नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर: Difference between revisions
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नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर [[1894]] में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और संगठन के सक्रिय सदस्य बने। अपने सभी भाषणों और संबोधनों में सैयद मुहम्मद ने इस बात पर ज्यादा जोर दिया कि [[मुसलमान|मुसलमानों]] और [[हिन्दू|हिंदुओं]] को आपस में भाइयों की तरह जीना चाहिए और उनके अलग-अलग धर्म उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं करते हैं बल्कि उन्हें एक साथ जोड़कर रखते हैं। वे इस बात पर गंभीरता से विश्वास करते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य मजबूत राष्ट्र के लिये [[भारत]] के लोगों को एकजुट करने का है। | नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर [[1894]] में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और संगठन के सक्रिय सदस्य बने। अपने सभी भाषणों और संबोधनों में सैयद मुहम्मद ने इस बात पर ज्यादा जोर दिया कि [[मुसलमान|मुसलमानों]] और [[हिन्दू|हिंदुओं]] को आपस में भाइयों की तरह जीना चाहिए और उनके अलग-अलग धर्म उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं करते हैं बल्कि उन्हें एक साथ जोड़कर रखते हैं। वे इस बात पर गंभीरता से विश्वास करते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य मजबूत राष्ट्र के लिये [[भारत]] के लोगों को एकजुट करने का है। महान् नेता [[गोपाल कृष्ण गोखले]] के बाद, राजनीति में सैयद मुहम्मद को एक उदारवादी नेता के रूप में माना जा सकता है। वे क्रांतिकारी गतिविधियों में विश्वास नहीं करते थे और उनका राजनीतिक स्वतंत्रता का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होना नहीं था। | ||
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न्याय और स्पष्टता की ब्रिटिश भावना के नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर प्रशंसक थे। इसलिए, ब्रिटिश साम्राज्य का स्वशासन प्रारंभिक भारतीय नेताओं का परम लक्ष्य था और सैयद मुहम्मद उनमें से एक थे। वे [[दक्षिण अफ़्रीका]] में भारतीयों से नस्लीय भेदभाव और समानता से इनकार के कारण ज्यादा उत्तेजित थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य के बहिष्कार के लिए ब्रिटिश सरकार की गंभीर आलोचना की थी। उन्होंने कहा कि -"सभी भारतीय मुसलमानों को एक साथ शामिल होकर तुर्की साम्राज्य को बचाना चाहिए और विघटन की खिलाफत करनी चाहिए।"<ref name="a"/> | न्याय और स्पष्टता की ब्रिटिश भावना के नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर प्रशंसक थे। इसलिए, ब्रिटिश साम्राज्य का स्वशासन प्रारंभिक भारतीय नेताओं का परम लक्ष्य था और सैयद मुहम्मद उनमें से एक थे। वे [[दक्षिण अफ़्रीका]] में भारतीयों से नस्लीय भेदभाव और समानता से इनकार के कारण ज्यादा उत्तेजित थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य के बहिष्कार के लिए ब्रिटिश सरकार की गंभीर आलोचना की थी। उन्होंने कहा कि -"सभी भारतीय मुसलमानों को एक साथ शामिल होकर तुर्की साम्राज्य को बचाना चाहिए और विघटन की खिलाफत करनी चाहिए।"<ref name="a"/> |
Revision as of 14:07, 30 June 2017
नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर
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पूरा नाम | नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर |
जन्म | ? |
मृत्यु | 12 फ़रवरी, 1919 |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | राजनीतिज्ञ |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
संबंधित लेख | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, कांग्रेस अधिवेशन |
अन्य जानकारी | जनता के सामाजिक उत्थान को मानने वाले नेता नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर 1903 से 'मद्रास महाजन सभा' के अध्यक्ष रहे। उनके राष्ट्रवादी विचारों को 1913 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुनाव से पुरस्कृत किया गया। |
बाहरी कड़ियाँ | 12:13, 6 जून 2017 (IST)
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नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर (अंग्रेज़ी: Nawab Syed Muhammad Bahadur, मृत्यु- 12 फ़रवरी, 1919) भारतीय राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने सन 1913 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची सम्मेलन में अध्यक्षता की थी। बदरुद्दीन तैयबजी तथा रहीमतुल्ला एम. सयानी के बाद वे तीसरे मुस्लिम थे, जिन्होंने कांग्रेस के किसी सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।
