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बाँस ग्रामिनीई कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो [[भारत]] के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है। बाँस एक सामूहिक शब्द है, जिसमें अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं। मुख्य जातियाँ, बैंब्यूसा, डेंड्रोकेलैमस (नर बाँस) आदि हैं। बैंब्यूसा शब्द मराठी बैंबू का लैटिन नाम है। इसके लगभग 24 वंश भारत में पाए जाते हैं। भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के बाँसों का वर्गीकरण डा. ब्रैंडिस ने प्रकंद के अनुसार इस प्रकार किया है :
बाँस ग्रामिनीई कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो [[भारत]] के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है। बाँस एक सामूहिक शब्द है, जिसमें अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं। मुख्य जातियाँ, बैंब्यूसा, डेंड्रोकेलैमस (नर बाँस) आदि हैं। बैंब्यूसा शब्द मराठी बैंबू का लैटिन नाम है। इसके लगभग 24 वंश भारत में पाए जाते हैं। भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के बाँसों का वर्गीकरण डा. ब्रैंडिस ने प्रकंद के अनुसार इस प्रकार किया है :



Revision as of 07:48, 25 May 2011

बाँस
जगत पादप
संघ पुष्पी पादप
वर्ग एक बीजपत्री
गण Poales
कुल पोएसी
प्रजाति Bambusoideae
द्विपद नाम बम्बूसा / Bambusa

बाँस ग्रामिनीई कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है। बाँस एक सामूहिक शब्द है, जिसमें अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं। मुख्य जातियाँ, बैंब्यूसा, डेंड्रोकेलैमस (नर बाँस) आदि हैं। बैंब्यूसा शब्द मराठी बैंबू का लैटिन नाम है। इसके लगभग 24 वंश भारत में पाए जाते हैं। भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के बाँसों का वर्गीकरण डा. ब्रैंडिस ने प्रकंद के अनुसार इस प्रकार किया है :

(अ)- कुछ में भूमिगत प्रकंद छोटा और मोटा होता है। शाखाएँ सामूहिक रूप से निकलती हैं। उपर्युक्त प्रकंद वाले बाँस निम्नलिखित हैं :

  1. बैब्यूसा अरंडिनेसी- हिंदी में इसे वेदुर बाँस कहते हैं। यह मध्य तथा दक्षिण-पश्चिम भारत एवं बर्मा में बहुतायत से पाया जाने वाला काँटेदार बाँस है। 30 से 50 फुट तक ऊँची शाखाएँ 30 से 100 के समूह में पाई जाती हैं। बौद्ध लेखों तथा भारतीय औषधि ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।
  2. बैंब्यूसा स्पायनोसा- पश्चिम बंगाल, असम तथा बर्मा का काँटेदार बाँस है, जिसकी खेती उत्तरी-पश्चिमी भारत में की जाती है। हिंदी में इसे बिहार बाँस कहते हैं।
  3. बैंब्यूसा टूल्ला- यह बंगाल का मुख्य बाँस है, जिसे हिंदी में पेका बाँस कहते हैं।
  4. बैंब्यूसा वलगैरिस- पीली एवं हरी धारी वाला बाँस है, जो पूरे भारत में पाया जाता है।
  5. डेंड्रोकैलैमस के अनेक वंश, जो शिवालिक पहाड़ियों तथा हिमालय के उत्तर-पश्चिमी भागों और पश्चिमी घाट पर बहुतायत से पाए जाते हैं।

(ब)- कुछ बाँसों में प्रकंद भूमि के नीचे ही फैलता है। यह लंबा और पतला होता है तथा इसमें एक-एक करके शाखाएँ निकलती हैं। ऐसे प्रकंद वाले बाँस निम्नलिखित हैं :

  1. बैंब्यूसा नूटैंस- यह बाँस 5,000 से 7,000 फुट की ऊँचाई पर नेपाल, सिक्किम, असम तथा भूटान में होता है। इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी होती है।
  2. मैलोकेना- यह बाँस पूर्वी बंगाल एवं बर्मा में बहुतायत से पाया जाता है।

