रश्मिरथी चतुर्थ सर्ग: Difference between revisions
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दान | दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, | ||
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है। | एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है। | ||
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं, | बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं, |
Revision as of 13:55, 30 June 2017
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रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। चतुर्थ सर्ग की कथा इस प्रकार है -
चतुर्थ सर्ग
पाण्डवों को बराबर यह भय लगा था कि जब तक कर्ण प्रकृतिप्रदत्त कांचन कवच और कुण्डल से सुरक्षित है तब तक युद्ध में उसे कोई मार नहीं सकेगा। इसलिए भगवान ने अर्जुन के देव-पिता इंद्र से कहा कि किस प्रकार कर्ण के शरीर से कवच-कुण्डल अलग कर दो। किंतु इंद्र यह काम कैसे करता? निदान उसने कर्ण की उदारता को अपने आक्रमण का माध्यम बनाया और उसके पुण्य के द्वार पर ही उसे लूट लिया।
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं।[1]
- कर्ण अपने समय का अप्रतिम दानी था। वह नित्य प्रति एक पहर तक सूर्य की पूजा करता था और उस समय याचक उससे जो माँगते, कर्ण खुशी खुशी दे देता था।
'वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है,
कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?
विप्रदेव! मॅंगाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,
मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी 'नाहीं।'[2]
- इंद्र स्थिति का लाभ उठाकर उससे कवच और कुण्डल का दान माँगने आया। सूर्य उसके पूर्व कर्ण को सावधान कर चुके थे कि आज इंद्र ब्राह्मण का रूप धर कर तुमसे कवच कुण्डल माँगने आयेगा, तुम देना नहीं।
'समझा, तो यह और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,
देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्रगती हैं।
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,
स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।[3]
- किंतु इस चेतावनी का कोई परिणाम नहीं निकला। इंद्र जब भिक्षुक ब्राह्मण का वेश बना कर कर्ण के सामने आया और उससे कवच और कुंडल की याचना की, कर्ण 'नाहीं' न कर सका और सारे षडयंत्र से अवगत होते हुए भी उसने कवच-कुण्डल के रूप में अपनी विजय और अपने जीवन का दान कर दिया।
'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।[4]
'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था।
महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला?
किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही ढकेला?[5]
- यह कर्ण के जीवन का सबसे बड़ा दान था।
'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का।
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ।[6]
- अपनी लज्जा छिपाने को इंद्र ने भी कर्ण को 'एकघ्नी' नामक अस्त्र दिया और कहा कि जिस व्यक्ति पर तुम इसे चलाओगे, वह अवश्य ही मारा जाएगा। किंतु, एक बार से अधिक तुम इसे नहीं चला सकोगे।
'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,
मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है।
ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,
इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है।[7]
- यही अस्त्र कर्ण ने दुर्योधन के हठ के कारण घटोत्कच पर चलाया। घटोत्कच तो मर गया, किंतु 'एकघ्नी' वापस इंद्र के पास चली गयी।
कर्ण-चरित
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[8][9]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 48।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 53।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 53।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 55।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 55।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 61।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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