वास्तुकला: Difference between revisions

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मुग़लों ने भव्य महलों, क़िलों, द्वारों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण किया। उन्होंने बहते पानी तथा फ़व्वारों से सुसज्जित कई बाग़ लगवाये। वास्तव में महलों तथा अन्य विलास-भवनों में बहते पानी का उपयोग मुग़ल की विशेषता थी। बाबर स्वयं बाग़ों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नज़दीक कई बाग़ भी लगवाए। जैसे काश्मीर का निशात बाग़, लाहौर का शालीमार बाग़ तथा पंजाब तराई में पिंजोर बाग़, आज भी देखे जा सकते हैं।

शेरशाह ने वास्तुकला को नयी दिशा दी। सासाराम (बिहार) में उसका प्रसिद्ध मक़बरा तथा दिल्ली के पुराने क़िले में उसकी मस्जिद वास्तुकला के आश्चर्यजनक नमूने हैं। ये मुग़ल-पूर्वकाल के वास्तुकला के चर्मोंत्कर्ष तथा नई शैली के पाररंम्भिक नमूने हैं।

अकबर पहला मुग़ल सम्राट था जिसके पास बड़े पैमान पर निर्माण करवाने के लिए समय और साधन थे। उसने कई क़िलों का निर्माण किया जिसमें सबसे प्रसिद्ध आगरे का क़िला है। लाल पत्थर से बने इस किले में कई भव्य द्वार हैं। क़िला निर्माण का चर्मोंत्कर्ष शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लाल क़िला है।

1572 में अकबर ने आगरा से 36 किलोमीटर दूर फ़तेहपुर सीकरी में क़िलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें गुजरात तथा बंगाल शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के क़िले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फ़तेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा बुलन्द दरवाज़ा है जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाज़ा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बर का आधा हिस्सा दरवाज़े के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाज़े हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुग़ल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।

मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के साथ मुग़ल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर के शासनकाल के अन्त तक ऐसे भवनों का निर्माण आरम्भ हो गया था जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर क़ीमती पत्थरों की नक़्क़शी की गई थी। यह शैली शाहजहाँ के समय और भी लोकप्रिय हो गयी। शाहजहाँ ने इसे ताजमहल, जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुग़लों द्वारा विकसित वास्तुकला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासनकाल के प्रारम्भ में दिल्ली में निर्मित हुमायूँ का मकबरा, जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्वगामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो गुम्बदों का प्रयोग है। इसमें एक बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए क़ीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ़ लगाए गए, सुसज्जित बाग़ से यह और प्रभावशाली दिखता है।

शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं आगरा के क़िले की मोती मस्जिद जो ताज की तरह पूरी संगमरमर की बनी है तथा दिल्ली की जाता मस्जिद जो लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषताएँ उसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं।

यद्यपि मितव्ययी औरंगजेब ने बहुत भवनों का निर्माण नहीं किया तथापि हिन्दू, तुर्क तथा ईरानी शैलियों के समन्वय पर आधारित मुग़ल वास्तुकला की परम्परा अठाहरवीं तथा उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ तक बिना रोक जारी रही। मुग़ल परम्परा ने कई प्रान्तीय स्थानीय राजाओं के क़िलों तथा महलों की वास्तुकला को प्रभावित किया। अमृतसर में सिखों का स्वर्ण मन्दिर जो इस काल में कई बार, वह भी गुम्बद तथा मेहराब के सिद्धांत पर निर्मित हुआ था और इससे मुग़ल वास्तुकला की परम्परा की कई विशेषताएँ प्रयोग में लाई गईं।