तना

बाँस का सबसे उपयोगी भाग तना है। उष्ण कटिबंध में बाँस बड़े बड़े समूहों में पाया जाता है। बाँस के तने से नई नई शाखाएँ निरंतर बाहर की ओर निकलकर इसके घेरे को बढ़ाती हैं, किंतु समशीतोष्ण एवं शीतकटिबंध में यह समूह अपेक्षाकृत छोटा होता है तथा तनों की लंबाई ही बढ़ती है। तनों की लंबाई 30 से 150 फुट तक एवं चौड़ाई 1 / 4 इंच से लेकर एक फुट तक होती है। तना में पर्व, पर्वसंधि से जुड़ा रहता है। किसी किसी में पूरा तना ठोस ही रहता है। नीचे के दो तिहाई भाग में कोई टहनी नहीं होती। नई शाखाओं के ऊपर पत्तियों की संरचना देखकर ही विभिन्न बाँसों की पहचान होती है। पहले तीन माह में शाखाएँ औसत रूप से तीन इंच प्रति दिन बढ़ती हैं, इसके बाद इनमें नीचे से ऊपर की ओर लगभग 10 से 50 इंच तक तना बनता है। तने की मजबूती उसमें एकत्रित सिलिका तथा उसकी मोटाई पर निर्भर है। पानी में बहुत दिन तक बाँस खराब नहीं होते और कीड़ों के कारण नष्ट होने की संभावना रहती है।

बाँस के फूल एवं फल

बाँस का जीवन 1 से 50 वर्ष तक होता है, जब तक कि फूल नहीं खिलते। फूल बहुत ही छोटे, रंगहीन, बिना डंठल के, छोटे छोटे गुच्छों में पाए जाते हैं। सबसे पहले एक फूल में तीन चार, छोटे, सूखे तुष पाए जाते हैं। इनके बाद नाव के आकार का अंतपुष्पकवच होता है। छह पुंकेसर होते हैं। अंडाशय के ऊपरी भाग पर बहुत छोटे छोटे बाल होते हैं। इसमें एक ही दाना बनता है। साधारणत: बाँस तभी फूलता है जब सूखे के खेती मारी जाती है और दुर्भिक्ष पड़ता है। शुष्क एवं गरम हवा के कारण पत्तियों के स्थान पर कलियाँ खिलती हैं। फूल खिलने पर पत्तियाँ झड़ जाती हैं। बहुत से बाँस एक वर्ष में फूलते हैं। ऐसे कुछ बाँस नीलगिरि की पहाड़ियों पर मिलते हैं। भारत में अधिकांश बाँस सामुहिक तथा सामयिक रूप से फूलते हैं। इसके बाद ही बाँस का जीवन समाप्त हो जाता है। सूखे तने गिरकर रास्ता बंद कर देते हैं। अगले वर्ष वर्षा के बाद बीजों से नई कलमें फूट पड़ती हैं और जंगल फिर हरा हो जाता है। यदि फूल खिलने का समय ज्ञात हो, तो काट छाँटकर खिलना रोका जा सकता है। प्रत्येक बाँस में 4 से 20 सेर तक जौ या चावल के समान फल लगते हैं। जब भी ये लगते हैं, चावल की अपेक्षा सस्ते बिकते हैं। 1812 ई. के उड़ीसा दुर्भिक्ष में ये गरीब जनता का आहार तथा जीवन रक्षक रहे।

बाँस की खेती

बाँस बीजों से धीरे-धीरे उगता है। मिट्टी में आने के प्रथम सप्ताह में ही बीज उगना आरंभ कर देता है। कुछ बाँसों में वृक्ष पर दो छोटे-छोटे अंकुर निकलते हैं। 10 से 12 वर्षों के बाद काम लायक बाँस तैयार होते हैं। भारत में दाब कलम के द्वारा इनकी उपज की जाती है। अधपके तनों का निचला भाग, तीन इंच लंबाई में, थोड़ा पर्वसंधि के नीचे काटकर, वर्षा शुरू होने के बाद लगा देते हैं। यदि इसमें प्रकंद का भी अंश हो तो अति उत्तम है। इसके निचले भाग से नई-नई जड़ें निकलती हैं।

