इल्तुतमिश: Difference between revisions

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इल्तुतमिश [[दिल्ली]] का सुल्तान (1211-36 ई.) था। आरम्भ में वह दिल्ली के पहले सुल्तान [[कुतुबुद्दीन ऐबक]] का ग़ुलाम था। योग्यता के कारण वह मालिक का प्यारा बन गया। उसने उसे ग़ुलामी से मुक्त कर दिया और अपनी लड़की की शादी करके उसे [[बदायूँ]] का हाकिम बना दिया। चौगान खेलते समय 1210 ई0 में घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के एक साल बाद वह उसके उत्तराधिकारी [[आरामशाह]] को हराने के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस प्रकार आरम्भ से ही पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र के सिंहासनाधिकार की प्रथा को धक्का लगा।
'''इल्तुतमिश''' (1210- 236 ई.) एक इल्बारी तुर्क था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर [[मुहम्मद ग़ोरी]] ने उसे “अमीरूल उमरा” नामक महत्वपूर्ण पद दिया था। अकस्मात् मुत्यु के कारण [[कुतुबद्दीन ऐबक]] अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। अतः [[लाहौर]] के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र [[आरामशाह]] (जिसे इतिहासकार नहीं मानते) को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, परन्तु [[दिल्ली]] के तुर्को सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश, जो उस समय [[बदायूँ]] का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित कर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बन्दी बनाकर बाद में उसकी हत्या कर दी गयी और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।
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==वास्तविक संस्थापक==
==कठिनाइयों से सामना==
इल्तुतमिश (1211-36) को उत्तर [[भारत]] में तुर्कों के राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसके सिंहासन पर बैठने के समय 'अली मर्दन ख़ाँ' ने बंगाल और बिहार तथा ऐबक के एक और ग़ुलाम, 'कुबाचा' ने, मुल्तान के स्वतंत्र शासकों के रूप में घोषणा कर दी थी। कुबाचा ने [[लाहौर]] तथा [[पंजाब]] के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार भी कर लिया। पहले पहल दिल्ली के निकट भी अल्तमश के कुछ सहकारी अधिकारी उसकी प्रभुता स्वीकार करने में हिचकिचा रहे थे। राजपूतों ने भी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दीं। इस प्रकार [[कालिंजर]], [[ग्वालियर]] तथा [[अजमेर]] और [[बयाना]] सहित सारे पूर्वी [[राजस्थान]] ने तुर्की बोझ अपने कन्धों से उतार फेंका।
'''सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद''' इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् [[मुहम्मद ग़ोरी]] के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही [[अवध]] में पिर्थू विद्रोह हुआ।
==राज्य का विस्तार==
अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अल्तमश ने अपना ध्यान उत्तर-पश्चिम की ओर लगाया। 'ख्वारिज़म शाह' की ग़ज़नी विजय से उसकी स्थिति को नया ख़तरा पैदा हो गया था। ख्वारिज़म साम्राज्य मध्य एशिया में अपने समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था और उसकी पूर्वी सीमा [[सिन्धु नदी]] को छूती थी। इस ख़तरे को समाप्त करने के लिए अल्तमश ने लाहौर पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया। मंगोलों ने 1220 ई0 में ख्वारिज़मी साम्राज्य को समाप्त कर इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में गिने जाने वाले साम्राज्य की नींव डाली, जो अपने चरमोत्कर्ष में [[चीन]] से लेकर [[भूमध्य सागर]] तथा कास्पियन समुद्र से लेकर जक्सारटेस नदी तक फैला हुआ था। जब 'मंगोल' कहीं और व्यस्त थे, अल्तमश ने मुल्तान और उच्छ से कुबाचा को उखाड़ फैंका। इस प्रकार [[दिल्ली सल्तनत]] की सीमा एक बार फिर सिन्धु तक पहुँच गई।