परिचय
नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर दक्षिण भारत के सबसे धनी मुसलमानों में से एक मीर हुमायूं बहादुर के पुत्र थे। हुमायूं बहादुर गंभीर राष्ट्रवादी विचारधारा वाले मुसलमान थे, जिन्होंने अपनी प्रारंभिक अवस्था में वित्तीय और बौद्धिक दोनों तरह से समर्थन देकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मदद की। सन 1887 में आयोजित तीसरे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर ने कांग्रेस नेताओं को आर्थिक तौर पर मदद दी। उनकी मां की तरफ़ से नवाब सैयद मुहम्मद मैसूर के मशहूर टीपू सुल्तान के वंशज थे। वे टीपू सुल्तान के चौथे बेटे सुल्तान यासीन की पुत्री शहज़ादी शाहरुख बेगम के पोते थे। उनके जन्म की तारीख किसी विश्वसनीय स्रोत से पता नहीं चल पाई; एक हिन्दू के मुताबिक उनका इंतकाल 12 फ़रवरी, 1919 को हुआ।[1]
राजनीतिक जीवन
नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर का सक्रिय राजनीतिक जीवन मद्रास और दिल्ली के दो शहरों के बीच केंद्रित रहा। वह ऐसे समय में थे, जब मुस्लिम लीग आतंकवादी संगठन नहीं बना था और अनन्य विशेषाधिकार की मांग कर रहा था। वह मुस्लिम लीग के सदस्य नहीं थे, क्योंकि उनका अपना दृष्टिकोण राष्ट्रवादी था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य
नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर 1894 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और संगठन के सक्रिय सदस्य बने। अपने सभी भाषणों और संबोधनों में सैयद मुहम्मद ने इस बात पर ज्यादा जोर दिया कि मुसलमानों और हिंदुओं को आपस में भाइयों की तरह जीना चाहिए और उनके अलग-अलग धर्म उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं करते हैं बल्कि उन्हें एक साथ जोड़कर रखते हैं। वे इस बात पर गंभीरता से विश्वास करते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य मजबूत राष्ट्र के लिये भारत के लोगों को एकजुट करने का है। महान् नेता गोपाल कृष्ण गोखले के बाद, राजनीति में सैयद मुहम्मद को एक उदारवादी नेता के रूप में माना जा सकता है। वे क्रांतिकारी गतिविधियों में विश्वास नहीं करते थे और उनका राजनीतिक स्वतंत्रता का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होना नहीं था।
ब्रिटिश भावना के प्रशंसक
न्याय और स्पष्टता की ब्रिटिश भावना के नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर प्रशंसक थे। इसलिए, ब्रिटिश साम्राज्य का स्वशासन प्रारंभिक भारतीय नेताओं का परम लक्ष्य था और सैयद मुहम्मद उनमें से एक थे। वे दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों से नस्लीय भेदभाव और समानता से इनकार के कारण ज्यादा उत्तेजित थे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य के बहिष्कार के लिए ब्रिटिश सरकार की गंभीर आलोचना की थी। उन्होंने कहा कि -"सभी भारतीय मुसलमानों को एक साथ शामिल होकर तुर्की साम्राज्य को बचाना चाहिए और विघटन की खिलाफत करनी चाहिए।"[1]
अध्यक्ष
जनता के सामाजिक उत्थान को मानने वाले नेता नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर 1903 से 'मद्रास महाजन सभा' के अध्यक्ष रहे। उनके राष्ट्रवादी विचारों को 1913 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुनाव से पुरस्कृत किया गया। वे मद्रास के पहले मुस्लिम शेरिफ थे और 1896 में इस पद पर उन्हें नियुक्त किया गया था। सन 1900 में नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर को 'मद्रास विधान परिषद' के लिए और 1905 में 'इंपीरियल विधान परिषद' के लिए नामित किया गया था। जब उन्होंने 1897 में महारानी विक्टोरिया के 'हीरक जयंती समारोह' में भाग लिया, उस समय सैयद मुहम्मद को ब्रिटिश सरकार ने नवाब के खिताब से सम्मानित किया।[2]
विचार
नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर के विचार सामान्य और तकनीकी दोनों तरह की शिक्षा पर बहुत उदार थे। वे बीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीयों में भारी अशिक्षा को देखकर बहुत दु:खी हो गये थे। उनका मानना था कि- "राज्यों का मुख्य कर्तव्य मुफ्त प्राथमिक स्कूलों की स्थापना के जरिये अपने लोगों को शिक्षित करना है।" नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर का मानना था कि- "राज्य की स्थिरता और राज्य के प्रति उसके नागरिकों की वफादारी, सामाजिक संतुलन के दो खंभे हैं, जिन्हें शिक्षित सामाजिक आधार पर बनाया जाना चाहिए।" लेकिन उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि सरकार को तकनीकी शिक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए, जिससे औद्योगिक विकास और लोगों के आर्थिक कल्याण को बढ़ावा मिले।[1]
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