अक्रूर: Difference between revisions

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'''अक्रूर / Akrur'''<br />
<blockquote>तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् । <br>  
<blockquote>तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् । <br>  
तत्फलं समवाप्नोति सर्व्वतीर्थावगाहनात् ॥<br>  
तत्फलं समवाप्नोति सर्व्वतीर्थावगाहनात् ॥<br>  

Revision as of 07:02, 18 May 2010

तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् ।

तत्फलं समवाप्नोति सर्व्वतीर्थावगाहनात् ॥
अक्रूरे च पुन: स्नात्वा राहुग्रस्त दिवाकरे ।

राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलमाप्नोति मानव: ॥

ये वसुदेव के भाई बताए जाते हैं। कंस की सलाह पर श्री कृष्ण और बलराम को यही वृन्दावन से मथुरा लाए थे। कंस का वध करने के पश्चात श्री कृष्ण इनके घर गए थे। वे अक्रूर को अपना गुरु मानते थे। सत्राजित नामक यादव को सूर्य से मिली स्यमंतक मणि, जिसकी चोरी का कलंक श्री कृष्ण को लगा था, इन्हीं के पास थी। ये डरकर मणि को लेकर काशी चले गए। स्यमंतक मणि की यह विशेषता थी कि जहां वह होती वहां धन-धान्य भरा रहता था। अक्रूर के चले जाने पर द्वारका में अकाल के लक्षण प्रकट होने लगे। इस पर श्री कृष्ण का अनुरोध मानकर अक्रूर द्वारका वापस चले आए। इन्होंने स्यमंतक मणि श्री कृष्ण को दे दी। श्री कृष्ण ने मणि का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके अपने ऊपर लगा चोरी का कलंक मिटाया।

अक्रूर घाट

मथुरा और वृन्दावन के बीच में ब्रह्मह्रद नामक एक स्थान है। श्री कृष्ण ने यहीं पर अक्रूर को दिव्य दर्शन कराए थे। ब्रज क्षेत्र का यह भी एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है और वैशाख शुक्ल नवमी को यहाँ मेला लगता है। वृन्दावन आते हुए अक्रूर ने मार्ग में यमुना में कृष्ण तथा बलराम के दिव्य रूप के दर्शन किये अर्थात भगवान अनंत की गोद में कृष्ण को देखा।<balloon title="हरि0 ब0 पु0, विष्णु पर्व, 25 26" style="color:blue">*</balloon>

अक्रूर तीर्थ

अक्रूर तीर्थ, सर्व तीर्थों के राजा एवं गोपनीयता के बीच में अति गोपनीय है। पुन: सूर्यग्रहण के दिन अक्रूर तीर्थ में स्नान करने से राजसूय अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस स्थान पर श्री अक्रूर जी ने स्नान करते समय श्री कृष्ण के विभूति दर्शन का लाभ प्राप्त किया था। कंस ने श्री महादेव जी को तपस्या से सन्तुष्ट कर एक धनुष प्राप्त किया था। श्री महादेव ने उनको आशीर्वादपूर्वक वरदान दिया था कि इस धनुष के द्वारा तुम बहुत से राज्यों का जय लाभ कर सकते हो। इस धनु्ष को कोई शीघ्र सरलता से तोड़ नहीं सकता। जो इस धनुष को तोड़ेगा उसके हाथों से ही तुम्हारी मृत्यु होगी। धनुष यज्ञ का संवाद कंस ने विभिन्न देश-विदेश में प्रचारित कर दिया। इधर श्रीकृष्ण-बलराम के अनुष्ठान में योगदान के लिये कंस ने श्री अक्रूरजी को गोकुल में प्रेषित किया तब अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलराम को रथ में बैठाकर कंस की राजधानी मथुरा की तरफ चल पड़े।

