धनानंद: Difference between revisions

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धनानंद अथवा धननंद मगध देश का एक राजा था। इसकी राज्य-सीमा व्यास नदी तक फैली थी। मगध की सैनिक शक्ति के भय से ही सिकंदर के सैनिकों ने व्यास नदी से आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया था। पालि ग्रन्थों में मगध के तत्कालीन शासक का नाम[1] धननंद बताया गया है। इसके अतिरिक्त पालि ग्रन्थों में नौ नंदों के नाम तथा उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ बातें भी बताई गई हैं। इन ग्रन्थों से हमें पता चलता है कि नंदवंश के नौ राजा, जो सब भाई थे, बारी-बारी से अपनी आयु के क्रम से (वुड्ढपटिपाटिया) गद्दी पर बैठे। धननंद उनमें सबसे छोटा था। सबसे बड़े भाई का नाम उग्रसेन नंद बताया गया है; वही नंदवंश का संस्थापक था।[2]

जीवन परिचय

चंद्रगुप्त की तरह ही उसका प्रारम्भिक जीवन भी अत्यन्त रोमांचपूर्ण था। वह मूलत: सीमांत प्रदेश का निवासी था।[3] एक बार डाकुओं ने उसे पकड़ लिया और उसे मलय नामक एक सीमांत प्रदेश में ले गए [4]और उसे इस मत का समर्थक बना लिया कि लूटमार करना ज़मीन जोतने से अच्छा व्यवसाय है। वह अपने भाइयों तथा सगे-सम्बन्धियों सहित डाकुओं के एक गिरोह में भरती हो गया और शीघ्र ही उनका नेता बन बैठा। वे आसपास के राज्यों पर धावे मारने लगे[5] और सीमांत के नगरों पर चढ़ाई करके यह चुनौती दी : ‘या तो अपना राज्य हमारे हवाले कर दो या युद्ध करो[6]’ धीरे-धीरे वे सार्वभौम सत्ता पर अधिकार करने के स्वप्न देखने लगे।[7] इस प्रकार एक डाकू राजा राजाओं का राजा बन बैठा।[2]

चाणक्य का अपमान

कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि जिस समय चाणक्य पाटलिपुत्र आया था, उस समय धननंद वहाँ का राजा था। वह अपने धन के लोभ के लिए बदनाम था। वह ’80 करोड़ (कोटि) की सम्पत्ति’ का मालिक था और "खालों, गोंद, वृक्षों तथा पत्थरों तक पर कर वसूल" करता था। तिरस्कार में उसका नाम धननंद रख दिया गया था, क्योंकि वह ‘धन के भण्डार भरने का आदी’ था।[8] कथासरित्सागर में नंद की ’99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं’ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था।[9] उसकी धन सम्पदा की ख्याति दक्षिण तक पहुँची। तमिल भाषा की एक कविता में उसकी सम्पदा का उल्लेख इस रूप में किया गया है कि "पहले वह पाटलि में संचित हुई और फिर गंगा की बाढ़ में छिप गई।"[10] परन्तु चाणक्य ने उसे बिल्कुल ही दूसरे रूप में देखा। अब वह धन बटोरने के बजाए, उसे दान-पुण्य में व्यय कर रहा था; यह काम दानशाला नामक एक संस्था द्वारा संगठित किया जाता था। जिसकी व्यवस्था का संचालन एक संघ के हाथों में था, जिसका अध्यक्ष कोई ब्राह्मण होता था। नियम यह था कि अध्यक्ष एक करोड़ मुद्राओं तक का दान दे सकता था और संघ का सबसे छोटा सदस्य एक लाख मुद्राओं तक का। चाणक्य को इस संघ का अध्यक्ष चुना गया। परन्तु, होनी की बात, राजा को उसकी कुरूपता तथा उसका धृष्ट स्वभाव अच्छा न लगा और उसने उसे पदच्युत कर दिया। इस अपमान पर क्रुद्ध होकर चाणक्य ने राजा को शाप दिया, उसके वंश को निर्मूल कर देने की धमकी दी और एक नग्न आजीविक साधु के भेष में उसके चंगुल से बच निकला।

धननन्द और चन्द्रगुप्त

ग्रीक विवरणों के अनुसार नन्द की सेना में 2,00,000 पदाति 20,000, अश्वारोही, 2,000 रथ और 3,000 हाथी थे। कर्टियस ने तो नन्द की सेना के पदाति सैनिकों की संख्या दो लाख के बजाय छ:लाख लिखी है। इस शक्तिशाली सेना को परास्त करने के लिए चाणक्य और चन्द्रगुप्त को विकट युद्ध की आवश्यकता हुई थी। बौद्ध ग्रंथ 'मिलिन्दपन्हों' के अनुसार इस युद्ध में 100 कोटि पदाति, 10 हजार हाथी, 1 लाख अश्वारोही और 5 हजार रथ काम आये थे। इस विवरण में अवश्य ही आतिशयोक्ति से काम लिया गया हैं। पर यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त और नन्द के युद्ध की विकटता और उसमें हुए धन-जन के विनाश की स्मृति चिरकाल तक कायम रही थी, और जनता उसकी भयंकरता को भूल नहीं सकी थी। मिलिन्दपन्हो के अनुसार नन्द की सब सेना, सम्पत्ति, शक्ति और यहाँ तक कि बुद्धि भी नष्ट हो गई, तो उसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त के सम्मुख आत्मसमर्पण कर देने के लिए विवश होना पड़ा। परास्त हुए नन्द का चाणक्य ने घात नहीं किया, अपितु उसे अपनी दो पत्नियों और एक कन्या के साथ पाटलिपुत्र से बाहर चले जाने की अनुमति प्रदान कर दी। साथ ही, उतनी सम्पत्ति भी उसे अपने साथ ले जाने दी, जितनी कि एक रथ में आ सकती थी। पर अन्य प्राचीन अनुश्रुति में चाणक्य और चन्द्रगुप्त द्वारा नन्द के विनाश का उल्लेख है।[11] नन्दवंश का अंतिम शासक धनानंद बहुत दुर्बल और अत्याचारी था। कौटिल्य की सहायता से चंद्रगुप्त मौर्य ने 322 ई. पूर्व में नंदवंश को समाप्त करके मौर्य वंश की नींव डाली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (जिसका उल्लेख संस्कृत ग्रन्थों में केवल नंद के नाम से किया गया है,)
  2. 2.0 2.1 चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 34-36 |
  3. (पच्चंत-वासिक)
  4. (मुद्राराक्षस में मलय का उल्लेख मिलता है)
  5. (रट्ठं विलुमपमानो विचरंतो)
  6. (रज्जम वा देंतु युद्धं वा)।
  7. (सिंहली भाषा में महावंस टीका का मूलपाठ)
  8. (महावंस टीका)
  9. (महावंस टीका)
  10. (ऐय्यंगर कृत-बिगिनिंग्स ऑफ़ साउथ इंडियन हिस्ट्री, पृष्ठ 89)
  11. मौर्य साम्राज्य का इतिहास |लेखक: सत्यकेतु विद्यालंकार |प्रकाशक: श्री सरस्वती सदन नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 147 |

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