शास्त्रीय नृत्य: Difference between revisions

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Revision as of 06:28, 5 June 2010

भारत में शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के ज़रिये एक प्रकार की नृत्य-नाटिका का उदय हुआ है। जो पूर्णतः एक नाट्य स्वरूप है। इसमे अभिनेता जटिल भंगिमापूर्ण भाषा के ज़रिये एक कथा को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है और यह स्वरूप अपने सार्वभौमिक प्रभाव में उपमहाद्वीप की भाषाई सीमाओं से ऊपर उठ चुका है। कुछ शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाओं (जैसे-कथकली, कुचिपुड़ी और भागवत मेला) में लोकप्रिय हिन्दू पौराणिक कथाओं का अभिनय होता है। 20वीं शताब्दी के नर्तक उदयशंकर और शांति बर्द्धन ने इन पारम्परिक नृत्य-नाटिकाओं से प्रेरित बैले का सृजन किया। समकालीन भारतीय निर्देशक और लेखक पारम्परिक नृत्य शैलियों को फिर से परख रहे हैं और अधिक मनोवैज्ञानिक पुनरावेदन तथा गहरे कलात्मक प्रभाव के लिए अपनी रचनाओं में इनका उपयोग कर रहे हैं। भारत के गाँवों में रहने वाले करोड़ों लोग अब भी लोक विरासत की गद्य नाटकों की लोकप्रियता के बावजूद ग्रामीण भारत में नृत्य-नाटिकाओं के माध्यम से अपना मनोरंजन करते हैं। शहरी दर्शकों में सीधे गद्य नाटकों की लोकप्रियता के बावजूद ग्रामीण भारत में नृत्य-नाटिका निश्चित रूप से अधिक गहरा प्रभाव छोड़ती है और ज्यादा संतुष्टि प्रदान करती है। क्योंकि ग्रामीणों का सौंदर्य बोध अब भी परम्पराओं से जुड़ा हुआ है।

शास्त्रीय नृत्य की तकनीक और इसके प्रकार

नाट्यशास्त्र के अनुसार, नर्तक अभिनेता नाटक के अर्थ को चार प्रकार के अभिनयों के ज़रिये प्रस्तुत करता हैः आंगिक या शरीर के विभिन्न अंगों के शैलीपूर्ण संचालन के माध्यम से भावना की प्रस्तुति; वाचिक या बोली, गीत, स्वर की तारता और स्वरशैली; आहार्य या वेशभूषा और श्रृंगार; और सात्विक की किसी अन्य पुस्तक में सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक संसाधनों की प्रस्तुति है।

कलाकार के पास शैलीकृत भंगिमाओं का जटिल भंडार होता है। शरीर के प्रत्येक अंग, जिनमें से आँखें व हाथ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, के लिए पारम्परिक तौर पर मुद्राएँ निर्धारित हैं। सिर के लिए 13, भौंहों के लिए 7, नाक के लिए 6, गालों के लिए 6, ठोड़ी के लिए 7, गर्दन के लिए 9, वक्ष के लिए 5 व आँखों के लिए 36, पैरों व निम्न अंगों के लिए 32, जिनमें से 16 भूमि पर व 16 हवा के लिए निर्धारित हैं। पाँव की विभिन्न गतियाँ (जैसे-इठलाना, ठुमकना, तिरछे चलना, ताल) सावधानी से की जाती हैं। एक हाथ की 24 मुद्राएँ (असंयुक्त हस्त) और दोनों हाथों की 13 मुद्राएँ (संयुक्त हस्त), एक हस्त मुद्रा के एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न 30 अर्थ हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, एक हाथ की पताका मुद्रा, जिसमें सभी अंगुलियों को आगे बढ़ाकर, मुड़े हुए अंगूठे के साथ मिलाकर, गर्मी, वर्षा, भीड़, रात्रि, वन, घोड़ा या पक्षियों की उड़ाने को दिखाया जा सकता है। पताका मुद्रा में ही तीसरी अंगुली मोड़ने का (त्रिपताका) अर्थ मुकुट, वृक्ष विवाह, अग्नि द्वार या राजा भी हो सकता है। कर्कट (केंकड़ा) में दोनों हाथों का उपयोग कर, अंगुलियों को जोड़कर मधुमक्खी का छत्ता, जम्हाई या शंख दिखाया जा सकता है। इन अलग-अलग अर्थों के लिए हाथ की स्थिति या क्रिया भिन्न होगी।