भागवत के अनुसार

कृष्ण ने कंस के अनेक अनुचर दैत्यों को मार डाला तो नारद ने जाकर कंस से कहा कि कृष्ण देवकी का पुत्र है तथा बलराम रोहिणी का। इस प्रकार दोनों ही वसुदेव के पुत्र हैं। कंस ने केशी नामक राक्षस को उसे मार डालने के लिए भेजा। कंस ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल आदि मल्लों को बुलाकर कहा-'ब्रज निवासी राम और कृष्ण नाम के दो बालकों में से किसी के हाथों मेरी मृत्यु लिखी है। अत: तुम लोग दंगल में घेरे के फाटक पर ही कुवलयापीड हाथी को रखना। उसी के द्वारा उन्हें मरवा देना। तदनंतर अक्रूर को बुलाकर उसने कहा-'आप वसुदेव के दोनों बेटों बलराम तथा कृष्ण को घुमाने के बहाने से यहाँ लिवा लाइए। मेरी मृत्यु उन्हीं के हाथों लिखी है। उन्हें आप जैसे भी हो, यहाँ ले आइएगा। उन लोगों को मेरी ओर से धनुष-यज्ञ उत्सव के लिए आमन्त्रित कीजिएगा।' अक्रूर ने ब्रज में जाकर कंस का संदेश दिया। साथ ही बलराम तथा कृष्ण के सम्मुख कंस का उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया। उन दोनों ने हंसकर वहां सबसे आज्ञा ली और अक्रूर के साथ मथुरा के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में दोनों भाइयों ने अक्रूर को अपने विराट रूप के दर्शन करवाये। अक्रूर कृतकृत्य हो गये। मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण ने सबके देखते-देखते धनुष तोड़ डाला, कंस की सेना को मार डाला और अपने डेरे पर लौट गये। तदनंतर श्रीकृष्ण ने अक्रूर को हस्तिनापुर भेजा। अक्रूर ने लौटकर कृष्ण को बताया कि धृतराष्ट्र पांडवों के प्रति अन्याय करते हुए अपने बेटों को रोकने में असमर्थ थे। धृतराष्ट्र को समझाना भी असंभव था। कुन्ती अपने भाई-बंधुओं में सबसे अधिक कृष्ण को याद करती थी। उसने अपनी परवशता की कथा अक्रूर को सुनायी थी। [1] [2]

  • नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा ।
  • इसके अतिरिक्त आहुक और अक्रूर दोनों ही पराक्रमी तथा कठिन कर्म करने वाले हैं, इससे वे लोग जिस ओर रहेंगे, उसकी अपेक्षा दु:खदायक कुछ भी नहीं है, और जिसकी ओर न रहेंगे, उसे भी उससे अधिक दु:ख का विषय कुछ भी नहीं हो सकता।[3]

