मैकल पर्वतमाला: Difference between revisions

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सतपुड़ा और मैकल के जलग्रहण क्षेत्र को [[भारत]] का दूसरा सबसे बड़ा जलग्रहण क्षेत्र माना जाता है। [[नर्मदा नदी|नर्मदा]], [[सोन नदी|सोन]], [[महानदी]], [[ताप्ती नदी|ताप्ती]], पांडु, [[कन्हार नदी|कन्हार]], रिहंद, बिजुल, गोपद और बनास उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग समांतर बहती हैं और इन्होंने मैकल पर्वतश्रेणी की ओर अपेक्षाकृत नरम चट्टानों में विशाल जलद्रोणियां उत्कीर्ण की हैं।  
सतपुड़ा और मैकल के जलग्रहण क्षेत्र को [[भारत]] का दूसरा सबसे बड़ा जलग्रहण क्षेत्र माना जाता है। [[नर्मदा नदी|नर्मदा]], [[सोन नदी|सोन]], [[महानदी]], [[ताप्ती नदी|ताप्ती]], पांडु, [[कन्हार नदी|कन्हार]], रिहंद, बिजुल, गोपद और बनास उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग समांतर बहती हैं और इन्होंने मैकल पर्वतश्रेणी की ओर अपेक्षाकृत नरम चट्टानों में विशाल जलद्रोणियां उत्कीर्ण की हैं।  


चपटे शिखरवाली पहाड़ियां जिन्हें दादर कहा जाता है, अपने ऊपरी भागों में स्फोटगर्ती (वेसिकुलर) और मृणमयी मखरला (क्लेयी लेटराइट) चट्टानों से आवृत्त हैं। इनमें कई बार बोक्साइट की मात्रा काफी अधिक होती है। लौह यौगिकों के कारण इन चट्टानों का [[लाल रंग]] रहता है। मैदानों और घाटियों में ग्रेनाइटयुक्त पट्टिताश्म (ग्रेनाइटिक नीस) और माइका युक्त स्तरित चट्टानें (माइकेशियस सिस्ट) पाई जाती हैं जो साल वनों को समर्थित करती हैं। दादरों में मौसमी प्रभावों से क्षीण हुआ असिताश्म (बसाल्ट) होता है जो मिश्रित वनों के लिए उपयुक्त है।  
चपटे शिखरवाली पहाड़ियां जिन्हें दादर कहा जाता है, अपने ऊपरी भागों में स्फोटगर्ती (वेसिकुलर) और मृणमयी मखरला (क्लेयी लेटराइट) चट्टानों से आवृत्त हैं। इनमें कई बार बोक्साइट की मात्रा काफ़ी अधिक होती है। लौह यौगिकों के कारण इन चट्टानों का [[लाल रंग]] रहता है। मैदानों और घाटियों में ग्रेनाइटयुक्त पट्टिताश्म (ग्रेनाइटिक नीस) और माइका युक्त स्तरित चट्टानें (माइकेशियस सिस्ट) पाई जाती हैं जो साल वनों को समर्थित करती हैं। दादरों में मौसमी प्रभावों से क्षीण हुआ असिताश्म (बसाल्ट) होता है जो मिश्रित वनों के लिए उपयुक्त है।  


==वनस्पति जीवन==
==वनस्पति जीवन==
वनस्पति में काफी विभिन्नता पाई जाती है और यहाँ घास और कंटीली झाड़ियों से लेकर पतझड़ी वनों के दानव- साल और सागौन, प्रचुरता से मिलते हैं। कृषि, जो यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, जलोढ़ मिट्टीवाली नदी द्रोणियों में होती है। मुख्य फसलों में शामिल हैं धान, [[चना]], [[ज्वार]], जई, मकई दालें [[तिल]] और सरसों।  
वनस्पति में काफ़ी विभिन्नता पाई जाती है और यहाँ घास और कंटीली झाड़ियों से लेकर पतझड़ी वनों के दानव- साल और सागौन, प्रचुरता से मिलते हैं। कृषि, जो यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, जलोढ़ मिट्टीवाली नदी द्रोणियों में होती है। मुख्य फसलों में शामिल हैं धान, [[चना]], [[ज्वार]], जई, मकई दालें [[तिल]] और सरसों।  