चित्रकला

चित्रकला के क्षेत्र में मुग़लों का विशिष्ट योगदान था। उन्होंने राजदरबार, शिकार तथा युद्ध के दृश्यों से सम्बन्धित नए विषयों को आरम्भ किया तथा नए रंगों और आकारों की शुरूआत की। उन्होंने चित्रकला की ऐसी जीवंत परम्परा की नींव डाली जो मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद भी देश के विभिन्न भागों में जीवित रही। इस शैली की समृद्धी का एक मुख्य कारण यह भी था कि भारत में चित्रकला की बहुत पुरानी परम्परा थी। यद्यपि बारहवीं शताब्दी के पहले के ताड़पत्र उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे चित्रकला की शैली का पता चल सके, अजन्ता के चित्र इस समृद्ध परम्परा के सार्थक प्रमाण हैं। लगता है कि आठवीं शताब्दी के बाद चित्रकला की परम्परा का ह्रास हुआ, पर तेरहवीं शताब्दी के बाद की ताड़पत्र की पांडुलिपियों तथा चित्रित जैन पांडुलिपियों से सिद्ध हो जाता है कि यह परम्परा मरी नहीं थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में जैनियों के अलावा मालवा तथा गुजरात जैसे क्षेत्रीय राज्यों में भी चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया जाता था। लेकिन सही अर्थों में इस परम्परा का पुनरुत्थान अकबर के काल में ही हुआ। जब हुमायूँ ईरान के शाह दरबार में था, उसने दो कुशल चित्रकारों को संरक्षण दिया और बाद में ये दोनों उसके साथ भारत आए। इन्हीं के नेतृत्व में अकबर के काल में चित्रकला को एक राजसी 'कारखाने' के रूप में संगठित किया गया। देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में चित्रकारों को आमंत्रित किया गया। इनमें से कई निम्न जातियों के थे। आरम्भ से ही हिन्दू तथा मुसलमान साथ-साथ कार्य करते थे। इसी प्रकार अकबर के राजदरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार जसवंत तथा दसावन थे। चित्रकला के इस केन्द्र का विकास बड़ी शीघ्रता से हुआ और इसने बड़ी प्रसिद्धी हासिल कर ली। फ़ारसी कहानियों को चित्रित करने के बाद इन्हें महाभारत, अकबर नामा तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की चित्रकारी का काम सौंपा गया। इस प्रकार भारतीय विषयों तथा भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने का रिवाज लोकप्रिय होने लगा और इससे चित्रकला पर ईरानी प्रभाव को कम करने में सहायता मिली। भारत के रंगों जैसे फ़िरोजी रंग तथा भारतीय लाल रंग का इस्तेमाल होने लगा। सबसे मुख्य बात यह हुई कि ईरानी शैली के सपाट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने लिया और इससे चित्रों में त्रिविनितीय प्रभाव आ गया।

मुग़ल चित्रकला जहाँगीर के काल में अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर इस कला का बड़ा कुशल पारखी था। मुग़ल शैली में मनुष्यों का चित्र बनाते समय एक ही चित्र में विभिन्न चित्रकारों द्वारा मुख, शरीर तथा पैरों को चित्रित करने का रिवाज था। जहाँगीर का दावा था कि वह किसी चित्र में विभिन्न चित्रकारों के अलग-अलग योगदान को पहचान सकता था।

शिकार, युद्ध और राजदरबार के दृश्यों को चित्रित करने के अलावा जहाँगीर के काल में मनुष्यों तथा जानवरों के चित्र बनाने की कला में विशेष प्रगति हुई। इस क्षेत्र में मंसूर का बहुत नाम था। मनुष्यों के चित्र बनाने का भी काफ़ी प्रचलन था।

अकबर के काल में पुर्तगाली पादरियों द्वारा राजदरबार में यूरोपीय चित्रकला भी आरम्भ हुई। उससे प्रभावित होकर वह विशेष शैली अपनाई गई जिससे चित्रों में क़रीब तथा दूरी का स्पष्ट बोध होता था। यह परम्परा शाहजहाँ के काल में तो जारी रही पर औरंगजेब की इस कला में दिलचस्पी न होने के कारण कलाकार देश में दूर-दूर तक बिखर गए। इस प्रक्रिया से राजस्थान तथा पंजाब की पहाड़ियों में इस कला के विकास में सहायता मिली।

राजस्थान शैली में जैन अथवा पश्चिम भारत की शैली के प्रमुख विषयों, और मुग़ल शैली के आकार का समन्वय था। इस प्रकार इस शैली में शिकार तथा राजदरबार के दृश्यों के अलावा राधा और कृष्ण की लीली जैसे धार्मिक विषयों को भी लेकर चित्र बनाए गए। इनके अलावा बारहमासा अर्थात वर्ष के विभिन्न मौसम तथा विभिन्न रागों पर आधारित चित्र भी बनाए गए। पहाड़ी शैली ने इस परम्परा को जारी रखा।