बाँस के काग़ज़

काग़ज़ बनाने के लिए बाँस उपयोगी साधन है, जिससे बहुत ही कम देखभाल के साथ साथ बहुत अधिक मात्रा में काग़ज़ बनाया जा सकता है। इस क्रिया में बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। फिर भी बाँस का काग़ज़ बनाना चीन एवं भारत का प्राचीन उद्योग है। चीन में बाँस के छोटे बड़े सभी भागों से काग़ज़ बनाया जाता है। इसके लिए पत्तियों को छाँटकर, तने को छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर, पानी से भरे पोखरों में चूने के संग तीन चार माह सड़ाया जाता है, जिसके बाद उसे बड़ी -बड़ी घूमती हुई ओखलियों में गूँधकर, साफ किया जाता है। इस लुग्दी को आवश्यकतानुसार रसायनक डालकर सफेद या रंगीन बना लेते हैं और फिर गरम तवों पर दबाते तथा सुखाते हैं।

वंशलोचन

विशेषत: बैंब्यूसा अरन्‌डिनेसी के पर्व में पाई जाने वाली, यह पथरीली वस्तु सफेद या हलके नीले रंग की होती है। अरबी में इसे तबाशीर कहते हैं। यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। भारतवासी प्राचीन काल से दवा की तरह इसका उपयोग करते रहे हैं। यह ठंडा तथा बलवर्धक होता है। वायुदोष तथा दिल एवं फेफड़े की तरह-तरह की बीमारियों में इसका प्रयोग होता है। बुखार में इससे प्यास दूर होती है। बाँस की नई शाखाओं में रस एकत्रित होने पर वंशलोचन बनता है और तब इससे सुगंध निकलती है।

वंशलोचन से एक चूर्ण भी बनता है, जो मंदाग्नि के लिए विशेष उपयोगी है। इसमें 8 भाग वंशलोचन, 10 भाग पीपर, 10 भाग रूमी मस्तगी तथा 12 भाग छोटी इलायची रहती है। चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर खाने और दूध पीने से बहुत शीघ्र स्वास्थ्यलाभ होता है।

बाँस के अन्य उपयोग

छोटी-छोटी टहनियों तथा पत्तियों को डालकर उबाला गया पानी, बच्चा होने के बाद पेट की सफाई के लिए जानवरों को दिया जाता है। जहाँ पर डॉक्टरी औजार उपलब्ध नहीं होते, बाँस के तनों एवं पत्तियों को काट छाँटकर सफाई करके खपच्चियों का उपयोग किया जाता है। बाँस का खोखला तना अपंग लोगों का सहारा है। इसके खुले भाग में पैर टिका दिया जाता है। बाँस की खपच्चियों को तरह तरह की चटाइयाँ, कुर्सी, टेबल, चारपाई एवं अन्य वस्तुएँ बुनने के काम में लाया जाता है। मछली पकड़ने का काँटा, डलिया आदि बाँस से ही बनाए जाते हैं। मकान बनाने तथा पुल बाँधने के लिए यह अत्यंत उपयोगी है। इससे तरह-तरह की वस्तुएँ बनाई जाती हैं, जैसे चम्मच, चाकू, चावल पकाने का बरतन। नागा लोगों में पूजा के अवसर पर इसी का बरतन काम में लाया जाता है। इससे खेती के औजार, ऊन तथा सूत कातने की तकली बनाई जाती है। छोटी-छोटी तख्तियाँ पानी में बहाकर, उनसे मछली पकड़ने का काम लिया जाता है। बाँस से तीर, धनुष, भाले आदि लड़ाई के सामान तैयार किए जाते थे। पुराने समय में बाँस की काँटेदार झाड़ियों से किलों की रक्षा की जाती थी। पैनगिस नामक एक तेज धार वाली छोटी वस्तु से दुश्मनों के प्राण लिए जा सकते हैं। इससे तरह-तरह के बाजे, जैसे- बाँसुरी, वॉयलिन, नागा लोगों का ज्यूर्स हार्प एवं मलाया का ऑकलांग बनाया जाता है। एशिया में इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी मानी जाती है और छोटी-छोटी घरेलू वस्तुओं से लेकर मकान बनाने तक के काम आती है। बाँस का प्ररोह खाया जाता और इसका अचार तथा मुरब्बा भी बनता है।

बाँस के रोग

सिर्ट्रोंट्रैकेलस लांजिपेस नाम के कीड़े से बाँस की नई नई शाखाओं को बहुत क्षति पहुँचती है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्रिपाठी, रामप्रसाद “खण्ड 8”, हिन्दी विश्वकोश, 1967 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पृष्ठ सं 234-235।

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