाले की अनी से।
घर नइया रइया राव जू, घरै नइयां किशोरी महाराज।
घरे तो नइयाँ रनदूला, आड़ी करत तरवार। भाले की अनी। ....।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 लोक गीत शैली बिरहा (हिन्दी) आवाज़। अभिगमन तिथि: 05 जून, 2015।
  2. हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 433 |

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