काव्यों में

  • कृष्णकाव्य में अक्रूर कंस के दूत, पुण्यात्मा, ब्रजवासी तथा मथुरा वासी कृष्ण की कथा के संयोजक और कृष्ण भक्त के रूप में चित्रित हुए हैं। अक्रूर के चरित्र और उससे सम्बन्धित कथाओं का मूलाधार भागवत<balloon title="भागवत(दशमस्कन्ध 38।39।40।56।57)" style="color:blue">*</balloon> में प्राप्त है। भागवत के अक्रूर कृष्ण के शुभचिन्तक, संरक्षक, अभिभावक और अन्तत: भक्त हैं।
  • लोक प्रसिद्धि के अनुसार वे यादववंशी तथा वसुदेव के भाई कहे जाते हैं। इनकी माता का नाम गांदिनी तथा पिता का नाम श्वफल्क था, अतएव इनके लिए 'सुफलक सुत' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। अक्रूर की पत्नी का नाम उग्रसेना था। कहा जाता है कि अनादृत होने पर ये कृष्ण की राजसभा में रहने लगे थे। कंस के आदेश पर ये धनुष यज्ञ के बहाने बलराम और कृष्ण को मथुरा लाने के लिए गोकुल जाते हैं। मूलत: कृष्ण भक्त होने के कारण ब्रजगमन पर कृष्ण के रूप तथा अलौकिक व्यक्तितव के चिंतन द्वारा अक्रूर की भक्तिभावना अभिव्यंजित होती हैं। कदाचित अक्रूर के भक्ति प्रवण व्यक्तित्व के ही कारण कृष्ण उनका आतिथ्य स्वीकार करते है।
  • कृष्ण के मथुरा एवं द्वारिका प्रवास में अक्रूर उनके अनुगामी भक्त ही रहते हैं। धन्वा से प्राप्त स्यमंतक मणि के संरक्षण के कारण अक्रूर का विशेष महत्व बढ़ जता है क्योंकि इस मणि के संरक्षक को विपुल धनराशि की प्राप्ति की प्रसिद्धि थी तथा इसके द्वारा अनावृष्टि आदि का नियंत्रण भी संभव था। एक बार किसी कारणवश अक्रूर के द्वारिका छोड़कर अन्यत्र चले जाने के कारण द्वारिका में अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, अकाल आदि का प्राबल्य हो उठा। कृष्ण के निर्देश पर द्वारिकावासी अक्रूर को द्वारिका वापस लाये जिससे समस्त उपद्रव शान्त हो गये। यद्यपि ये मणि को छिपाकर रखते थे, परन्तु कृष्ण के कहने पर अक्रूर ने उन्हें मणि दिखा दी।
  • सूरदास ने भागवत में प्राप्त कथा के परिबर्धित एवं विस्तृत रूप के माध्य से अक्रूर का चरित्र प्रस्तुत किया है।<balloon title="(सूरसागर, दशम् स्कंध प0 3629-3651, 1645,4809)" style="color:blue">*</balloon> भागवत के अनुसार मथुरा जाते समय मार्ग में अक्रूर यमुना स्नान करते हैं तो इन्हें जल में कृष्ण के दर्शन होते हैं, किन्तु फिर कर देखने पर कृष्ण रथ में उसी प्रकार बैठे हुए दिखाई देते हैं। भागवत में कृष्ण के इस प्रकार के दर्शन का कोई कारण निर्दिष्ट नहीं हुआ, किन्तु सूर ने अक्रूर की भक्तिनिष्ठता की व्यंजना करते हुए अन्तर्द्वन्द्व में फँसे भक्त के सन्देह निवारणार्थ अराध्य कृष्ण का दर्शन कराया है। इसी प्रकार अक्रूर के श्यामवर्ण एवं रूप की विशिष्ट कल्पना सूर की मौलिक उद्भावना है जिसके कारण 'भ्रमरगीत' के प्रसंग में वे अकारण ही गोपियों की उपेक्षा के भागी बनते हैं।
  • वैष्णवदास, रसखान, आनन्ददास, जयराम, सबलस्याम हितदास, कृष्णदास आदि द्वारा किये गये भागवत दशम स्कन्ध के भाषानुवादों में अक्रूर का चरित्र भागवत के ही आधार पर चित्रित हुआ है। सूरदास के समान किसी भी कवि ने उनके व्यक्तित्व में भक्ति का रंग उभारने का यत्न नहीं किया।
  • रीतियुग में अक्रूर का चरित्र कृष्ण कथा की संकुचित परिधि एवं सीमित दृष्टिकोणों के कारण उपेक्षित-सा रहा। 'भ्रमरगीत' एवं गोपियों की विरहानुभूति के सन्दर्भ में प्रसंग वश उनके उपेक्षा भागी के रूप में स्फुट कवित्तों के अन्तर्गत अक्रूर का नामोल्लेख मात्र हुआ है।
  • आधुनिक कृष्ण काव्यों में केवल द्वारिकाप्रसाद मिश्र कृत 'कृष्णायन'<balloon title="(कृष्णायन, अवतरण, मथुरा द्वारिका काण्ड)" style="color:blue">*</balloon> के अतिरिक्त अयोध्यासिंह उपाध्याय के 'प्रिय प्रवास'<balloon title="(प्रिय प्रवास, सर्ग 2।3)" style="color:blue">*</balloon> तथा मैथिलीशरण गुप्त कृत 'द्वापर'<balloon title="(द्वापर, पृ0 122-131)" style="color:blue">*</balloon> आदि काव्य-ग्रन्थों में कृष्ण कथा के संकोचन एवं दृष्टिकोणगत परिवर्तन के कारण अक्रूर का चरित्र पूर्णता के साथ वर्णित न हो सका। अधिकतर वे ब्रजवासी तथा द्वारिकावासी कृष्ण की कथा के संयोजक ही रूप में वर्णित हुए हैं। वे बलराम और कृष्ण को ब्रज से मथुरा लाने के अपने क्रूर कर्म के लिए पश्चाताप करते हैं। इसके अतिरिक्त आधुनिक युग का बुद्धिवाद उनके भक्तिप्रवण व्यक्तित्व को प्रभावित करता हुआ दिखाई पड़ता है। कृष्णायन, प्रिय प्रवास, द्वापर में अन्य पात्रों के समान वे भी अपने परम्परागत रूप की अपेक्षा प्रबुद्ध दिखाये गये हैं।

टीका-टिप्पणी

  1. श्रीमद् भागवत, 10 ।39, 42, 49 ।
  2. ब्रह्म पुराण, 191-192 ।(अधोलिखित अंश से इतर श्रीमद् भागवत जैसा ही है।)
  3. स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दु:खतरं तत: ।
    यस्य वापि न तौ स्यातां किं नु दु:खतरं तत: ॥10॥महाभारत शांति पर्व अध्याय-82