यहाँ कोयला, चूना, [[बॉक्साइट]], कुरंड (कोरंडम), डोलोमाइट, संगमरमर, स्लेट और बालुकाश्म (सैंडस्टोन) के निक्षेप बहुत अधिक मात्रा में हैं। नृजातिवर्णन (एथनोग्राफी) की दृष्टि से मैकल पर्वतमाला अनेक जनजातीय समूहों का निवासस्थान है, जैसे [[गोंड]], हल्बा, [[भारिया]], [[बैगा जनजाति|बैगा]] और [[कोरकू जनजाति|कोरकू]]।
यहाँ कोयला, चूना, [[बॉक्साइट]], कुरंड (कोरंडम), डोलोमाइट, संगमरमर, स्लेट और बालुकाश्म (सैंडस्टोन) के निक्षेप बहुत अधिक मात्रा में हैं। नृजातिवर्णन (एथनोग्राफी) की दृष्टि से मैकल पर्वतमाला अनेक जनजातीय समूहों का निवासस्थान है, जैसे [[गोंड]], हल्बा, [[भारिया]], [[बैगा जनजाति|बैगा]] और [[कोरकू जनजाति|कोरकू]]।


==भू-वैज्ञानिक==  
==भू-वैज्ञानिक==  
इस क्षेत्र में एक बहुत ही रोचक भू-वैज्ञानिक विशेषता पाई जाती है। जिसके बारे में सर्वप्रथम ओस्ट्रियाई भूवैज्ञानिक एडुअर्ड सुएस (1831-1914) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द फेस ओफ दि एर्थ' ([[पृथ्वी]] का चेहरा) में लिखा था। उन्होंने सुझाया कि पुराजीव कल्प में, लगभग 16.5 करोड़ वर्ष पूर्व, 'गोंडवाना' नामक एक अतिविशाल महाद्वीप का अस्तित्व था। यह नाम मध्य भारत में रहने वाले गोंड जनजाति के नाम से लिया गया है। इस विशाल [[महाद्वीप]] के घटक प्रदेशों में, अर्थात आजकल के [[आस्ट्रेलिया]], अंटार्क्टिका, दक्षिणी नव गिनी, [[अफ्रीका]], [[अमरीका|दक्षिण अमरीका]] और भारत में पर्मियन और कार्बोनिफेरस काल के प्रारूपिक भूवैज्ञानिक लक्षण मिलते हैं। पर्मियन गोंडवाना में मिलने वाला सबसे सामान्य पत्ता ग्लोसोप्टेरिस है, जो जीभ के आकार का एक पत्ता है जिसमें जटिल जालीदार शिराविन्यास होता है। ग्लोसोप्टेरिस के पत्ते और कुछ प्रकार के कशेरुकी जीवों का समस्त गोंडवाना देशों में मिलना पिछली शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिपादित महाद्वीपीय अपसरण सिद्धांत के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। वैज्ञानिकों में यह सिद्धांत काफी अर्से तक विवादास्पद रहा क्योंकि प्लेट टेक्टोनिक की (अर्थात भू-पटलों के खिसकने की) जिस अवधारणा पर वह टिकी है उसके काम करने की रीति अभी हाल ही में ज्ञात हुई है। प्लेट टेक्टोनिक के अनुसार गोंडवाना एक चलायमान भू-पटल पर स्थित था जो खिसकता रहा और टूटता रहा और उसके टुकड़े अभी के महाद्वीप बने।  
इस क्षेत्र में एक बहुत ही रोचक भू-वैज्ञानिक विशेषता पाई जाती है। जिसके बारे में सर्वप्रथम ओस्ट्रियाई भूवैज्ञानिक एडुअर्ड सुएस (1831-1914) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द फेस ओफ दि एर्थ' ([[पृथ्वी]] का चेहरा) में लिखा था। उन्होंने सुझाया कि पुराजीव कल्प में, लगभग 16.5 करोड़ वर्ष पूर्व, 'गोंडवाना' नामक एक अतिविशाल महाद्वीप का अस्तित्व था। यह नाम मध्य भारत में रहने वाले गोंड जनजाति के नाम से लिया गया है। इस विशाल [[महाद्वीप]] के घटक प्रदेशों में, अर्थात आजकल के [[आस्ट्रेलिया]], अंटार्क्टिका, दक्षिणी नव गिनी, [[अफ्रीका]], [[अमरीका|दक्षिण अमरीका]] और भारत में पर्मियन और कार्बोनिफेरस काल के प्रारूपिक भूवैज्ञानिक लक्षण मिलते हैं। पर्मियन गोंडवाना में मिलने वाला सबसे सामान्य पत्ता ग्लोसोप्टेरिस है, जो जीभ के आकार का एक पत्ता है जिसमें जटिल जालीदार शिराविन्यास होता है। ग्लोसोप्टेरिस के पत्ते और कुछ प्रकार के कशेरुकी जीवों का समस्त गोंडवाना देशों में मिलना पिछली शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिपादित महाद्वीपीय अपसरण सिद्धांत के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। वैज्ञानिकों में यह सिद्धांत काफ़ी अर्से तक विवादास्पद रहा क्योंकि प्लेट टेक्टोनिक की (अर्थात भू-पटलों के खिसकने की) जिस अवधारणा पर वह टिकी है उसके काम करने की रीति अभी हाल ही में ज्ञात हुई है। प्लेट टेक्टोनिक के अनुसार गोंडवाना एक चलायमान भू-पटल पर स्थित था जो खिसकता रहा और टूटता रहा और उसके टुकड़े अभी के महाद्वीप बने।  


