तीर्थंकर: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 2: Line 2:


'''तीर्थंकर''' शब्द का [[जैन धर्म]] में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार'<ref>उद्धार करना</ref> दिया।
'''तीर्थंकर''' शब्द का [[जैन धर्म]] में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार'<ref>उद्धार करना</ref> दिया।
 
==जैन तीर्थंकर==
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं। उन चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध हैं-
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं। उन चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध हैं-
#[[ॠषभनाथ तीर्थंकर]],  
#[[ॠषभनाथ तीर्थंकर]],  
Line 28: Line 28:
#[[तीर्थंकर पार्श्वनाथ|पार्श्वनाथ तीर्थंकर]]
#[[तीर्थंकर पार्श्वनाथ|पार्श्वनाथ तीर्थंकर]]
#[[महावीर|वर्धमान महावीर]]
#[[महावीर|वर्धमान महावीर]]
 
==धर्ममार्ग के नेता==
इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। [[जैन]] सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य<ref>प्रशस्त</ref> कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>  
इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। [[जैन]] सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य<ref>प्रशस्त</ref> कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>  



Revision as of 06:14, 26 February 2012

[[चित्र:Seated-Rishabhanath-Jain-Museum-Mathura-38.jpg|thumb|250px|आसनस्थ ऋषभनाथ
Seated Rishabhanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा]]

तीर्थंकर शब्द का जैन धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार'[1] दिया।

जैन तीर्थंकर

जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं। उन चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध हैं-

  1. ॠषभनाथ तीर्थंकर,
  2. अजितनाथ
  3. सम्भवनाथ
  4. अभिनन्दन
  5. सुमतिनाथ
  6. पदमप्रभु
  7. सुपार्श्वनाथ
  8. चन्द्रप्रभ
  9. पुष्पदन्त
  10. शीतलनाथ
  11. श्रेयांसनाथ
  12. वासुपूज्य
  13. विमलनाथ
  14. अनन्तनाथ
  15. धर्मनाथ
  16. शांतिनाथ
  17. कुन्थुनाथ
  18. अरनाथ
  19. मल्लिनाथ
  20. मुनिसुब्रत
  21. अरिष्टनेमि
  22. नेमिनाथ तीर्थंकर
  23. पार्श्वनाथ तीर्थंकर
  24. वर्धमान महावीर

धर्ममार्ग के नेता

इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य[2] कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[3] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[4]

वीथिका


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्धार करना
  2. प्रशस्त
  3. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1
  4. आप्तपरीक्षा, कारिका 16

संबंधित लेख