भाषा और साहित्य

अखिल भारतीय स्तर पर सरकारी काम-काज तथा अन्य बातों के लिए फ़ारसी तथा संस्कृत भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका, तथा भक्ति आंदोलन के प्रभाव से प्रान्तीय भाषाओं के विकास की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। प्रान्तीय भाषाओं के विकास का एक और कारण स्थानीय तथा प्रान्तीय राजाओं द्वारा दिया गया संरक्षण तथा प्रोत्साहन था।

सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में ये धाराएँ जारी रहीं। अकबर के काल तक उत्तरी भारत में फ़ारसी के अलावा स्थानीय भाषा (हिंदवी) में काग़ज़ात को रखना बन्द ही कर दिया गया। इसके बावजूद सत्रहवीं शताब्दी में दक्कन के राज्यों के पतन तक उनमें स्थानीय भाषाओं में दस्तावेज़ों को रखने की परम्परा जारी रही।

फ़ारसी गद्य तथा पद्य अकबर के शासनकाल में अपने शिखर पर थे। उस काल के महान् लेखक और विद्वान तथा इतिहासकार अबुलफ़ज़ल ने गद्य की ऐसी शैली प्रचलित की जिसका कई पीढ़ियों ने अनुसरण किया। उस काल का प्रमुख कवि फ़ैज़ी अबुलफ़ज़ल का भाई था और उसने अकबर के अनुवाद विभाग में बड़ी सहायता की। उसके निरीक्षण में महाभारत का अनुवाद भी किया गया। उस काल के फ़ारसी के दो अन्य प्रमुख कवि उत्बी तथा नज़ोरी थे। इनका जन्म ईरान में हुआ था। पर ये उन विद्वानों और कवियों में थे जो बड़ी संख्या में उस काल में ईरान स भारत आए थे और जिन्होंने मुग़ल दरबार को इस्लामी जगत का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया था। फ़ारसी साहित्य के विकास में हिन्दुओं ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में साहित्यिक तथा ऐतिहासिक कृतियों के अलावा फ़ारसी भाषा के कई प्रसिद्ध विश्वकोष भी तैयार किए गए।

इस काल में यद्यपि संस्कृत की कोई मूल अथवा महत्वपूर्ण कृति की रचना नहीं की गई, इस भाषा में रचित कृतियों की संख्या काफ़ी बड़ी थी। पहले की तरह, दक्षिण तथा पूर्वी भारत में अधिकतर कृतियाँ स्थानीय राजाओं के संरक्षण में रची गई पर कुछ कृतियाँ उन ब्रह्मणों की थी जो सम्राटों के अनुवाद विभाग में नियुक्त थे।

इस काल में क्षेत्रीय भाषाओं में परिपक्वता आई तथा उत्कृष्ट संगीतमय काव्य की रचना हुई। बंगाली, उड़िया, हिन्दी, राजस्थानी तथा गुजराती भाषाओं के काव्य में इस काल में राधा-कृष्ण तथा कृष्ण और गोपीयों की लीला तथा भागवत् की कहानियों का काफ़ी प्रयोग किया गया। राम पर आधारित कई भक्ति गीतों की रचना की गई तथा रामायण और महाभारत का क्षेत्रीय भाषाओं, विशेषकर उनमें जिनमें इनका अनुवाद पहले नहीं हुआ था, में अनुवाद किया गया। कुछ फ़ारसी कृतियों का भी अनुवाद किया गया। इस कार्य में हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों ने योगदान दिया। अलाओल ने बंगला में अपनी रचनाएँ भी कीं और साथ में मुसलमान सूफ़ी सन्त द्वारा रचित हिन्दी काव्य 'पद्मावत' का अनुवाद भी किया। इस काव्य में मलिक मुहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ अभियान को आधार बना कर आत्मा तथा परमात्मा के सम्बन्ध में सूफ़ी विचारों, और माया के बारे में हिन्दू शास्त्रों के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।