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मैकल पर्वतमाला कान्हा बाघ आरक्ष की सबसे प्रमुख भौगोलिक भू-आकृति है। यह पर्वतमाला उत्तर-दक्षिण दिशा में निकली हुई है और त्रिकोणाकार सतपुड़ा पर्वत शृंखला की पूर्वी भुजा है।

भौगर्भिक इतिहास

आरक्ष की पूर्वी सीमा पर स्थित यह पर्वतमाला नर्मदा और महानदी के जलग्रहण क्षेत्रों के बीच की विभाजन रेखा है। यह पर्वतमाला आरक्ष में पश्चिम ओर भैंसानघाट तक फैली है और नर्मदा के जलग्रहण क्षेत्र को दक्षिण-पश्चिम और पश्चिम में बंजर, तथा पूर्व और उत्तरपूर्व में हलोन में बांटती है। मुख्य मैकल श्रेणी और भैंसानघाट से उत्तर की ओर अनेक स्कंध निकले हुए हैं जो हलोन नदी की ओर बढ़ रहे पानी को अनेक सर-सरिताओं में बांट देते हैं, जैसे फेन, गौरधुनी, कश्मीरी और गोंदला। भैंसानघाट पर्वतश्रेणी बम्हनीदादर पर पहुंचकर दो भागों में बंट जाती है- मुख्य भाग उत्तर की ओर निकलता है और शाखाएं पश्चिम की ओर निकलकर बंजर के जलग्रहण क्षेत्र को स्वयं बंजर और उसकी सहायक नदी सुलकुम (जिसे उसके निचले भागों में सुरपन भी कहते हैं) के जलग्रहण क्षेत्रों में बांट देती हैं। मुख्य श्रेणी की ऊँचाई समुद्र तल से 800 से लेकर 900 मीटर है।

अपवाह

सतपुड़ा और मैकल के जलग्रहण क्षेत्र को भारत का दूसरा सबसे बड़ा जलग्रहण क्षेत्र माना जाता है। नर्मदा, सोन, महानदी, ताप्ती, पांडु, कन्हार, रिहंद, बिजुल, गोपद और बनास उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग समांतर बहती हैं और इन्होंने मैकल पर्वतश्रेणी की ओर अपेक्षाकृत नरम चट्टानों में विशाल जलद्रोणियां उत्कीर्ण की हैं।