पश्चिम में अपनी स्थिति मज़बूत कर अल्तमश ने अन्य क्षेत्रों की ओर ध्यान दिया। बंगाल और बिहार में 'इवाज़' नाम के एक व्यक्ति ने 'सु्ल्तान ग़ियासुद्दीन' की पदवी ग्रहण कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। वह कुशल तथा उदार प्रशासक था और उसने सार्वजनिक लाभ के लिए कई चीज़ों का निर्माण किया। यद्यपि उसने अपने पड़ोसी राज्यों के क्षेत्रों पर चढ़ाई की, तथापि पूर्व बंगाल में सेन तथा [[उड़ीसा]] और कामरूप ([[असम]]) में हिन्दू राजाओं का प्रभाव बना रहा। इवाज़, अल्तमश के लड़के द्वारा 1226-27 में लखनौती के निकट एक युद्ध में पराजित हुआ। बंगाल और बिहार एक बार फिर दिल्ली के अधीन हो गए, पर इन क्षेत्रों पर शासन क़ायम रखना आसान नहीं था और इन्होंने [[दिल्ली]] को बार-बार चुनौती दी।
'''1215 से 1217 ई. के बीच''' इल्तुतिमिश को अपनी दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'कुबाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को [[तराइन का युद्ध|तराइन]] के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से [[लाहौर]] छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने [[सिन्धु नदी]] में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।
==मंगोलों से बचाव==
[[मंगोल]] आक्रमणकारी [[चंगेज़ ख़ाँ]] के भय से भयभीत होकर ख्वारिज्म शाह का पुत्र 'जलालुद्दीन मुगबर्नी' वहां से भाग कर [[पंजाब]] की ओर आ गया। चंगेज़ ख़ाँ उसका पीछा करता हुए लगभग 1220-21 ई. में [[सिंध]] तक आ गया। उसने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद न करें। यह संदेश लेकर चंगेज़ ख़ाँ का दूत इल्तुतमिश के दरबार में आया। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए मंगबर्नी की कोई सहायता नहीं की। मंगोल आक्रमण का भय 1228 ई. में मंगबर्नी के [[भारत]] से वापस जाने पर टल गया। [[कुतुबुद्दीन ऐबक]] की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने [[बंगाल]] में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर लिया तथा 'अलाउद्दीन' की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र 'हिसामुद्दीन इवाज' उत्तराधिकारी बना। उसने 'गयासुद्दीन आजिम' की उपाधि ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया।
==विजय अभियान==
'''1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक''' 'हिसामुद्दीन इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के पुनः [[दिल्ली]] लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र [[नसीरूद्दीन महमूद]] ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर [[बंगाल]] दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। 1226 ई. में इल्तुतमिश ने [[रणथंभौर]] पर तथा 1227 ई. में [[परमार वंश|परमरों]] की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने [[ग्वालियर]] के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया। 1233 ई. में [[चन्देल वंश|चंदेलों]] के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में [[उज्जैन]] एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।
==वैध सुल्तान एवं उपाधि==
'''इल्तुतमिश के नागदा के''' गुहिलौतों और [[गुजरात]] [[चालुक्य साम्राज्य|चालुक्यों]] पर किए गए आक्रमण विफल हुए। इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ। फ़रवरी, 1229 में बगदाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी प्रदान की। प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं [[दिल्ली सल्तनत]] एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई। इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। खिलअत मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।
==सिक्कों का प्रयोग==
'''इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था''', जिसने शुद्ध [[अरबी भाषा|अरबी]] सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्वपूर्ण सिक्के '[[चाँदी]] का टका' (लगभग 175 ग्रेन) तथा '[[तांबा|तांबे]]' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है। [[ग्वालियर]] विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व [[धर्म]] का [[सूर्य तारा|सूर्य]]”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को [[लाहौर]] से [[दिल्ली]] स्थानान्तरित किया।
==मृत्यु==
[[बयाना]] पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।
==यात्री विवरण एवं संरक्षक==
'''इल्तुतमिश की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए''' [[इब्नबतूता]] लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान दयालु, सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार [[भारत]] में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।


इसी समय अल्तमश ने [[ग्वालियर]], [[बयाना]], अजमेर तथा नागौर को भी वापस अपने क़ब्ज़े में करने के लिए क़दम उठाए। इस प्रकार उसने पूर्वी राजस्थान को अपने अधीन कर लिया। उसने [[रणथंभौर]] और [[जालौर]] पर भी विजय प्राप्त की, लेकिन [[चित्तौड़]] के निकट [[नागदा]] तथा [[गुजरात]] के [[चालुक्य वंश|चालुक्यों]] के विरुद्ध अपने अभियानों में वह सफल नहीं हो सका।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “इल्तुतमिश निस्सन्देह [[गुलाम वंश]] का वास्तविक संस्थापक था।”
==निर्माण कार्य==
'''स्थापत्य कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने''' [[कुतुबुद्दीन ऐबक]] के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। [[भारत]] में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने [[बदायूँ]] की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘[[अजमेर]] की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने [[दिल्ली]] में एक विद्यालय की स्थापना की। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।
 