मध्य युग में मुग़ल सम्राटों तथा हिन्दू राजाओं ने आगरा तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में बोले जाने वाली भाषा ब्रज को भी प्रेत्साहन प्रदान किया। अकबर के काल से मुग़ल राजदरबार में हिन्दू कवि भी रहने लगे। एक प्रमुख मुग़ल सरदार अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानां ने अपने भक्तिकाव्य में मानवीय सम्बन्धों के बार में फ़ारसी विचारों का भी समन्वय किया। इस प्रकार फ़ारसी तथा हिन्दी की साहित्यिक परम्पराएँ एक-दूसरे से प्रभावित हुईं। इस काल के सबसे प्रमुख हिन्दी कवि तुलसीदास थे। जिन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में बोले जाने वाली अवधी भाषा में एक महाकाव्य की रचना की जिसके नायक राम थे। उन्होंने एक ऐसी जाति व्यवस्था का अनुमोदन किया जिसमें जाति, जन्म के आधार पर नहीं, वरन् मानव के व्यक्तिगत गुणों पर आधारित थी। तुलसीदास वास्तव में मानवतावादी कवि थे। जिन्होंने पारिवारिक मूल्यों को महत्व दिया और यह बताया कि मुक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए सम्भव है और यह मार्ग राम के प्रति पूर्ण भक्ति है।

दक्षिण भारत में मलयालम में भी साहित्यिक परम्परा आरम्भ हुई। एकनाथ और तुकाराम ने मराठी भाषा को शिखर पर पहुँचा दिया। मराठी भाषा की महत्ता बताते हुए एकनाथ कहते हैं-

"यदि संस्कृत ईश्वर की देन है तो क्या प्राकृत चोर तथा उच्चकों ने दी है। यह बातें मात्र घमंड और भ्रम पर आधारित हैं। ईश्वर किसी भी भाषा का पक्षपाती नहीं। इसके लिए संस्कृत तथा प्राकृत एकसमान हैं। मेरी भाषा मराठी के माध्यम से उच्च से उच्च विचार व्यक्त किए जा सकते हैं और यह आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है।"

इस उक्ति में क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों का गर्व स्पष्ट है तथा इसमें इन भाषाओं में लिखने वालों का आत्मविश्वास तथा उनका गर्व भी परिलक्षित होता है। सिक्ख गुरुओं की रचनाओं ने पंजाबी भाषा में नये प्राण फूँक दिए।

संगीत

एक अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र जिसमें हिन्दू तथा मुसलमानों ने मिलकर काम किया वह संगीत का था। अकबर ने ग्वालियर के तानसेन को संरक्षण दिया जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कई रागों की रचना की। जहाँगीर तथा शाहजहाँ और उनके कई मुग़ल सरदारों ने इस परम्परा को जारी रखा। कट्टर औरंगजेब ने संगीत को गाड़ने के लिए जो कुछ कहा था उसके बारे में कई कहानियाँ हैं। आधुनिक अनुसंधान से पता चलता है कि औरंगजेब ने गायकों को अपने राजदरबार से बहिष्कृत कर दिया था। लेकिन वाद्य संगीत पर कोई रोक नहीं लगाई थी। यहाँ तक की औरंगजेब स्वयं एक कुशल वीणा वादक था। औरंगजेब ने हरम की रानियों तथा उसके कई सरदारों ने भी सभी प्रकार के संगीत को बढ़ावा दिया। इसीलिए औरंगजेब के शासनकाल में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर बड़ी संख्या में पुस्तकों की रचना की गई। संगीत के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण विकास अठारहवीं शताब्दी में मोहम्मद शाह (1720-48) के शासनकाल में हुआ।