चपटे शिखरवाली पहाड़ियां जिन्हें दादर कहा जाता है, अपने ऊपरी भागों में स्फोटगर्ती (वेसिकुलर) और मृणमयी मखरला (क्लेयी लेटराइट) चट्टानों से आवृत्त हैं। इनमें कई बार बोक्साइट की मात्रा काफ़ी अधिक होती है। लौह यौगिकों के कारण इन चट्टानों का लाल रंग रहता है। मैदानों और घाटियों में ग्रेनाइटयुक्त पट्टिताश्म (ग्रेनाइटिक नीस) और माइका युक्त स्तरित चट्टानें (माइकेशियस सिस्ट) पाई जाती हैं जो साल वनों को समर्थित करती हैं। दादरों में मौसमी प्रभावों से क्षीण हुआ असिताश्म (बसाल्ट) होता है जो मिश्रित वनों के लिए उपयुक्त है।

वनस्पति जीवन

वनस्पति में काफ़ी विभिन्नता पाई जाती है और यहाँ घास और कंटीली झाड़ियों से लेकर पतझड़ी वनों के दानव- साल और सागौन, प्रचुरता से मिलते हैं। कृषि, जो यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, जलोढ़ मिट्टीवाली नदी द्रोणियों में होती है। मुख्य फसलों में शामिल हैं धान, चना, ज्वार, जई, मकई दालें तिल और सरसों।

यहाँ कोयला, चूना, बॉक्साइट, कुरंड (कोरंडम), डोलोमाइट, संगमरमर, स्लेट और बालुकाश्म (सैंडस्टोन) के निक्षेप बहुत अधिक मात्रा में हैं। नृजातिवर्णन (एथनोग्राफी) की दृष्टि से मैकल पर्वतमाला अनेक जनजातीय समूहों का निवासस्थान है, जैसे गोंड, हल्बा, भारिया, बैगा और कोरकू

भू-वैज्ञानिक

इस क्षेत्र में एक बहुत ही रोचक भू-वैज्ञानिक विशेषता पाई जाती है। जिसके बारे में सर्वप्रथम ओस्ट्रियाई भूवैज्ञानिक एडुअर्ड सुएस (1831-1914) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द फेस ओफ दि एर्थ' (पृथ्वी का चेहरा) में लिखा था। उन्होंने सुझाया कि पुराजीव कल्प में, लगभग 16.5 करोड़ वर्ष पूर्व, 'गोंडवाना' नामक एक अतिविशाल महाद्वीप का अस्तित्व था। यह नाम मध्य भारत में रहने वाले गोंड जनजाति के नाम से लिया गया है। इस विशाल महाद्वीप के घटक प्रदेशों में, अर्थात आजकल के आस्ट्रेलिया, अंटार्क्टिका, दक्षिणी नव गिनी, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और भारत में पर्मियन और कार्बोनिफेरस काल के प्रारूपिक भूवैज्ञानिक लक्षण मिलते हैं। पर्मियन गोंडवाना में मिलने वाला सबसे सामान्य पत्ता ग्लोसोप्टेरिस है, जो जीभ के आकार का एक पत्ता है जिसमें जटिल जालीदार शिराविन्यास होता है। ग्लोसोप्टेरिस के पत्ते और कुछ प्रकार के कशेरुकी जीवों का समस्त गोंडवाना देशों में मिलना पिछली शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिपादित महाद्वीपीय अपसरण सिद्धांत के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। वैज्ञानिकों में यह सिद्धांत काफ़ी अर्से तक विवादास्पद रहा क्योंकि प्लेट टेक्टोनिक की (अर्थात भू-पटलों के खिसकने की) जिस अवधारणा पर वह टिकी है उसके काम करने की रीति अभी हाल ही में ज्ञात हुई है। प्लेट टेक्टोनिक के अनुसार गोंडवाना एक चलायमान भू-पटल पर स्थित था जो खिसकता रहा और टूटता रहा और उसके टुकड़े अभी के महाद्वीप बने।


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