 
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==योग्य शासक==
इल्तुतमिश बहुत ही योग्य शासक सिद्ध हुआ। उसने असंतुष्ट मुसलमान सरदारों की बगावत कुचल दी। उसने अपने तीन शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वियों—[[पंजाब]] के एलदोज, [[सिंध प्रांत|सिंध]] के कुबाचा तथा [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]] के अली मर्दान ख़ाँ को भी पराजित किया। उसने [[रणथंभौर]] और [[ग्वालियर]] को हिन्दुओं से छीन लिया। सुल्तान आराम के निर्बल शासनकाल में हिन्दुओं ने इन दोनों स्थानों को फिरे से जीत लिया था। उसने [[भिलता]] और [[उज्जैन]] सहित [[मालवा]] को भी जीत लिया। उसके शासन काल में मंगोलो खूंखार नेता [[चंगेज़ ख़ाँ]] खीवा के शाह जलालुद्दीन का पीछा करता हुआ [[भारत]] की सीमाओं तक आ पहुँचा और उसने [[भारत]] पर हमला करने की धमकी दी। इल्तुतमिश ने विनम्र रीति से भगोड़े शाह जलालुद्दीन को शरण देने से इन्कार करके इस आफत से पीछा छुड़ाया। इल्तुतमिश को बगदाद के ख़लीफ़ा से खिलअत प्राप्त हुई थी। इससे दिल्ली की सल्तनत पर उसके अधिकार की धार्मिक पुष्टि हो गयी। उसने चाँदी के सिक्के ढालने की अच्छी व्यवस्था की जो बाद के सुल्तानों के लिए आदर्श सिद्ध हुई। उसने 1232 ई. में मुस्लिम संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन के सम्मान में प्रसिद्ध [[क़ुतुबमीनार]] का निर्माण कराया। एक साहसी योद्धा और योग्य प्रशासक के रूप में इल्तुतमिश को दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों में सबसे महान कहा जा सकता है।
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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Revision as of 12:33, 21 February 2011

इल्तुतमिश (1210- 236 ई.) एक इल्बारी तुर्क था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे “अमीरूल उमरा” नामक महत्वपूर्ण पद दिया था। अकस्मात् मुत्यु के कारण कुतुबद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। अतः लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह (जिसे इतिहासकार नहीं मानते) को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, परन्तु दिल्ली के तुर्को सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश, जो उस समय बदायूँ का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित कर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बन्दी बनाकर बाद में उसकी हत्या कर दी गयी और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।

कठिनाइयों से सामना

सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह हुआ।

1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपनी दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'कुबाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।

मंगोलों से बचाव

मंगोल आक्रमणकारी चंगेज़ ख़ाँ के भय से भयभीत होकर ख्वारिज्म शाह का पुत्र 'जलालुद्दीन मुगबर्नी' वहां से भाग कर पंजाब की ओर आ गया। चंगेज़ ख़ाँ उसका पीछा करता हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ गया। उसने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद न करें। यह संदेश लेकर चंगेज़ ख़ाँ का दूत इल्तुतमिश के दरबार में आया। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए मंगबर्नी की कोई सहायता नहीं की। मंगोल आक्रमण का भय 1228 ई. में मंगबर्नी के भारत से वापस जाने पर टल गया। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर लिया तथा 'अलाउद्दीन' की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र 'हिसामुद्दीन इवाज' उत्तराधिकारी बना। उसने 'गयासुद्दीन आजिम' की उपाधि ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया।

विजय अभियान

1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक 'हिसामुद्दीन इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के पुनः दिल्ली लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। 1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंभौर पर तथा 1227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया। 1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।

वैध सुल्तान एवं उपाधि

इल्तुतमिश के नागदा के गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों पर किए गए आक्रमण विफल हुए। इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ। फ़रवरी, 1229 में बगदाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी प्रदान की। प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई। इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। खिलअत मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।

सिक्कों का प्रयोग

इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्वपूर्ण सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।

मृत्यु

बयाना पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।

यात्री विवरण एवं संरक्षक

इल्तुतमिश की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए इब्नबतूता लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान दयालु, सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार भारत में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।

डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “इल्तुतमिश निस्सन्देह गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था।”

निर्माण कार्य

स्थापत्य कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।



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