धार्मिक विचार तथा विश्वास और एकता की समस्याएँ

सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन का ज़ोर रहा। इसके अलावा पंजाब में सिक्ख तथा महाराष्ट्र में महाराष्ट्र धर्म आंदोलन भी आरम्भ हुए। सिक्ख धर्म की नींव नानक की वाणी से पड़ी। लेकिन इसके विकास में गुरुओं का बहुत महत्व रहा। प्रथम चार गुरुओं ने ध्यान तथा विद्वत्ता की परम्परा जारी रखी। पाँचवें गुरु, गुरु अर्जुन देव ने गुरुओं के धर्मग्रन्थ आदि ग्रन्थ अथवा ग्रन्थ साहिब का संकलन किया। इस बात पर ज़ोर देने के लिए कि गुरु आध्यात्मिक तथा सांसारिक दोनों क्षेत्रों में प्रमुख है, उन्होंने शान-ओ-शौकत से रहना शुरू किया। उन्होंने अमृतसर में बड़े-बड़े भवनों का निर्माण किया, क़ीमती वस्त्र पहनने शुरू किए तथा मध्य एशिया से अपने लिए घोड़े मंगवाए। उनके साथ-साथ घुड़सवार चलते थे। उन्होंने सिक्खों से उनकी आय का दस प्रतिशत भी दान के रूप में लेने की प्रथा आरम्भ की। अकबर सिक्ख गुरुओं से बहुत प्रभावित था और कहा जाता है कि वह अमृतसर भी गया था। लेकिन जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन देव को बंदी बनाये जाने और उनकी मृत्यु के बाद सिक्ख और मुग़लों में संघर्ष आरम्भ हो गया। जहाँगीर ने गुरु अर्जुन देव पर विद्रोही राजकुमार ख़ुसरो को पैसों तथा प्रार्थनाओं से सहायता करने का आरोप लगाया। उसने गुरु अर्जुन देव के उत्तराधिकारी गुरु हरगोविन्द को भी थोड़े समय तक बंदी बनाकर रखा लेकिन उन्हें जल्दी ही मुक्त कर दिया और बाद में जहाँगीर के साथ उनके सम्बन्ध सुधर गये। वे जहाँगीर के साथ उसकी मृत्यु के तुरन्त पहले कश्मीर भी गये। लेकिन शिकार के एक मामले को लेकर शाहजहाँ के साथ उनका मतभेद हो गया। इस समय तक गुरु के अनुयायियों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी और पाइंदा ख़ाँ के नेतृत्व में कुछ पठान भी इसमें शामिल हो गये थे। गुरु की मुग़लों के साथ कई मुठभेड़े हुईं और अन्त में गुरु पंजाब की तराई में जाकर बस गये जहाँ वे शान्ति से रहे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इस काल में मुग़ल शासकों तथा सिक्खों के बीच संघर्ष का वातावरण नहीं था न ही हिन्दुओं को उनके धर्म के लिए पीड़ित किया जा रहा था। अतः ऐसा कोई कारण नहीं था कि जिससे सिक्ख या अन्य कोई दल हिन्दुओं का नेता बनकर मुसलमान अत्याचार के विदोध में झंडा उठाता। सिक्ख गुरु और मुग़ल शासकों के बीच की झड़पें धार्मिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत तथा राजनीतिक कारणों से हुईं। शाहजहाँ ने यद्यपि अपने शासनकाल के आरम्भ में कट्टरता का रुख अपनाया तथा नये मन्दिरों को तुड़वाया पर इसके बावजूद वह अपने दृष्टिकोण में संकीर्ण नहीं था। बाद में उस पर उसके पुत्र दारा का भी उस पर प्रभाव पड़ा। दारा शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था और वह स्वभाव से ही विद्वान तथा सूफ़ी था। जिसकी धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ करने में बड़ी दिलचस्पी थी। काशी के ब्रह्मणों की सहायता से उसने गीता का फ़ारसी में अनुवाद किया लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदों का संकलन था। जिसकी भूमिका में उसने वेदों को काल की दृष्टि से ईश्वरीय कृति माना और उसे क़ुरान के समान बताया। इस प्रकार उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में मूलभूत अन्तर नहीं है।

गुजरात के एक अन्य कवि दादू ने जातीय भेदभाव से मुक्त निपख नामक एक धार्मिक आंदोलन को शुरू किया। उन्होंने अपने को हिन्दू या मुसलमान बताने से इन्कार किया और लोगों को दोनों के धार्मिक ग्रन्थों से ऊपर उठने के लिए कहा। उन्होंने इस बात की घोंषणा की कि ब्रह्म अथवा सर्वोच्च सत्य को विभाजित नहीं किया जा सकता।

इसी तरह की सहिष्णुता से पूर्ण धार्मिक धारा महाराष्ट्र में पंढरपुर के अनन्य भक्त तुकाराम की कृतियों में देखी जा सकती है। पंढरपुर महाराष्ट्र धर्म का केन्द्र बन गया था और वहाँ विष्णु के प्रतिरूप विठोवा की पूजा अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी। तुकाराम जो स्वयं को एक शूद्र बताते थे भगवान की प्रतिमा की पूजा अपने हाथों से किया करते थे।