किसी एकल नृत्य नाटिका में अभिनय करते हुए एक पुरुष या एक महिला चेहरे के भाव, मुद्राएँ व मिज़ाज बदलते हुए क्रमशः दो या तीन प्रमुख चरित्रों की अभिनय करती है। उदाहरण के लिए, भगवान कृष्ण, उनकी ईर्ष्यालु पत्नी सत्यभामा व उनकी सौम्य पत्नी रुक्मिणी को एक ही व्यक्ति अभिनीत कर सकता है। हिन्दू नृत्य व रंगमंच का सोंदर्यात्मक आनन्द इस बात पर निर्भर करता है कि कोई कलाकार किसी विशिष्ट भाव को व्यक्त करने व रस जगाने में कितना सफल है। शाब्दिक रूप में रस का अर्थ 'स्वाद' या 'महक' है और यह आनन्दातिरेक या मनोदशा है, जिसका अनुभव दर्शक किसी नृत्य (अभिनय) प्रदर्शन को देखकर करता है। हिन्दू नाटक के आलोचक कथावस्तु या किसी कविता व नाटक की तकनीकी पूर्णता की ओर अधिक ध्यान देकर रस पर अधिक ध्यान देते हैं। नृत्य में नौ रस हैं—

  • श्रृंगार रस,
  • हास्य रस,
  • करुण रस,
  • क्रोध रस,
  • भय रस,
  • वीर रस,
  • जुगुत्सा रस,
  • विस्मय रस एवं
  • शान्त रस ।

इन रसों के संगत भाव भी हैं—प्रेम, हास्य, दुख, क्रोध, ऊर्जा, भय, निराशा, आश्चर्य एवं शान्ति। अब तक मौजूद शास्त्रीय नृत्य की चार प्रमुख शैलियाँ हैं। भरतनाट्यम, कथकली, कथक और मणिपुरी। इनमें दो प्रकार के भाव हैं। एक तांडव, जो शिव के रौद्र पौरुष, दूसरा लास्य, जो शिव की पत्नी पार्वती के लयात्मक लावण्य का प्रतिनिधित्व करता है, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्में भरतनाट्यम में लास्य की प्रधानता है और इसका उदय दक्षिणी भारत के तमिलनाडु राज्य में हुआ है। कथकली केरल में जन्मी तांडव भाव की मूकानिभय नृत्य-नाटिका है। जिसमें उच्च शिरोवस्त्र वे चेहरे का विस्तृत श्रृंगार किया जाता है। कथक लास्य व तांडव का मिश्रण है। क्लिष्ट पदताल व लयात्मक रचनाओं की गणितीय परिशुद्धता इसकी विशेषता है और यह नृत्य उत्तर में फला-फूला, अपनी झूमती व विसर्पित मुद्राओं से युक्त मणिपुरी में लास्य की विशेषताएँ हैं और यह मणिपुर का नृत्य है। 1958 में नई दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी ने दो नृत्य शैलियों, आंध्र प्रदेश की कुचिपुड़ी व उड़ीसा की ओडिसी शैली को शास्त्रीय नृत्य का दर्जा दिया। स्वरूप और प्रकृति में, कुचिपुड़ी की कुछ विशेषताएँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं, ओडिसी अपने आप में एक अलग शैली है। इसका नृत्य व्याकरण मूलतः त्रिभंग से विकसित हुआ है। यह उड़ीसा की शैली है।

शास्त्रीय नृत्य की शैलियाँ

भारत में नृत्य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्यों की विभिन्ऩ विधाओं ने जन्म- लिया है। प्रत्ये‍क विधा ने विशिष्ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। प्रत्येक विधा किसी विशिष्ट क्षेत्र अथवा व्यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्व करती है।

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