यह आशा नहीं की जा सकती थी कि इस तरह के विश्वास तथा कार्यों को हिन्दू और मुसलमानों के कट्टर तत्व आसानी से स्वीकार कर लेंगे और अपनी शक्ति प्रभाव का त्याग कर देंगे जिसका वे इतने दिनों से लाभ उठाते चले आ रहे थे। कट्टर हिन्दुओं की भावनाओं को बंगाल के नवद्वीप (नदिया) के रघुनन्दन ने वाणी दी। रघुनन्दन मध्य युग के धर्मशास्त्रों के सबसे प्रभावशाली लेखक माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मणों के विशेषाधिकार पर ज़ोर दिया और इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि धर्मशास्त्रों को पढ़ना अथवा उनका प्रसार करना केवल ब्राह्मणों का अधिकार है। उनके अनुसार कलियुग में केवल दो वर्ण ब्राह्मण और शूद्र रह गये थे क्योंकि सच्चे क्षत्रियों का बहुत पहले ही लोप हो गया था और वैश्य और अन्यों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह न कर अपनी जाति खो दी थी। महाराष्ट्र के रामानन्द ने भी ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का समर्थन किया। मुसलमानों में यद्यपि तौहीद की धारा जारी रही तथा कई प्रमुख सूफ़ी सन्तों ने इसका समर्थन किया तथापि कट्टर उलमाओं के एक छोटे दल ने अकबर की सहिष्णुता की नीति की कड़ी आलोचना की। उस समय के सबसे प्रसिद्ध कट्टर मुसलमान शेख़ अहमद सरहिंदी माने जाते हैं। ये सूफ़ियों के कट्टर नक्शबंदी दल, जो अकबर के शासनकाल में भारत में आरम्भ हुआ था, उसके समर्थक थे। शेख़ अहमद सरहिंदी ने तौहीद तथा ईश्वर के एकात्म को ग़ैर-इस्लामी बताते हुए इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने ऐसे रीति रिवाजों और विश्वासों का भी विरोध किया जो हिन्दुत्व से प्रभावित थे। इनमें ध्यान लगाना, सन्तों के मज़ारों की पूजा करना तथा धार्मिक सभा में संगीत शामिल था। राज्य के इस्लामी स्वरूप पर ज़ोर देते हुए इन्होंने जज़िया को फिर से लगाने पर ज़ोर दिया और इस बात की सिफ़ारिश की क हिन्दुओं के प्रति कड़ा रुख़ अपनाया जाए और उन्हें मुसलमानों के साथ कम से कम मिलने दिया जाए। अपनी योजना के कार्यान्वयन के लिए इन्होंने कई केन्द्रों को शुरू किया तथा अपने पक्ष में लाने के लिए सम्राट तथा कई सरदारों को चिट्ठयाँ लिखीं।

इन सब के बावजूद शेख़ अहमद का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जहाँगीर ने इन्हें अपने को मुहम्मद साहब से भी बड़ा बताने के लिए बन्दी बना लिया और अपनी बात वापस लेने पर ही रिहा किया। औरंगजेब ने भी इनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

इसके साथ हम देखते हैं कि कट्टर विचारकों तथा प्रचारकों का प्रभाव बड़ा सीमित था और इनसे बहुत कम लोग प्रभावित थे। ऐसे लोगों की आशा यही रहती थी कि उन्हें धनी एवं समाज और राज्य में प्रतिष्ठित लोगों का समर्थन प्राप्त हो। दूसरी ओर सहिष्णुता के समर्थक विचारकों से आम जनता प्रभावित थी। भारतीय इतिहास में कट्टरता तथा सहिष्णुता के प्रभाव को भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह एक ओर विशेषाधिकार प्राप्त शक्तिशाली लोगों तथा दूसरी ओर मानवतावादी विचारों से प्रभावित आम जनता के बीच संघर्ष का एक रूप था।

कट्टर तथा संकीर्ण तत्वों के प्रभाव तथा उनके द्वारा प्रतिपादित संकीर्ण विचारों से दो प्रमुख धर्मों हिन्दू तथा इस्लाम के बीच समन्वय और देश की सांस्कृतिक एकता में बाधा पहुँची। औरंगजेब के शासनकाल में इन दोनों तत्वों के बीच का संघर्ष उभरकर सामने आया।


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